आज उनके बेटे चिराग का राजनैतिक चिराग बुझता दिखाई दे रहा है। उन्होंने अपने बेटे के हाथ में राजनैतिक विरासत तो दे दी, लेकिन उसे मौसम विज्ञान की पढ़ाई नहीं पढ़ा सके। इसलिए चिराग को समझ में ही नहीं आया कि हवा का झोंका किधर से आने वाला है। हवा का वह झोंका आया और चिराग बुझने लगा है। अपनी मांग और रामविलास पासवान के एक दो वरिष्ठ सहयोगी चिराग को बुझने से रोकने की कोशिश कर रहे हैं और पार्टी से निकाला- निकाली के खेल में चिराग को लगा दिया है, लेकिन उनके चाचा पशुपति कुमार पारस ने अपने लंबे राजनैतिक जीवन में इस निकाला-निकाली के दर्जनों खेल देखे होंगे, इसलिए चिराग को बुझने से न तो उनकी मांग रीना पासवान रोक सकती हैं और न ही रामविलास के एक- दो पुराने सहयोगी।

रामविलास पासवान ने अपने जीवन काल में ही चिराग को पार्टी की कमान थमा दी थी। यह उनके भाई पशुपपति पारस को जरूर अखरा होगा, क्योंकि वे राजनीति में रामविलास पासवान के दाहिने हाथ हुआ करते थे। जब रामविलास ने जनता दल(यू) से अलग होकर नवंबर 2020 में लोकजन शक्ति बनाई थी, तो पशुपति कुमार पारस उस पार्टी के दूसरे सबसे ताकतवर राजनेता था। जाहिर है, अपने बड़े भाई द्वारा पार्टी को अपने बेटे का सुपूर्द कर देना उन्हें खराब लगा होगा, लेकिन वे अपने बड़े भाई का विरोध कर नहीं सकते थे, क्योंकि वे राजनीति में जो कुछ भी थे, रामविलास पासवान के कारण ही थे। चिराग के हाथ में पार्टी को सौंपकर रामविलास पासवान इस दुनिया से चल बसे और उसी समय बिहार के चुनाव का शंखनाद हो रहा था।

राजनैतिक मौसम को समझ पाने में विफल चिराग ने उसी समय गलती कर दी। कुछ लोगों का मानना है कि वे भारतीय जनता पार्टी की राजनीति के शिकार हो गए। भाजपा ने उन्हें अपनी राजनीति के लिए इस्तेमाल किया और वे इस्तेमाल हो गए। वे एनडीए से अलग हुए बिना ही बिहार में एनडीए का नेतृत्व कर रहे नीतीश कुमार के खिलाफ उलझ गए। नीतीश के उम्मीदवारों के खिलाफ उम्मीदवार खड़े कर दिए और खुद नीतीश के लिए अशोभनीय भाषा का इस्तेमाल करने लगे। चुनाव के बाद उनको जेल भेजने की धमकी देने लगे। यह सब उन्होंने किया अपनी पार्टी के नेताओं को विश्वास में लिए बिना। इसके कारण उनके चाचा पारस व अन्य नेता, जो पार्टी में मायने रखते थे, उनसे नाराज हो गए, लेकिन उस समय उन लोगों ने चुप्पी साध ली, क्योंकि रामविलास पासवान की उसी समय मौत हुई थी और पिता का साया सर से हट जाने के कारण चिराग के प्रति लोगों में सहानुभूति थी।

लेकिन चुनाव में चिराग बुरी तरह पिट गए। भाजपा नेताओं को उम्मीद थी कि चिराग के करीब 15 उम्मीदवार जीतेंगे और उनकी सहायता से भाजपा जदयू को डंप कर अपनी सरकार बना लेगी, लेकिन चिराग और भाजपा दोनों को निराशा हाथ लगी। भाजपा को झख मारकर नीतीश का नेतृत्व स्वीकार करना पड़ा, लेकिन उसके साथ ही चिराग उसके लिए अप्रासंगिक हो गए। भाजपा नेताओं से चुनाव के पहले हुई मधुर बातचीत के कारण चिराग को लगा कि उनके पिता की मौत से खाली हुई राज्यसभा की सीट उनकी मां को मिल जाएगी। लेकिन नीतीश ने वीटो कर दिया। उन्होंने भाजपा को कह दिया कि भाजपा रीना पासवान को उम्मीदवार बनाए, उनको कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन तब उनके 43 विधायक मतदान में अनुपस्थित हो जाएंगे। जदयू के विधायकों द्वारा मतदान में हिस्सा नहीं लेने का मतलब होता रीना पासवान की हार और राजद उम्मीदार की विजय। लिहाजा, भाजपा ने अपने हाथ खड़े कर दिए। यदि भाजपा चाहती, तो अन्य राज्य से भी रीना पासवान को राज्यसभा में ला सकती थी, लेकिन अब चिराग उसके काम के नहीं रह गए थे, इसलिए भाजपा की उनमें कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी।

बिहार चुनाव में मात खाने के बाद चिराग को पार्टी पर ध्यान देना चाहिए था और वरिष्ठ नेताओं के साथ लगातार संवाद करना चाहिए था, लेकिन उनकी पृष्ठभूमि ही शायद ऐसी नहीं थी कि वे बिहार के रुखड़े हाथों वाले लोजपा नेताओं के साथ संवाद करते। वे पार्टी मे या तो मनमानी कर रहे थे या कुछ कर ही नहीं रहे थे। पार्टी मौत की ओर बढ़ रही थी। उनके चाचा पारस ने सच ही कहा कि पार्टी को बचाने के लिए उन्हें लोकसभा नेता के पद से चिराग को हटाना पड़ा। चुनाव फिर लड़ने और जीतने की तमन्ना रखने वाले अन्य 4 सांसदों ने भी पारस का साथ दिया। उनके इस कदम से नीतीश से तारतम्य बैठाना भी उनके लिए आसान हो गया। मोदीजी मत्रिमंडल विस्तार में पारस को जगह दें या न दें, यह प्रमुख मुद्दा नहीं है, प्रमुख मुद्दा लोजपा के बिहार नेताओं का राजनैतिक भविष्य है, जिसे सोच-सोच कर उन्हों चिराग पासवान को लोकसभा के नेता के पद से ही नहीं, बल्कि अध्यक्ष पद से भी हटा दिया। चूंकि पार्टी के पदाधिकारियों और कार्यकर्त्ताओं का समर्थन उनके साथ ही है, इसलिए निकाला- निकाली का यह खेल भी वे ही जीतेंगे। अब तेजस्वी एक विकल्प है, लेकिन उनके साथ चिराग का टेंपरामेंट मिलना भी आसान नहीं। इसलिए चिराग के चिराग के बुझ जाने की अधिकतम संभावना है। (संवाद)