बाद में पता चला कि जब हमारे देश में अनाजोे की कीमतें बढ़ रही थीं, तो उसी समय सरकारी गोदाम अनाजों से भरे हुए थे। यानी मानसून की विफलता के बाद भी हमारे देश में अनाज के प्रचुर भंडार थे, लेकिन उसके बावजूद भी कीमतें बढ़ रही थीं। कीमतें उन चीजों की भी बढ़ रही थी, जिनकी पैदावार अच्ठी थी और बाजार में जिनकी आपूर्त्ति संतोषजनक थी। फल और सब्जियों की कीमतों के बढ़ने के तो कोई वाजिब कारण भी नहीं थे। उसके बावजूद उनकी कीमतें भी आसमान पर थीं। आज भी महंगाई थमने का नाम नहीं ले रही हैं। मनमोहन सिंह की सरकार के दूसरे कार्यकाल का पहला साल जनता के लिए तबाही का साल साबित हुआ है और इस तबाही के लिए केन्द्र सरकार की नीतियों को ही मुख्य रूप से जिम्मेदार माना जा सकता है।

बजट सत्र में केन्द्र सरकार को विपक्षी दलों के विरोध का सामना करना पड़ा। केन्द्र सरकार का बजट भी महंगाई को बढ़ाने वाला ही रहा। महगाई बढ़ाने वाले बजट प्रावधानों के खिलाफ जब विपक्ष एक जुट हो रहा था, तों बजट के पहले सत्र में केन्द्र सरकार ने महिला आरक्षण विधेयक का पासा फेंक दिया, जिसमें फंसकर विपक्षी एकता तार तार हो गई। महिला आरक्षण विधेयक पर छिड़े बवाल ने तो महंगाई के मसले को ही गौण बना दिया। बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल (यू) उसका जमकर विरोध कियाए जबकि वामदल और भाजपा सरकार के साथ रही। इस ताह महिला आरक्षण विधेयक का इस्तेमाल केन्द्र सरकार ने महंगाई के मसले पर विपक्षी एकता को तोड़ने में किया।

बजट स़त्र के दूसरे दौर में महिला आरक्षण विधेयक को लोकसभा में विचार के लिए इसलिए नहीं लाया गया, क्योंकि तृणतुल कांग्रेस भी इसके खिलाफ दिख रही है। विराम के बाद शुरू हुए सत्र में सरकार की असली समस्या वित्तीय विधेयक को पारित करवाना था और उसके सामने संयुक्त विपक्ष खड़ा था। महिला आरक्षण विधेयक पर विरोध होने के कारण समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल ने सरकार से समर्थन वापस लेने की घोषणा कर दी थी और बहुजन समाज पार्टी भी कांग्रेस से नाराज चल रही थी। यही कारण है कि केन्द्र सरकार बहुमत की संख्या से नीचे चली गई थी। इसके पास 543 सदस्यों वाले सदन में मात्र 271 सांसद रह गए थे, जो साधारण गहुमत से एक कम थे। जाहिर है महिला आरक्षण विधेयक का इस्तेमाल कर विपक्षी एकता में दरार पैदा करने की सरकार की कोशिश उसके अपने हितों के खिलाफ भी चली गई थी और केन्द्र सरकार के सामने अब बजट पास करवाने के लाले पड़ रहे थे। बजट पास करवाने मे सरकार की विफलता उसके पतन का कारण बन सकती थी।

पहले कांग्रेस भाजपा और वामदलों के अंतर्विरोध का फायदा उठाया करती थी, लेकिन अब भाजपा और वामदल एक साथ मिलकर संसद में मतदान करने लगे हैं, इसलिए केन्द्र सरकार की समस्या और भी बढ़ गई। विपक्ष ने बजट कटौती का प्रस्ताव दे रखा था और विपक्ष के उस प्रस्ताव का पारित होना भी सरकार का पतन होना ही था। लेकिन लोकसभा में सरकार विपक्षी चुनौतियों का सामना करने में सफल रही और विपक्ष के सारे प्रस्ताव पराजित हो गए हैं। विपक्ष की जिस एकता ने सरकारी खेमे में बेचैनी पैदा कर दी थी, वह एकता ऐन वक्त पर टूट गई। बहुजन समाज पार्टी ने तो मतदान में केन्द्र सरकार का साथ ही दे दिया, समाजवादी पार्टी और और राष्ट्रीय जनता दल ने मतदान का बहिष्कार कर सरकार का काम आसान कर दिया।

बसपा, सपा और राजद के प्रमुखों के खिलाफ सीबीआई जांच चल रही है। अंत में सीबीआई के डंडे का इस्तेमाल कर ही केन्द्र सरकार ने उत्तर प्रदेश और बिहार की इन तीन पार्टियों को लाइन पर लाया। मायावती के खिलाफ आय के ज्ञात स्रोतों से ज्यादा की संपत्ति का मामला चल रहा है। उसमें सीबीआई मायावती के वकील की दलील को मानता दिखाई पड़ रहा है। जब सीबीआई के वकील ने अदालत में मायावती के वकील की दलील पर विचार करने की बात कही, तभी यह स्पष्ट होने लगा था कि मायावती का कांग्रेस के साथ कुठ मोल तोल हो रहा है। लालू यादव चारा घोटाले के मामले में फंसे हुए हैं। आय से अघिक संपत्ति के मामले में सुप्रीम कोर्ट से उन्हें अभी एक बड़ी राहत मिली है, जिसमें अदालत ने बिहार सरकार को उनके खिलाफ अपील करने से मना कर दिया है और कहा है कि अपील सीबीआई ही कर सकती है। लगता है कि कांग्रेस ने लालू यादव के खिलाफ सीबीआई द्वारा अपील में जाने के भय का इस्तेमाल किया है और उसके बाद लालू यादव की भी हिम्मत सरकार के खिलाफ मतदान करने की नहीं हुई। मुलायम सिंह यादव के साथ भी कुछ इसी तरह का वाकया हुआ है। महिला आरक्षण विधेयक के मसले पर केन्द्र सरकार का विरोध करने वाली इन तीन पार्टियो ने आखिरकार समय पर साथ देकर सरकार को गिरने से बचा लिया।

महंगाई के मसले पर राजनैतिक दलों में बढ़ती एकता से उत्साहित होकर वामपंथी दल एक बार ुिर तीसरा मोर्चा खड़ा करने की कवायद करने लगे हैं। लोकसभा चुनाव के पहले भी उन्होंने तीसरे मोर्चे का एक धंुधला सा रूप पेश किया थाए हालांकि उस मोर्चे में मुलायम सिंह यादव नहीं थे। उनकी जगह मायावती थीं। अब तीसरे मोर्चे में मुलायम सिंह फिर वापस आ गए हैं। मुलायम सिंह यादव, लालू यादव और मायावती जैसे नेताओं को साथ लेकर मोर्चाबंदी करने की कोई भी कोशिश कामयाब नहीं हो सकती, क्योंकि वे तीनों नेता भ्रष्टाचार के दलदल में फंसे हुए हैं और उससे जुड़े मामलो में अदालतों के चक्कर भी लगा रहे हैं। उनका व्यक्तिगत एजेंडा ही उनका राजनैतिक एजेंडा भी है। इसलिए अपनी सुविधा अनुसार वे कभी भी मोर्चे से बाहर की राह पकड़ लेंगे। परमाणु करार के मसले पर मुलायम सिंह ने किस तरह पैंतरा बदला था, यह वामनेता पहले भी देख चुके हैं। इसलिए तीसरा मोर्चा एक छलावा से ज्यादा कुछ भी नहीं है। (संवाद)