इस आंदोलन का नेतृत्व वंशवाद की कोख से निकले राजनेताओं के हाथ में भी नहीं है। वे नेता मोदी का इसलिए कुछ नहीं बिगाड़ पाते, क्योंकि वे भी जनता में अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं और आराम व विलासिता के अभ्यस्त हो चुके हैं और वे अपनी राजनीति ट्विटर, फेसबुक और मेन स्टी्रम मीडिया में दिए गए अपने बयानों से करते हैं। मोदी सरकार के सामने वे किसान हैं, जो मिट्टी से जुड़े हुए हैं, वे गमलों में उगे हुए फूल या पौघे नहीं हैं, बल्कि धरती की मिट्टी से सीधे सीधे जुड़े हुए हैं।
यदि मोदीजी यह समझते हैं कि वे किसान आंदोलन करते करते थक जाएंगे और उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा, तो वे भारी भूल कर रहे हैं। दिसंबर के अंतिम सप्ताह की कड़कड़ाती ठंढ में वे अड़े हुए हैं और तमाम प्रकार के कष्टों का सामना कर रहे हैं। उनमें अनेक तो शहीद भी हो चुके हैं, लेकिन हरेक शहादत के बाद उनका संकल्प और भी कठोर होता जा रहा है। यह सच है कि दिल्ली के आस पास डटे किसान ज्यादातर आसपास के इलाके के ही हैं, जो स्वाभाविक भी है, क्योंकि रेल गाड़ियां अभी नियमित रूप से नहीं रही है, लेकिन उन किसानों को देश के किसानों के समर्थन मिल रहे हैं और देश के अन्य भागों में भी किसान आंदोलित हैं।
आंदोलन का समर्थन भी किसानों तक ही सीमित नहीं है। उनका समर्थन अन्य पेशों से जुड़े लोग भी कर रहे हैं। सच कहा जाय, तो उन्हें राष्ट्रव्यापी समर्थन मिल रहा है और जैसे जैसे आंदोलन आगे बढ़ रहा है, उनका राष्ट्रव्यापी समर्थन और भी व्यापक होता जा रहा है। उनकी मांग भी ऐसी नहीं है, जिसे अनुचित कहा जा सके। सच तो यह है कि अनुचित काम केन्द्र सरकार ने किया है। जब देश कोरोना के कारण लॉकडाउन के फेज से गुजर रहा था, तो सरकार ने तीन अघ्यादेश लाकर कृषि व्यापार कानूनों को बदल डाला। कानून आमतौर संसद में संसद द्वारा ही बनाए जाते हैं, लेकिन कुछ अति आवश्यक और आपात स्थितियों में अध्यादेश जारी करने की भी व्यवस्था है, क्योंकि हमारे संविधान निर्माताओं ने महसूस किया था कि यदि संसद न चल रही हो और एकाएक सरकार के लिए किसी अनिवार्य और अपरिहार्य रूप में कानून बनाना जरूरी हो जाय, तो सरकार अध्यादेश के द्वारा वह कानून बना सकता है, जिसका अनुमोदन बाद में संसद से लिया जा सकता है।
पर कृषि अध्यादेश लाने के समय वैसी कोई स्थिति नहीं थी कि कृषि व्यापार को लेकर कानून लाना जीवन और मरण का सवाल हो गया हो। वह कानून संसद के अगली सत्र में भी बनाया जा सकता था, लेकिन केन्द्र सरकार ने अध्यादेश का रास्ता चुना, जो उसके गलत और खतरनाक इरादों का संकेत देता है। बाद में संसद के सत्र में उनसे संबंधित विधेयकों को जिस तरह से पारित करवाया गया, वह भी बहुत ही आपत्तिजनक था। वह आपत्तिजनक से भी ज्यादा था। उन विधेयकों पर कोई चर्चा नहीं हुई। लोकसभा में अपने बहुमत के बल पर बिना चर्चा कराए सरकार ने उसे सदन से पारित करवा दिया। लेकिन असली गंदा खेल राज्यसभा में खेला गया। वहां केन्द्र सरकार को बहुमत नहीं है। अन्य पार्टियों के समर्थन से राज्यसभा में सरकार विधेयको को पास करवाती है। कृषि कानूनों पर उसे अन्य पार्टियों का समर्थन था या नहीं, यह वह खुद दावे से कुछ नहीं कह सकती। इसलिए जब उन्हें पारित करने का समय आया, तो विधेयक के विरोधी सांसदों ने मतदात की मांग की। मतदान की मांग मान नी जाती है, लेकिन राज्यसभा के चेयरमैन की कुर्सी पर बैठे उपसभापति ने बिना मतदान कराए ही उन विधायकों को पारित घोषित करवा दिया और कहा कि वे ध्वनिमत से पास हो चुके हैं। जब मामला बराबरी का होता है और मतदान या लॉबी डिविजन की मांग होती है, तो ध्वनिमत का सहारा कभी नहीं लिया जाता, लेकिन उपसभापति हरिवंश उन विधेयकों को घ्वनिमत से ही पास घोषित कर दिया। दिलचस्प बात यह है कि वहां उपस्थित कुछ लोग कहते हैं कि ध्वनि के मामले में भी वहां विपक्ष भारी था। यानी विधेयक के लिए ‘ना’ कहने वालों की आवाज ‘हां’ कहने वालों की आवाज से ज्यादा तेज थी। इस तरह ध्वनि का भी सम्मान उपसभापति ने नहीं किया।
जो कानून गलत तरीके से बनाए गए हों और जिनके बारे में जनधारणा यह है कि वे किसानों के ही नहीं, बल्कि पूरे देश के हितों के खिलाफ है, उनके प्रति प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का प्रेम उचित नहीं। मोदीजी कहते हैं कि इससे किसानों को फायदा होगा और उनकी आय दूनी हो जाएगी, लेकिन पूरा देश जानता है कि मोदीजी का आकलन गलत साबित होता है। उनका आकलन था कि नोटबंदी से काला धन समाप्त हो जाएगा और जिन्होंने काला धन नोटों के रूप में जमा कर रखे हैं, वे रोएंगे। हुआ इसका बिल्कुल उलटा। कालेधन वालों का तो कुछ खास बिगड़ा नहीं, ईमानदार लोग जरूर मारे गए और करोड़ों लोगों ने अपनी रोजी रोटी खो दी जीएसटी के मामले में भी वही हुआ। मोदीजी ने कहा कि इससे व्यापार आसान हो जाएगा, क्योंकि दुनियाभर के टैक्स खत्म हो जाएंगे और व्यापारियों को सिर्फ एक ही टैक्स देना पड़ेगा। लेकिन इसका भी उलटा ही हुआ। व्यापारी परेशान हुए। लाखों बर्बाद हुए और अनेकों ने तो आत्महत्या तक कर ली। कोरोना में लॉकडाउन कराते हुए मोदीजी ने जो कहा था, वह भी गलत साबित हुआ। वे इतनी बार गलत साबित हुए हैं और उनकी गलती के कारण देश उतना तबाह हुआ है कि अब उनके आकलन और दावों को माना नहीं जा सकता। यही कारण है कि किसान कानूनों को लेकर मोदी के किए जा रहे दावे को किसान नहीं मानते। अच्छा होगा कि केन्द्र सरकार उन कानूनों को वापस ले ले और सभी पक्षों से बात कर बेहतर कानून बनाए। (संवाद)
किसान आंदोलन से मोदी को क्यों डरना चाहिए
सरकार जनता का सम्मान करे
उपेन्द्र प्रसाद - 2020-12-28 09:47
किसान आंदोलन के एक महीना से ज्यादा हो गए हैं, लेकिन इसे समाप्त कराने के प्रति सरकार गंभीर नहीं दिखती। सच कहा जाय, तो मोदी सरकार इसे गंभीरता से ही नहीं ले रही। वे इसे उतनी ही गंभीरता से ले रही है, जितनी गंभीरता से वह कांग्रेस व अन्य अपने विरोधी राजनैतिक दलों को लेती है। लेकिन नरेन्द्र मोदी को यह नहीं भूलना चाहिए कि किसानों का यह आंदोलन कोई राजनैतिक पार्टी का नहीं है, जिसने जनता के बीच अपना इकबाल खो दिया हो।