बिहार ही नहीं, असम में कुछ स्वायत्त क्षेत्रों में हुए चुनाव में भी कांग्रेस का सूफड़ा साफ हो गया और भारतीय जनता पार्टी ने वहां शानदार जीत हासिल की और असम विधानसभा के लिए होने वाले आगामी चुनाव, जो 6 महीने के अंदर ही होने वाले हैं, में अपनी जीत की दस्तक दे दी है। राजस्थान पंचायतों में हुए चुनाव में भी कांग्रेस की हार हुई। उधर केरल में, जहां उसे भाजपा की चुनौती का सामना नहीं करना पड़ता है, बल्कि वामपंथी पार्टियां उसके सामने होती हैं, वहां भी कांग्रेस हारी। वहां इस समय वामपंथियों की सरकार है और अगले 6 महीनों में वहां विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। वहां का इतिहास है कि एक बार सीपीएम के नेतृत्व वाला फ्रंट जीतता है, तो दूसरी बार कांग्रेस के नेतृत्व वाला फ्रंट जीतता है। कायदे से इस बार वहां कांग्रेस के नेतृत्व वाले फं्रट की जीत की बारी है, लेकिन वहां स्थानीय निकायों के चुनावों में कांग्रेस जिस तरह हारी है, उससे स्पष्ट है कि वहां इस बार इतिहास नहीं दुहराया जाएगा, बल्कि सीपीएम के नेतृत्व वाला मोर्चा लगातार दूसरी बार सत्ता में आकर इतिहास बनाएगा।
विधानसभा के लिए होने वाले उपचुनावों में भी कांग्रेस की बुरी हार हुई। मध्यप्रदेश और गुजरात में तो पार्टी हारी ही है, उत्तर प्रदेश में भी उसकी हालत बहुत ही पतली है। यूपी में उसकी जीत की उम्मीद नहीं थी, लेकिन प्रियंका गांधी की सक्रियता के कारण यह उम्मीद की जा रही थी कि शायद वह कुछ बेहतर प्रदर्शन करे और उसके उम्मीदवारों द्वारा प्राप्त मतों की संख्या कुछ बेहतर हो, लेकिन वैसा कुछ हुआ नहीं। भारत की सबसे बड़ी आबादी वाला प्रदेश लगभग कांग्रेस मुक्त हो चुका है। वहां सोनिया गांधी की जीत भी कांग्रेस की ताकत से नहीं होती है, बल्कि समाजवादी पार्टी के समर्थकों के भरोसे ही होती है।
जाहिर है, कांग्रेस के सामने अस्तित्व का संकट आकर खड़ा हो गया है। यह हाल फिलहाल में नहीं खड़ा हुआ है, बल्कि 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद ही लगने लगा था कि कांग्रेस को फिर से जिंदा करने के लिए बहुत मेहनत और समझ की जरूरत होगी। लेकिन कांग्रेस नेतृत्व में न तो समझ है और न ही उनमें मेहनत करने का माद्दा है। नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस का लगातार पतन होता गया और उस पतन को रोकने की कोई कोशिश नहीं की गई। उसके ठीक उलट राहुल गांधी के नेतृत्व में पार्टी कार्यकत्ताओं में उत्साह पैदा नहीं हो सका और अनेक नेता पार्टी छोड़कर भाजपा में भागने लगे। यह पलायन अभी भी जारी है। ताजा बड़ा पलायन सिंधिया का था, जिसके कारण मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने चुनाव में जीती अपनी सरकार गंवा दी। राजस्थान में भी सचिन पायलट पार्टी से निकल रहे थे, लेकिन भारतीय जनता पार्टी की नेता वसुंधरा राजे सिंधिया की अपनी राजनीति और अशोक गहलौत की सक्रियता के कारण वह संभव नहीं हो पाया।
कांग्रेस अभी भी देश की एक बड़ी पार्टी है, जिसे पिछले लोकसभा चुनाव में 12 करोड़ से ज्यादा वोट मिले थे। लेकिन इसका कोई फुल टाइम अध्यक्ष नहीं है। सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष हैं, लेकिन स्वास्थ्य कारणों से वह पार्टी को पूरा समय देने में सक्षम नहीं हैं। 2019 के चुनाव के बाद राहुल गांधी ने पद छोड़ दिया था। इसके कारण यह पार्टी लगभग नेतृत्व हीन हो गई है। जब कभी भी कोई समस्या पैदा होती है, राहुल किसी पद पर न होने का बहाना कर उस समस्या से दूर रहते हैं और सोनिया गांधी स्वास्थ्य कारणों से उस समस्या को न तो समझ सकती हैं और न उसे हल करने के लिए आवश्यक सक्रियता दिखा सकती है। राहुल कोई जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं हैं, लेकिन जब 23 कांग्रेसी नेताओं ने पार्टी के लिए एक पूर्णकालिक अध्यक्ष के चुनाव की मांग की, तो राहुल की प्रतिक्रिया देखने लायक थी। वे छटपटाने लगे, मानो कोई उनसे उनका सबकुछ छीन रहा हो। वे नेता कह रहे थे कि राहुल को ही अध्यक्ष बना दो, लेकिन फिर भी राहुल को लगा कि वे लोग उनके खिलाफ ही मुहिम चला रहे हैं। मतलब था कि राहुल गांधी न तो खुद अघ्यक्ष बनना चाह रहे थे और न ही किसी और को बनते देखना चाह रहे थे। यथास्थिति को बनाए रखने में उनकी दिलचस्पी थी। यथास्थिति का मतलब कांग्रेस का लगातार गर्त में जाना ही है, लेकिन राहुल गांधी इसके लिए भी तैयार थे, लेकिन न तो हम अध्यक्ष बनेंगे और न ही किसी को बनने देंगे, वाला रणनीति पर अडिग थे। जाहिर है, बिना किसी जिम्मेदारी लिए या जिम्मेदारी के पद पर रहे वे कांग्रेस पर नियंत्रण चाहते हैं। सभी बड़े निणय तो वे करें, लेकिन जब संकट हल करने की बारी आए, तो भाग खड़े हों।
और जब उन्हें लगा कि असंतुष्टों की संख्या बड़ी हो रही है, तो वे कहने लगे हैं कि पार्टी जो भी करने को कहेगी, वे करेंगे। यानी अब अध्यक्ष बनने को भी वे तैयार हैं। पर यदि वे पिछले 6 साल में कांग्रेस को पटरी पर नहीं ला सके, तो आगे कैसे ले आएंगे? जो खुद पार्टी के पतन के लिए जिम्मेदार हो, वह पार्टी का उत्थान कैसे कर सकता? जाहिर है कांग्रेस की इस रात की सुबह नहीं है। (संवाद)
कांग्रेस की इस रात की सुबह नहीं
भारत की सबसे पुरानी पार्टी की दुर्दशा के पीछे राहुल ही हैं
उपेन्द्र प्रसाद - 2020-12-21 09:38
प्रत्येक बीतते दिन के साथ कांग्रेस का पतन होता जा रहा है और भारत की इस सबसे पुरानी पार्टी लावारिस और लाचार दिख रही है। उसके सामने उम्मीद की कोई किरण नहीं दिख रही है। यह खुद तो गर्त में जा ही रही है और अब तो अपने सहयोगियों को भी अपने साथ लेकर डूब जाती है। पिछले महीने हुए बिहार के चुनाव में वैसा ही हुआ। इसके खराब प्रदर्शन के कारण राष्ट्रीय जनता दल के हाथों में आ रही सत्ता फिसल गई। उस गठबंधन में राजद, कांग्रेस और वामदल थे। राजद के 50 फीसदी से ज्यादा उम्मीदवार जीत गए। वामदलों के भी 50 फीसदी से ज्यादा उम्मीदवार जीत गए, लेकिन कांग्रेस के कुल 70 में से मात्र 19 उम्मीदवार ही जीत पाए और गठबंधन को बहुमत से मात्र 12 सीटें कम पड़ गईं। 12 क्या, कांग्रेस ने यदि 6 और सीटें जीत ली होतीं, तो राजद की सरकार वहां बन जाती, क्योंकि तब एमआईएम के 5 और बीएसपी के एक विधायक गठबंधन को समर्थन देकर बहुमत का आंकड़ा पार कर लेते।