योजना यह थी कि चिराग की पार्टी को बिहार में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से बाहर जाने दो और उसके द्वारा जदयू उम्मीदवारों के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा करवाओ। कुछ भाजपा नेताओं को भी उससे टिकट दिलवा दो। कुछ जदयू के बागियों को भी टिकट दिलवा दो। भाजपा मतदाताओं के बीच यह संदेश जाने दो कि चिराग भी उनका ही आदमी है और उसकी पार्टी के उम्मीदवारों को दिया गया वोट भी भाजपा को ही दिया गया वोट है। इसका नतीजा यह होगा कि नीतीश कुमार के दल के अधिकांश उम्मीदवार चुनाव हार जाएंगे और चिराग के 15 से 20 उम्मीदवार चुनाव जीत जाएंगे।

योजनानुसार नीतीश के अधिकांश उम्मीदवार चुनाव हार भी गए। 115 उम्मीदवारों में मात्र 43 ही जीत पाए, लेकिन योजनानुसार चिराग के उम्मीदवार जीत नहीं पाए। उसके मात्र एक उम्मीदवार ही जीत सके। अब अपने 74 विधायकों और चिराग के एक विधायक, सहनी के 4 विधायक और मांझी के 4 विधायक के साथ भाजपा 83 सीटों के आंकड़े पर ही पहुंचती है। यदि एक निर्दलीय और एक बसपा विधायकों का समर्थन भी उसे हासिल हो जाता है, तो उस 85 का समर्थन हासिल होता है। सरकार बनाने के लिए और 37 विधायक वह कहां से लाए। राजद तो टूट नहीं सकता। वामपंथी विधायक भी उसके खेमे में नहीं आएंगे। ओवैसी के 5 विधायक भी उसके साथ नहीं आएगा। शेष बचे कांग्रेस के 19 विधायक। कांग्रेस भाजपा का आसान टार्गेट होती है, लेकिन उसके 19 विधायक मिलकर भी उसे बहुत के आंकड़े को पार नहीं करवा पाएंगे। लिहाजा, झख मारकर नीतीश का साथ चाहिए ही चाहिए और नीतीश तभी उसके साथ आ सकते हैं, जब उनको मुख्यमंत्री बनाया जाय। अन्यथा वे विपक्ष में रहना ही पसंद करेंगे और बहुत धकियाये जाने पर तेजस्वी की सरकार भी बनने दे सकते हैं।

इस तरह भाजपा सरकार बनाने के अपने मंसूबे में नाकाम हो गई। इसका एक कारण तो यह है कि रामविलास पासवान की शक्ति का उसने गलत अनुमान लगा लिया था। रामविलास पासवान कभी बड़े नेता रहे होंगे। उनके समर्थकों की संख्या भी अच्छी रही होगी, लेकिन अलग पार्टी बनाने के बाद वे अपनी जाति तक सिमट कर रह गए थे। उसके अलावा शुरुआती दिनों में बिहार के बाहुबलियों का साथ भी उनको मिल गया था। लेकिन अधिकांश बाहुबली उनका साथ छोड़ चुके हैं और चिराग को अपनी पार्टी की कमान सौंपने के बाद उनकी जाति का समर्थन भी उनको कम गया था। यह तो मोदी लहर का नतीजा है कि उन्होंने खुद अपने, अपने बेटे और भाई भतीजों को सांसद बनवा दिया था। लेकिन भाजपा के रणनीतिकार रामविलास पासवान को बिहार के दलितों के नेता समझ बैठे थे, जो कभी पासवान थे ही नहीं। जनता दल के उत्कर्ष के दिनों में पासवान एक बड़े नेता थे और जनता दल के सभी समर्थक उनकी आवाज पर थिरकते थे, लेकिन मौसम वैज्ञानिक का दर्जा पाकर वे एक नेता के रूप में अतीत की चीज बन चुके थे।

बहरहाल, मोदी-शाह की योजना रामविलास पासवान की मौत के कारण भी कमजोर हो गई। यदि पासवान जीवित रहते, तो मोदी सरकार में मंत्री बने रहते। तब फिर चिराग पासवान इसे और ज्यादा भुनाते कि भाजपा हमें अपना ही मानती है और हम एनडीए के हिस्सा हैं, क्योंकि पिताजी एनडीए सरकार में मंत्री हैं। तब ज्यादा से ज्यादा भाजपा समर्थक चिराग पासवान की ओर जाते और नीतीश के जीते हुए विधायकों की संख्या 43 से और भी घट जाती। चिराग पासवान के 4 या 5 और उम्मीदवार जीत जाते, लेकिन इसका फायदा तब भी भाजपा को नहीं मिलता, क्योंकि तब महागठबंधन 121 के आंकड़े को पार कर जाता और तेजस्वी की सरकार बन जाती।

चुनाव अभियान के दौरान न तो मोदी और न ही किसी अन्य बड़े नेता ने साफ साफ चिराग पासवान के खिलाफ बोला और न ही यह कहा कि एलजेपी एनडीए का हिस्सा रही ही नहीं। सिर्फ बिहार में उसके एनडीए में नहीं रहने की बात करते रहे। यह सब योजना के तहत ही किया गया और इसका असर यह हुआ कि भाजपा के वोटरों का करीब 25 फीसदी ने जदयू को वोट नहीं दिया। इसका पता चिराग की पार्टी को मिले वोट प्रतिशत से लगता है। उसका अपना वोट प्रतिशत तो मुश्किल से एक या डेढ़ रह गया होगा, लेकिन उसके करीब 6 फीसदी वोट मिले। उससे डेढ़ घटा दें, तो यह बीजेपी को मिले कुल मतों की एक चौथाई से भी ज्यादा है। यानी भाजपा समर्थकों की एक चौथाई ने जदयू को मत नहीं दिए, जिसके कारण जदयू के अधिकांश उम्मीदवार हार गए। वैसे बीजेपी समर्थक मतदाताओं को कहीं कहीं महागठबंधन के उम्मीदवारों के पक्ष में भी वोट देते देखा गया। वे वैसा कर भाजपा की अपनी सरकार के गठन का रास्ता साफ कर रहे थे।

वैसे महागठबंधन से उपेन्द्र कुशवाहा, मुकेश सहनी और जीतन राम मांझी के निकाले जाने का नुकसान भी भाजपा को हुआ। यदि वे महागठबंधन में रहते, तो उनके उम्मीदवार उस खेमे से अच्छी संख्या में जीतते और भाजपा उन्हें मिलाकर अपनी खुद की सरकार बनाने का मंसूबा पूरा कर सकती थी, लेकिन तेजस्वी के रणनीतिकार समझदार थे, जो उन्होंने इन छिटपुट जाति नेताओं को भाव नहीं दिया और महागठबंधन से उनके निकल जाने में ही अपना भला समझे।
(संवाद)