आपातकाल को याद करते हुए कांग्रेस को कोसने वालों में वे लोग भी शामिल हैं जो जेल जाने से बचने के लिए रातोंरात अपनी राजनीतिक पहचान बदल कर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी की जय-जयकार करने लगे थे। सरकार से माफी मांग कर जेल से बाहर आने वालों ने अपने माफीनामे में तत्कालीन इंदिरा गांधी के बीस सूत्रीय और संजय गांधी के पांच सूत्रीय कार्यक्रम का समर्थन करते हुए वादा किया था कि वे भविष्य में किसी भी तरह की राजनीतिक गतिविधियों में शामिल नहीं होंगे। ऐसा करने वालों में सर्वाधिक लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस और तत्कालीन जनसंघ यानी आज की भाजपा से जुडे हुए थे। यह तथ्य कई सरकारी और गैर सरकारी दस्तावेजों में दर्ज भी है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने भी आपातकाल को याद करते हुए कहा कि वह दौर कभी भुलाया नही जा सकता। हालांकि मोदी और शाह न तो उस दौर मे जेल गए थे और न ही आपातकाल विरोधी किसी संघर्ष से उनका कोई जुडाव था। अमित शाह की तो उस समय उम्र ही 10-12 वर्ष के आसपास रही होगी। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, श्श्आपातकाल के दौरान हमारे देश ने देखा कि किस तरह संस्थाओं का विनाश किया गया। हम संकल्प लेते हैं कि हम भारत की लोकतांत्रिक भावना को मजबूत करने का हर संभव प्रयास करेंगे और हमारे संविधान में निहित मूल्यों पर खरा उतरने की कोशिश करेंगे।’’

इसी तरह गृह मंत्री अमित शाह ने भी कहा कि कांग्रेस ने देश पर आपातकाल थोप कर संसद और न्यायालय को मूकदर्शक बना दिया था। आपातकाल की बरसी के मौके पर अमित शाह के नाम से कुछ अखबारों में लेख भी छपे हैं, जिनमें दावा किया गया है कि भाजपा ही देश में एक मात्र ऐसी पार्टी है जो लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था रखती है और देश मे लोकतंत्र इसलिए बचा हुआ है, क्योंकि आज सरकार चला रहे नेता उन लोगों में से हैं, जिन्होंने आपातकाल के खिलाफ दूसरी आजादी की लडाई लडी थी।

हालांकि संसद, न्यायपालिका और चुनाव आयोग सहित विभिन्न संस्थानों की पिछले सात वर्षों के दौरान किस कदर दुर्गति हुई है, संविधान को किस कदर नजरअंदाज किया जा रहा है और असहमति की आवाजों का कितनी निर्ममता से दमन किया जा रहा है, यह सब एक अलग बहस का विषय है ।

बहरहाल अमित शाह का यह दावा पूरी तरह हास्यास्पद है कि देश मे लोकतंत्र इसलिए बचा हुआ है, क्योंकि आज सरकार चला रहे नेता उन लोगों में से हैं, जिन्होंने आपातकाल के खिलाफ दूसरी आजादी की लडाई लडी थी। वैसे तो उनके इस दावे को फर्जी साबित करने वाले कई तथ्य दस्तावेजों में मौजूद हैं, लेकिन यहां सिर्फ आरएसएस के तीसरे और तत्कालीन सरसंघचालक मधुकर दत्तात्रेय देवरस उर्फ बाला साहब देवरस के उन पत्रों का उल्लेख करना ही पर्याप्त होगा, जो उन्होंने आपातकाल लागू होने के कुछ ही दिनों बाद जेल मे रहते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और सर्वोदयी नेता आचार्य विनोबा भावे को लिखे थे। उन्होने यरवदा जेल से इंदिरा गांधी को पहला पत्र 22 अगस्त, 1975 को लिखा था, जिसकी शुरुआत इस तरह थी।

"मैंने 15 अगस्त, 1975 को रेडियो पर लाल किले से राष्ट्र के नाम आपके संबोधन को यां कारागृह (यरवदा जेल) मे सुना था। आपका यह संबोधन संतुलित और समय के अनुकूल था। इसलिए मैंने आपको यह पत्र लिखने का फैसला किया।’’

इंदिरा गाँधी ने देवरस के इस पत्र का कोई जवाब नहीं दिया। देवरस ने 10 नवंबर, 1975 को इंदिरा गांधी को एक और पत्र लिखा। इस पत्र की शुरुआत उन्होंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के खि़लाफ दिए गए फैसले के लिए इंदिरा गांधी को बधाई के साथ की। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा गांधी को चुनाव में भ्रष्ट साधनों के उपयोग का दोषी मानते हुए प्रधानमंत्री पद के अयोग्य करार दिया था। देवरस ने अपने इस पत्र मे लिखा- ‘‘सुप्रीम कोर्ट के पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने आपके चुनाव को वैध घोषित कर दिया है, इसके लिए आपको हार्दिक बधाई।’’

गौरतलब है कि लगभग सभी विपक्षी दलों और कई जाने-माने तटस्थ विधिवेत्ताओं का दृढ मत था कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कांग्रेस सरकार के दबाव में दिया गया था। देवरस ने अपने इस पत्र में यहाँ तक कह दिया- श्श् सरकार ने अकारण ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम गुजरात के छात्र आंदोलन और जयप्रकाश नारायण के बिहार आंदोलन के साथ जोड़ दिया है, जबकि संघ का इन आंदोलनों से कोई संबंध नही हैं...।’’

चूंकि इंदिरा गाँधी ने देवरस के इस पत्र का भी जवाब नहीं दिया।, लिहाजा आरएसएस प्रमुख देवरस ने विनोबा भावे से संपर्क साधा, जिन्होंने आपातकाल को ‘अनुशासन पर्व’ की संज्ञा देते हुए उसका समर्थन किया था। देवरस ने दिनांक 12 जनवरी, 1976 को लिखे अपने पत्र मे विनोबा भावे से आग्रह किया कि आरएसएस पर प्रतिबंध हटाए जाने के लिए वे इंदिरा गाँधी को सुझाव दें।

विनोबा भावे ने भी देवरस के पत्र का जवाब नहीं दिया। हताश देवरस ने विनोबा को एक और पत्र लिखा। उन्होंने इस पत्र में लिखा- "अखबारों में छपी सूचनाओं के अनुसार प्रधानमंत्री (इंदिरा गाँधी) 24 जनवरी को वर्धा, पवनार आश्रम में आपसे मिलने आ रही है। उस समय देश की वर्तमान परिस्थिति के बारे में उनकी आपके साथ चर्चा होगी। मेरी आपसे याचना है कि प्रधानमंत्री के मन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में जो गलत धारणा घर कर गई है, आप कृपया उसे हटाने की कोशिश करें, ताकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगा प्रतिबंध हटाया जा सके और जेलो मे बंद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग रिहा होकर प्रधानमंत्री के नेतृत्व में देश की प्रगति के लिए सभी क्षेत्रों में अपना योगदान कर सके।’’

विनोबा ने देवरस के इस पत्र का भी कोई जवाब नहीं दिया। यह भी संभव है कि दोनों ही पत्र विनोबा जी तक पहुंचे ही न हो। जो भी हो, इंदिरा गांधी और विनोबा जी को लिखे गए ये सभी पत्र देवरस की पुस्तक श्हिंदू संगठन और सत्तावादी राजनीति’ में परिशिष्ट के तौर पर शामिल हैं। इस पुस्तक का प्रकाशन जागृति प्रकाशन, नोएडा ने किया है।

बहरहाल, इंदिरा गांधी और आचार्य विनोबा को लिखे देवरस के पत्रों से यह तो जाहिर होता ही है कि आरएसएस आधिकारिक तौर पर आपातकाल विरोधी संघर्ष मे शामिल नहीं था। संगठन के स्तर पर आपातकाल का समर्थन करने और सरकार को सहयोग देने की उसकी औपचारिक पेशकश जब बेअसर साबित हुई तो आरएसएस के जो कार्यकर्ता गिरफ्तार कर लिए गए थे, उन्होंने व्यक्तिगत तौर पर माफीनामे देकर जेल से छूटने का रास्ता अपनाया। ऐसे सारे लोग आज अपने-अपने प्रदेशों में राज्य सरकार से मीसाबंदी के नाम पर 10 से 25 हजार रुपए तक की मासिक पेंशन लेकर डकार रहे हैं। पेंशन लेने वालों में कई सांसद, विधायक और मंत्री भी शामिल हैं। ऐसे भी कई लोग हैं जो आपातकाल के दौरान जेल तो दूर, पुलिस थाने तक भी नहीं गए थे लेकिन वे अपने जेल जाने के फर्जी दस्तावेज पेश कर मीसाबंदी की पेंशन ले रहे हैं।

आपातकाल के दौरान आरएसएस के कई स्वयंसेवक तो इतने ‘बहादुर’ निकले कि उन्होंने आपातकाल लगते ही गिरफ्तारी से बचने और अपनी राजनीतिक पहचान छुपाए रखने के लिए अपने घरों में दीवारों पर टंगी हेडगेवार, गोलवलकर और सावरकर की तस्वीरें भी उतार कर नष्ट कर उनके स्थान पर महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और संजय गांधी की तस्वीरें लटका ली थी। ऐसे लोगों ने अपनी मूल राजनीतिक पहचान तब तक जाहिर नहीं होने दी थी, जब तक कि लोकसभा के चुनाव नहीं हो गए थे और जनता पार्टी की सरकार नहीं बन गई थी। इस तरह के तमाम लोगों ने भी आपातकाल को उसकी 46वीं बरसी पर याद करते हुए सोशल मीडिया पर बडी शान से बताया कि वे भी आपातकाल विरोधी संघर्ष में शामिल थे।

आपातकाल के दौरान जो लोग माफीनामे लिख कर जेल जाने से बचे थे या जेल से छूटे थे, उनसे संबंधित दस्तावेज और संघ प्रमुख देवरस के इंदिरा गांधी तथा विनोबा जी को लिखे पत्र आपातकाल के दौरान हुई सरकारी ज्यादतियों की जांच के लिए गठित शाह आयोग के समक्ष भी गवाहियों के तौर पर पेश किए गए थे। ऐसे सभी दस्तावेज अगर योजनापूर्वक नष्ट नहीं कर दिए गए हों तो आज भी आज गृह मंत्रालय की फाइलों में दबे हो सकते हैं।

बहरहाल, उन तमाम राजनीतिक कार्यकर्ताओं, लेखकों, पत्रकारों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों के संघर्ष को सलाम किया जाना चाहिए, जो तानाशाही हुकूमत के सामने झुके या टूटे बगैर जेल में रहे थे या वास्तविक तौर पर भूमिगत रहते हुए लोकतंत्र को बचाने के संघर्ष मे जुटे रहे थे और जिसकी वजह से उनके परिजनों ने तरह-तरह की दुश्वारियों का सामना किया था। (संवाद)