पुराने लोगों का कहना है कि गठबंधन सरकार चलाना कोई आसान काम नहीं है। कांग्रेस का तो गठबंधन सरकार चलाने का इतिहास ही नहीं रहा है। वह सत्ता पर पूरी तरह से काबिज होना चाहती है, लेकिन उसके पास बहुमत नहीं है। वह अपने नेतृत्व वाली सरकार को बचाने के लिए अपने सहयोगी दल और सरकार के बाहर के दलो पर भी निर्भर है, लेकिन वह सरकार कुछ ऐसे अंदाज में चलाना चाहती है, मानों वह बहुमत में हो।
कांग्रेस तृणमूल कांग्रेस और एनसीपी के सहयोग से चल रही है। ये दोनों पार्टियां कांग्रेस से ही निकली हैं। लेकिन सत्ता के लिए उन्हें फिर कांग्रेस से हाथ मिलाना पड़ा है। कांग्रेस की भी मजबूरी है कि वह इनके साथ रहे। लेकिन कांग्रेस चाहती है कि वह इन पार्टियों को हासिण् पर धकेल कर उनकी जगह अपने को मजबूत बना ले। दूसरी तरफ ये दोनो पार्टियां भी कांग्रेस की कीमत पर अपना विस्तार करना चाहती हैं।
डीएमके के साथ भी कांग्रेस का वैसा ही रिश्ता है। कांग्रेस तमिलनाडु मंे अपने आपको मजबूत बनाने में लबी हुई है, लेकिन डीएमके का अपना एजेंडा है। वहां के मुख्यमंत्री इसी साल वहां विधानसभा का चुनाव कराना चाहतें हैं, जबकि कांग्रेस की राय इससे अलग है।
मनमोहन सिंह की सरकार में कांग्रेस के अलावा सहयोगी दलों के भ्ज्ञी मंत्री हैं। कहने को तो किसी को मंत्री बनाए रखना या उसे हटा देना प्रधानमंत्री का अधिकार होता है, लेकिन मनमोहन सिंह का यह अधिकार कांग्रेस के मंत्रियों तक ही सीमित है। सहयोगी दलो के मंत्रियों के बारे में सहयोगी दलों के नेता तय करते हैं।
यही कारण है कि आइपीएल घोटाले में नाम आने के बाद शशि थरूर को तो मंत्रिमंडल से हटा दिया गयाए लेकिन जब शरद पवार का नाम आया, तो प्रधानमंत्री कुछ भी नहीं कर पाए। उसी प्रकार संचार घोटाले में ए राजा का नाम बार बार आ रहा है, लेकिन प्रधानमंत्री चाहकर भी उन्हें नहीं हटा सकते, क्यांेकि उनके बारे में फैसला करुणानिधि को करना है और करुणानिधि पूरी तरह से राजा के साथ हैं।
बजट सत्र शुरू होने के साथ ही कांग्रेस ने महिला आरक्षण विधेयक को लाकर सरकार की स्थिति और भी नाजुक बना दी। महिला आरक्षण विधेयक राज्य सभा से पास करवा दिया गया, लेकिन वैसा करने में आहर से सहयोग दे रही दो पार्टियां सरकार के खिलाफ हो गईं। सपा और राजद का समर्थन खोने के बाद यूपीए सरकार अल्पमत में आ गई है और इसे लोकसभा में अपने समर्थक सांसदों का बहुमत बनाए रखने के लिए नियमित तौर पर पसीने बहाने पड़ रहे हैं।
कटौती प्रस्ताव को पराजित करने के लिए सरकार ने सीबीआई की सहायता ली। इससे सरकार की छवि खराब ही हुई। सीबीआई के इस्तेमाल करते समय इसे बसपा, सपा और राजद के सामने झुकना भी पड़ा होगा। उसे इन तीनों पार्टियों के सामने ही नहीं, बल्कि सरकार में शामिल अपने सहयोगी दलों के सामने भी बार बार नतमस्तक होना पड़ रहा है। (संवाद)
कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों में तालमेल नहीं
बजट सत्र में यूपीए का खराब रंग उभरा
कल्याणी शंकर - 2010-05-07 10:55
बजट के वर्तमान सत्र में यूपीए का बदरंग चेहरा दिखाई पड़ा है। कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों के बीच समय समय पर मतभेद उभर कर सामने आ रहे हैं। आइपीएल घोटाला, संचार घोटाला व फोन टेपिंग मामलों पर मनमोहन सिंह सरकार की भारी फजीहत हुई है और इसके कारण सरकार की छवि खराब हुई है।