यही कारण है कि तेजस्वी की सभाओं में भीड़ देखकर हम महागठबंधन की जीत के बारे में स्पष्ट भविष्यवाणी नहीं कर सकते। भीड़ जुटने और जुटाने का अपना अलग अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र होता है। नरेन्द्र मोदी की 2015 वाली सभाओं में पैसे और संसाधनों की ताकत से भीड़ जुटाई जाती थी। सभा के मंच पर 10 विधानसभा क्षेत्रों के भाजपा और सहयोगी दलों के प्रत्याशी मोदी के साथ होते थे और उन दसों की जिम्मेदारी अपने अपने क्षेत्रों से लोग लाने की होती थी और लोगों को लाने के लिए उन्हें पर्याप्त संसाधन जुटा दिए जाते थे। झारखंड से लगी बिहार की सीमा पर तो झारखंड से लोगों को ढोकर लाया जाता था। जाहिर है, वे लोग उस चुनाव मे मतदाता भी नहीं थे। जाहिर है, नरेन्द्र मोदी की सभाओं की वह भीड़ बिहार की राजनीति की जमीनी हकीकत को बयान नहीं कर रही थी। नतीजे आए, तो भाजपा बुरी तरह पराजित हो चुकी थी।
अब तेजस्वी की सभाओं में उमड़ी भीड़ की बात करते हैं। भाजपा की सभाओं की तरह उनमें लोग पैसे देकर नहीं लाए जा रहे हैं। लोग खुद ब खुद आ रहे हैं। लेकिन आने वाले लोगों में आधा से ज्यादा और कहीं कहीं तो 80 फीसदी से ज्यादा उन सभाओं में लालू यादव की जाति के लोग ही होते हैं, तो किसी भी कीमत पर बिहार में यादव राज स्थापित करने के लिए कृतसंकल्प हैं। यादव बिहार की सबसे ज्यादा आबादी वाली जाति है। यह पूरी बिहार भर में फैली हुई है और सभी हिस्से में इसकी अकेली संख्या किसी भी अन्य जाति की अकेली संख्या से ज्यादा है। वे राजद और तेजस्वी के घोर समर्थक हैं। वे न केवल अपना मत राजद को देंगे, बल्कि वे चाहेंगे कि अन्य लोग भी ज्यादा से ज्यादा संख्या में राजद को ही वोट दें। इसलिए राजद के समर्थक होने के साथ साथ वे तेजस्वी के उग्र प्रचारक भी हैं। यही कारण है कि वे तेजस्वी की सभाओं में भारी संख्या में उमड़ते हैं।
लेकिन यादवों की समस्या यह है कि वे अकेले किसी पार्टी को जीत नहीं दिला सकते। उनकी जनसंख्या बिहार की कुल जनसंख्या की 14 फीसदी है। उसके साथ मुस्लिम मिलकर 30 फीसदी हो जाते हैं, क्योंकि वहां मुस्लिम आबादी 16 या साढ़े 16 फीसदी है। यदि इस 30 फीसदी का 80 फीसदी भी राजद को मतदान कर दे, तो कुल प्रतिशत 24 ही होता है और 24 फीसदी से भी जीत नहीं मिलती। जीतने के लिए कम से कम 35 फीसदी मत तो चाहिए ही। पिछले कुछ चुनावों में जीतने वाले पक्ष को करीब 40 फीसदी मत मिलते रहे हैं। और यही तथ्य है जो तेजस्वी के नेतृत्व वाले महागठबंधन की जीत को संदेहास्पद बना देते हैं।
हालांकि दो तथ्य महागठबंधन के पक्ष में है। एक तथ्य तो यह है कि बिहार के शिक्षक समुदाय में नीतीश को लेकर भारी नारागजी है। उनकी संख्या करीब 20 लाख होगी। यदि उनके प्रत्येक परिवार में औसतन 3 मतदाता भी हुए, तो ऐसे मतदाताओं की संख्या 60 लाख होगी। यदि वे जाति पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर तेजस्वी के साथ आ जाते हैं, तो मतप्रतिशत 24 फीसदी से आगे बढ़ सकता है। दूसरा तथ्य कोरोना संकट के दौरान मोदी और नीतीश द्वारा प्रवासी मजदूरों के साथ किया गया बुरा बर्ताव है। लॉकडाउन घोषित कर मोदी ने उन श्रमिकों को अपने हाल पर छोड़ दिया था। उन्होंने बिहार आने के लिए जब पैदल मार्च किया, तो नीतीश ने उन्हें पैदल आने से रोकने के लिए भी गुहार लगाई थी और मोदी ने राज्य सरकारों को उन्हें अपनी अपनी सीमाओं पर रोकने को कहा था। इसके कारण उन मजदूरों और उनके परिवारों में नीतीश और मोदी के लिए बहुत नाराजगी है। वे नाराज मतदाता भी तेजस्वी की ताकत को बढ़ा सकते हैं।
एक तीसरा कारण मोदी द्वारा रेलवे का निजीकरण है। इससे युवाओं में घोर असंतोष हैं। लाखों युवाओं ने तो बड़ी बड़ी फी देकर रेल सेवाओं के लिए आवेदन भी दे रखा है। रेलवे में नौकरी पाने की उम्मीद वे छोड़ रहे हैं और गुस्से में मोदी-नीतीश गठबंधन के खिलाफ जाकर तेजस्वी के पक्ष में वोट डाल सकते हैं और महागठबंधन की जीत संभव कर सकते हैं।
पर ये सब संभावनाएं ही हैं। बिहार में मतदान जाति के आधार पर होता है और जाति समीकरण मोदी- नीतीश के गठजोड़ के पक्ष में ही है। इसी समीकरण के बल पर इस गठबंधन ने लोकसभा चुनाव की 40 में से 39 सीटें जीत ली थीं और इसकी समीकरण ने 2010 के चुनाव में नीतीश के नेतृत्व वाले गठबंधन को 243 में 206 सीटों पी जीत दिला दी थी। तेजस्वी की जीत इस बात पर निर्भर करेगी कि बिहार में मोदी-नीतीश का यह जाति समीकरण कितना कमजोर होता है। यदि बहुत कमजोर हुआ, तो फिर राजद की जीत हो जाएगी, लेकिन यदि यह मामूली रूप से ही कमजोर हुआ, तो राजद को भले 2010 में मिली 22 सीटों से दोगुनी या तिगुनी सीटें मिल जाएं, पर सरकार नीतीश की ही बन जाएगी। (संवाद)
बिहार विधानसभा चुनाव: नीतीश रहेंगे या जाएंगे?
उपेन्द्र प्रसाद - 2020-11-07 10:26
बिहार विधानसभा चुनावों के लिए मतदान संपन्न हो गए और अगले 10 नवंबर को परिणाम भी सामने आ जाएंगे। चुनाव प्रचार के दौरान सभाओं में उमड़ी भीड़ को देखकर कोई भी कह सकता है कि तेजस्वी के नेतृत्व वाले कथित महागठबंधन की जीत होगी, लेकिन बिहार में ऐसे उदाहरण भी हैं कि सबसे ज्यादा भीड़ जुटाने वाली पार्टी हार भी गई थी। 2015 का विधानसभा चुनाव ही इसका सबसे ताजा उदाहरण है। उस साल हुए चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सभा में सबसे ज्यादा भीड़ उमड़ती थी। लालू यादव और नीतीश की सभा में कम लोग आते थे और सभाएं छोटी छोटी ही हुआ करती थी। हिलसा विधानसभा क्षेत्र में तो लालू की सभा में अपने तय समय पर 100 भी लोग एक बार नहीं जुटे थे और लालू राजद प्रत्याशी को लताड़कर बिना भाषण दिए वहां से चले गए थे, लेकिन वहां भी जीत राजद की ही हुई थी। उस चुनाव में मोदी की सभा में भारी भीड़ जुटाने वाली भाजपा की करारी हार हुई थी।