इन पराजयों को देखते हुए हरियाणा की भाजपा सरकार प्रदेश के ग्राम पंचायत चुनाव कराने की हिम्मत ही नहीं कर रही। वहां के पंचायत चुनाव दलीय आधार पर होते हैं और पार्टी की हार के डर से खट्टर सरकार ग्राम पंचायत का चुनाव ही नहीं करवा रही है, जबकि हरियाणा के ग्राम पंचायतों, प्रखंड विकास समितियों और जिला परिषदों के कार्यकाल पिछली 23 फरवरी को ही समाप्त हो गए चुके हैं। पंचायत चुनाव कराने में खट्टर सरकार के अनिर्णय को हाई कोर्ट में चुनौती दी गई है। हो सकता है, हाई कोर्ट के आदेश के बाद हरियाणा सरकार चुनाव कराने का विवश हो।
लेकिन फिलहाल 5 राज्यों में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं। उनमें से तो पूर्ण राज्य हैं, जबकि एक केन्द्र शासित प्रदेश। चुनाव के बीच केन्द्र सरकार ने आंदोलन की अनदेखी करना शुरू कर दिया है। यानी आंदोलन को समाप्त करवाने की फिलहाल उसे कोई हड़बड़ी नहीं है। वह न तो बातचीत कर रही है और न ही दमनात्मक तरीके से उसे समाप्त करने की कोशिश कर रही है। इसका कारण यह है कि उसकी नजर विधानसभा चुनावों के नतीजों पर है। उसे विश्वास है कि इन राज्यों में हो रहे चुनावों में जीत हासिल करेगी और उसके बाद अपने प्रचार तंत्र का इस्तेमाल कर लोगों को यह संदेश भेजेगी कि आंदोलनकारी लोगों की मूल भावना का प्रतिनिधित्व नहीं करते, क्योंकि चुनाव में लोगों ने उसे जीत दिला दी है। वह कहेगी कि यदि लोगों को इन किसान कानूनों से विरोध होता, तो वह उसे हरा देती। हालांकि यह भी सच है कि भारतीय जनता पार्टी किसी राज्य के चुनाव में इन तीन कृषि कानूनों को मुद्दा नहीं बना रही। लेकिन यदि वह जीतेगी, तो कहेगी कि जनता कृषि कानून के मसले पर सरकार के पक्ष में मत व्यक्त किया है और आंदोलनकारियों के खिलाफ वोट किया है। उसके बाद किसान आंदोलन से निबटना उसके लिए आसान हो जाएगा।
पर सवाल उठता है कि क्या भारतीय जनता पार्टी अपने मंसूबे में कामयाब हो पाएगी? असम में उसकी पहले से ही सरकार है। क्षेत्रीय परिषद के चुनाव में उसे अपने सहयोगियों के साथ सफलता भी मिली थी। इसलिए वह उम्मीद कर रही है कि वह वहां दुबारा सरकार बनाने में वह सफल हो जाएगी। लेकिन इस तरह की उम्मीद करना जितना आसान है, उस उम्मीद की सफलता उतनी ही संदिग्ध है। इसका कारण यह है कि इस बार भाजपा के गठबंधन का मुकाबला कांग्रेस से नहीं, बल्कि एक महाजोट से है, जिसमें कांग्रेस के अलावा बोडो पीपल्स फ्रंट, सीपीआई, सीपीएम, सीपीएमएल व एक अन्य क्षेत्रीय पार्टी है। उसमें पूर्व मुख्यमंत्री महंता के नेतृत्व वाली असम गण परिषद (पी) के शामिल होने की भी संभावना है। जाहिर है, वहां मुकाबला बहुत कड़ा है और नतीजा आने के पहले जीत या हार का कोई दावा सिर्फ दावा ही माना जाएगा।
असम में तो भाजपा की अपनी सरकार है। इसलिए किसान आंदोलन को लेकर वहां की जीत उसे अपने प्रचार तंत्र के लिए जरूरी गोला बारूद नहीं उपलब्ध करा सकती। यह काम पश्चिम बंगाल की उसकी जीत से ही संभव है। वहां जीत के लिए उसने दलबदल कराने का अपना पुराना फॉर्मूला अख्तियार किया। उसके द्वारा उसने अपने प्रचार तंत्र को राशन मुहैया कराए और लगा कि वास्तव में ममता के पैरों के नीचे की जमीन खिसक रही है। लेकिन कुछ दिनों के बाद उस प्रचार का असर समाप्त हो गया। अभी कुछ दिन पहले दिनेश त्रिवेदी, जो टीएमसी के बहुत बड़े नेता था और जिन्हें ममता ने यूपीए की सरकार में रेल मंत्री भी बना रखा था, भाजपा में शामिल हुए। लेकिन वह एक बड़ा इवेंट नहीं बन सका। कोशिश सौरभ गांगुली को भी भाजपा में शामिल कराने की थी। बंगाल में वह बहुत लोकप्रिय हैं और वहां के लोग उन्हें बंगाली अस्मिता से भी जोड़कर देखते हैं, लेकिन गांगुली ने भाजपा में शामिल होने से इनकार कर दिया, हालांकि वे शुरू में शामिल होने के संकेत दे रहे थे। मोदी की रैली में मिठुन चक्रबर्ती जरूर भाजपा में शामिल हुए, लेकिन वे बंगाल में अब नहीं रहते और वे पुराने दिनों के दास्तां बन गए हैं। सौरभ गांगुली का भाजपा में शामिल नहीं होना यह संकेत देता है कि बंगाल में लोगों का क्या मूड है। उन्होंने लोगों का मूड देखा होगा और अपने प्रशंसकों से राय भी मांगी होगी। जब उन्हें लग गया कि भाजपा की जीत की दूर दूर तक कोई संभावना नहीं है, तभी उन्होंने भाजपा में शामिल होने से मना किया होगा। आखिर उन्हें बंगाल में बंगालियों के बीच ही रहना है और उनके मतों के खिलाफ जाकर अपनी किरकिरी क्यों करवाएंगे। दूसरी तरफ मिठुन चक्रवर्ती को बंगाल में कुछ भी दांव पर नहीं है। उनके बेटे के खिलाफ एक महिला ने बलात्कार का आरोप लगा रखा है।
सौरभ गांगुली का भाजपा में शामिल नहीं होना, यह संकेत करता है कि पश्चिम बंगाल में भाजपा की नाव डूब रही है। पिछले लोकसभा चुनाव में उसे 18 सीटों पर जीत हासिल हुई थी और 40 फीसदी से ज्यादा वोट आए थे। वे वोट कांग्रेस और लेफ्ट की कीमत पर ही आए थे। इन दोनों के गठबंधन को मात्र 13 फीसदी वोट ही मिले थे। अब लेफ्ट गठबंधन पहले से बहुत मजबूत दिख रहा है, क्योंकि उसमें इंडियन सेकुलर फ्रंट नाम की एक पार्टी भी शामिल हो गई है। गठबंधन की संयुक्त रैली में जो भीड़ जुटी, उससे लग रहा है कि वह अपना आधार वापस पा रही है। यदि ऐसा होता है, तो भाजपा को मिलने वाले वोट 2019 में मिले 40 फीसदी वोट से काफी नीचे गिर जाएंगे। और यह भी संभव है कि भाजपा लेफ्ट गठबंधन से भी नीचे आ जाए। (संवाद)
पांच राज्यों के चुनावः बाजी भाजपा के हाथों से निकल रही है
उपेन्द्र प्रसाद - 2021-03-08 11:03
पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों के लिए प्रचार जोर पकड़ चुका है। ये चुनाव देश व्यापी किसान असंतोष के बीच हो रहे हैं और कुछ राज्यों में नये कृषि कानूनों के खिलाफ तेज आंदोलन भी हो रहे हैं। जिन राज्यों में तेज आंदोलन हो रहे हैं, उन सबमें हुए स्थानीय निकायों के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी हारी है। वह हरियाणा के नगर निकायों के चुनाव में हारी। उसके बाद राजस्थान के स्थानीय निकायों के चुनाव में भी हारी। पंजाब में तो उसकी भारी दुर्गति हो गई।