तो ये चुनाव पंजाब में हो रहे थे और किसान आंदोलन वहां अपने प्रबल दौर में है। जाहिर है कि भारतीय जनता पार्टी के लिए ये चुनाव परीक्षा की घड़ी थी। वैसे यह भी सच है कि किसान गांवों में होते हैं। शहरों से भी उनका व्यापारिक और सामाजिक रिश्ता होता है, लेकिन शहरों के मतदाता आमतौर पर किसान नहीं होते। इसलिए ये चुनाव भारतीय जनता पार्टी के लिए पहले से ही हारा हुआ चुनाव नहीं था। पंजाब के शहरों में भारतीय जनता पार्टी अपने जनसंघ के दिनों से ही मजबूत रही है। सच कहा जाय तो आजादी के पहले पंजाब में ही हिन्दू महासभा का प्रदेश स्तरीय संगठन बना था और बाद में उसी ने अखिल भारतीय रूप लेकर अखिल भारतीय हिन्दू महासभा का नाम पाया। यानी जिसे हिन्दुत्व की राजनीति भारतीय जनता पार्टी करती रही है, उसकी उर्वरक जमीन पंजाब में करीब 125 सालों से है और यह शहरों में ही ळें

यही कारण है कि कांग्रेस के खिलाफ यदि कोई अन्य पार्टी वहां चुनाव जीतना चाहती, तो उसकी पसंद भाजपा से गठबंधन करना हुआ करता था, क्योंकि भाजपा शहरों में मजबूत उपस्थिति रखती थी। अकाली दल से भाजपा का जो गठबंधन होता था, उसमें भी यही फॉर्मूला होता था कि अकाली दल ज्यादातर गांव के क्षेत्रों से चुनाव लड़ेगा और भारतीय जनता पार्टी शहरों से ज्यादतर सीटों पर चुनाव लड़ेगी। इस बार अकाली दल का साथ भाजपा के साथ नहीं था। किसान कानूनों के मसलों पर ही यह गठबंधन टूटा था। इसलिए भाजपा इस बार अकेले ही चुनाव लड़ रही थी। इसके कारण इसकी जीत की संभावना तो नहीं थी, लेकिन यह देखा जा रहा था कि यह कैसा प्रदर्शन करेगी।

ते कह सकते हैं कि पंजाब के शहरों से भाजपा का सूफड़ा पूरी तरह साफ हो गया है। एक भी नगर निकाय के प्रमुख पद पर उसका कब्जा नहीं हो सका। यानी उसका प्रदर्शन शून्य रहा, वैसे कुछ नगरों के वार्डों में उसके उम्मीदवार जीते भी हैं, लेकिन वे नाम मात्र के ही हैं। उसकी हार बहुत ही बड़ी है और हार का विश्लेषण करते हुए हम यह नहीं कह सकते कि किसानों ने भाजपा को हरा दिया, क्योंकि शहरों में किसान होते ही नहीं। हां, हम कह सकते हैं कि किसान आंदोलन के कारण उपजे माहौल ने भाजपा को हरा दिया। शहरी मध्य वर्ग, सफेदपोश लोग और व्यापारी वर्ग पंजाब में ही नहीं, बल्कि देश के अधिकांश हिस्सों में भाजपा के कोर जनाधार रहे हैं। उसी के इर्द गिर्द भाजपा ने अपना आधार और बढ़ाया। वह मध्यवर्गीय मुखर आधार भाजपा का सिर्फ मतदाता आधार नहीं रहा है, बल्कि वह मत निर्माण में भी काम करता रहा है। लेकिन पंजाब नगर निकायों के नतीजे बताते हैं कि वे भाजपा से दूर जा चुके हैं और जा रहे हैं।

भाजपा की यह हार कोई साधारण हार नहीं है। उसके लिए यह चुनाव भी कोई साधारण चुनाव नहीं था। सबसे पहले तो उसके चुनाव लड़ने के लिए पर्याप्त उम्मीदवार ही नहीं मिले। कुल 2303 पदों के लिए चुनाव हो रहे थे, लेकिन वह मात्र 670 सीटों पर ही अपने उम्मीदवार दे पाई। वैसे कुछ विश्लेषक 1000 का आंकड़ा भी दे रहे हैं, लेकिन सच यही है कि कुल 670 उम्मीदवार भाजपा के टिकट पर लड़ने के लिए तैयार हुए। पार्टी के अनेक नेता और कार्यकर्त्ता तो निर्दलीय भी खड़े हो गए, जबकि उन्हें पार्टी के टिकट मिल रहे थे। उन्हें यह विश्वास हो चला था कि वे पार्टी के टिकट पर जीत नहीं पाएंगे, भले ही निर्दलीय जीत जाएं।

670 उम्मीदवार खड़े तो हो गए, लेकिन उनमें से अनेक चुनाव प्रचार भी नहीं कर पाए, क्योंकि लोग उनके साथ मारपीट कर रहे थे। उन्हें अपमानित किया जा रहा था। लोकतंत्र में ऐसा नहीं होना चाहिए, लेकिन यह हो रहा था। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष पर भी हमले किए गए। पुलिस का उन्हें संरक्षण भी मिला, फिर भी हमले होते रहे। यह नहीं कह सकते कि यह सब किसान कर रहे थे, क्योंकि किसान शहरों में नहीं होते। शहर के स्थानीय लोग ही भाजपा का विरोध कर रहे थे। अनेक ने तो अपने दरवाजों पर लिखकर पर्ची साट रखा था कि भाजपा के उम्मीदवार कृपया दरवाजा नहीं खटखटाएं, क्योंकि हम आपको वोट देने वाले नहीं हैं और अपना व हमारा समय नहीं बर्बाद करें। इस तरह की पर्ची अपने दरवाजों पर चिपकाने वाले भी किसान नहीं थे, बल्कि शहरबासी ही थे, जो खेती नहीं करते।

जाहिर है, किसान आंदोलन ने अन्य वर्गों के लोगों को भी सरकार के प्रति सशंकित कर दिया है। उन्हें भी अपना भविष्य अंधकारमय लगने लगा है, क्योंकि वे सरकार की अन्य नीतियों को भी अब अपने नजरिए से देखने लगे हैं, गोदी मीडिया के नजरिए से नहीं। और यही कारण है कि पंजाब में भाजपा को जबर्दस्त हार का सामना करना पड़ा है और इसे पंजाब तक सीमित करके देखना उचित नहीं होगा। मीडिया द्वारा जनमत को अपने पक्ष में करने की मोदी सरकार और भाजपा की रणनीति अब लोगों की समझ में आ गई है, जिसके कारण मोदी का तिलिस्म अब टूट चुका है। जाहिर है, राजनीति का एक नया अध्याय शुरू हो गया है। (संवाद)