उसने एक कमिटी बैठा दी। इस तरह की कमिटी बैठाकर किसानों से बातचीत करना केन्द्र सरकार का काम है, सुप्रीम कोर्ट का नहीं। सुप्रीम कोर्ट का फैसला न्याय करना है। उसे यह देखना है कि केन्द्र सरकार ने जो कानून बनाए हैं, वे संविधानसंगत हैं या नहीं। उसे यह देखना है कि वैसा करने में सही प्रक्रिया को अपनाया गया है या नहीं। उसे यह भी देखना है कि क्या संविधान केन्द्र सरकार को इस तरह के कानून बनाने की इजाजत देता है या नहीं। यह देखना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि कृषि राज्य का विषय है और राज्य के विषयों पर कानून राज्य की विधानसभाओं में बनते हैं। वैसे व्यापार का मुद्दा केन्द्र की सूची में भी है। जो भी हो, सुप्रीम कोर्ट को कृषि कानूनों की संवैधानिकता की समीक्षा करनी है। यदि उसकी समीक्षा पर ये कानून सही उतरते हैं, तो सुप्रीम कोर्ट उन्हें संवैधानिक घोषित कर दे और यदि वे संविधान की कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं, तो उन्हें खारिज कर दें।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट तो न्याय के साथ साथ यहां मध्यस्थ की भूमिका में भी आ गई, जो कतई सही नहीं है। एक निष्पक्ष संस्था के रूप में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका भी पिछले दो तीन सालों के दौरान संदिग्ध हो गई है। पिछले दिनों ही उसने सेंट्रल विस्टा के निर्माण पर रोक लगा रखी थी और उसके बाद उसने उस रोक को हटा भी लिया। और भी अनेक ऐसे मामले आए हैं, जिनके कारण अब सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर भी सवाल उठाए जाते रहे हैं। एक बड़ा मामला लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों पर राज्य द्वारा किया जा रहा अत्याचार था। उनके पैदल चलने पर भी रोक लगाई जा रही थी और राज्य की सीमाओं पर उन्हें खदेड़ दिया जा रहा था। बीच रास्ते में पुलिस वाले उन पर अत्याचार कर रहे थे और अपने कर्म स्थल से अपने जन्म स्थल की ओर जा रहे मजदूरों के लिए केन्द्र और राज्य सरकारें अनेक किस्त की बाधाएं पैदा कर रही थीं। जाहिर है, उनके मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा था। उनके अधिकारों को सुरक्षा प्रदान करना सुप्रीम कोर्ट की सांवैधानिक जिम्मेदारी थी, लेकिन जब उन मजदूरों को सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप की सबसे ज्यादा जरूरत थी, उस समय सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें निराश किया। सुप्रीम कोर्ट राज्य की बातों को आंख मूंदकर मानती रही, जबकि राज्य ही उनको पीड़ा पहुंचा रहे थे। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने मजदूरों के हक में कुछ आदेश भी जारी किए, लेकिन तबतक उनका भारी नुकसान हो चुका था। उनके मानवाधिकारों का भारी उल्लंघन हो चुका था और उनके मौलिक अधिकारों की धज्जियां उड़ाई जा चुकी थीं।

यही कारण है कि आंदोलनकारी किसानों ने कमिटी के गठन को गंभीरता से नहीं लिया है। गंभीरता से क्या लेना, उलटे उसे संदेह के साथ देखा है। सुप्रीम कोर्ट ने कमिटी के गठन में उन चार लोगों को शामिल किया है, जो तीनो विवादास्पद कानूनों के पक्षधर हैं और किसान आंदोलन का विरोध कर रहे हैं। उस कमिटी के चरित्र में और किसानों से बात करने वाले मंत्रियों के चरित्र में कोई फर्क नहीं है। फर्क है, तो सिर्फ इतना कि वे मंत्री हमारे नीति निर्माता हैं, जबकि समिति के चारों सदस्यों के पास किसी तरह का कोई अधिकार नहीं है, सिवाय सुप्रीम कोर्ट को अपनी रिपोर्ट देने की। वे समिति के गठन के दूसरे दिन भी चाहें, तो अपनी रिपोर्ट दे सकते हैं, क्योंकि वे सभी इन कानूनों के बारे में पिछले कुछ महीनों में अपनी स्थिति स्पष्ट कर चुके हैं। उनमें से दो तो किसान नेता हैं। एक भारतीय किसान यूनियन के एक टूटे हुए गुट के नेता हैं, जो इन कानूनों का समर्थन कर चुके हैं और चाहते हैं कि सरकार एमएसपी को समाप्त नहीं करे। सरकार तो कह ही रही है कि एमएसपी समाप्त नहीं कर रही है। दूसरे किसान नेता महाराष्ट्र के शेतकरी संगठन के अध्यक्ष हैं। शेतकरी संगठन का गठन शरद जोशी ने किया था। अब वे इस दुनिया में नहीं हैं। लेकिन वर्तमान अध्यक्ष, तो समिति के सदस्य हैं, वे इन कानूनों का पूर्ण समर्थन करते हैं। दो अर्थशास्त्री भी इस कमिटी में हैं। उन दोनों ने भी इन कानूनों का न केवल समर्थन किया है, बल्कि कानून बनने के पहले से ही इस दिशा में प्रयत्नशील थे।

ऐसी कमिटी बनाकर सुप्रीम कोर्ट ने लोगों के मन में अपने लिए संदेह बढ़ा ही दिया है। जब उसने कमिटी बनाने की बात कही थी, तब भी किसानों ने कहा था कि हमें कमिटी से कोई मतलब नहीं होगा। अब जब कमिटी उन लोगों की है, जो पहले ही आंदोलन विरोधी और कानून समर्थक रहे हैं, तो फिर उस कमिटी की पवित्रता का कोई सवाल ही नहीं रहता और यदि किसान उससे बात नहीं करते, तो केई व्यक्ति किसानों पर सवाल नहीं खड़ा कर सकता। दरअसल किसान चाहते हैं कि सरकार पहले ये तीनों कानून वापस ले और फिर आमसहमति के बाद नये कानून बनाए। जब किसान की मांग ऐसी हो, तो फिर बीच के रास्ते की कोई संभावना नहीं रह जाती। इसलिए यदि सुप्रीम कोर्ट बीच का रास्ता तलाशने की कोशिश कर रहा है, तो उसकी कोशिश रंग नहीं लाने वाली है। हो सकता है ये कानून संविधान सम्मत भी हों, लेकिन सविधान सम्मत होने का मतलब यह नहीं है कि ये किसान सम्मत भी हों। इसलिए यह एक राजनैतिक समस्या है और इसका समाधान राजनैतिक प्रक्रिया से ही निकलेगा, न कि अदालती हस्तक्षेप से। बेहतर है, सुप्रीम कोर्ट अपने को कानूनों से संबंधित न्यायिक प्रक्रिया तक ही सीमित रखे, इसकी राजनीति के पचड़े में न पड़े। (संवाद)