आजाद देश में सरकार ने जाति गणना बंद करा दी। विभाजित करने वाली नीति देश के लिए अहितकर थी। लेकिन हाल के कुछ चुनावों में सत्ता पर पकड़ के लिए जातिगत समीकरण तेजी से बनाये जाने लगे। छोटे से बड़े हर चुनाव में जातियों के हिसाब से उम्मीदवार तय किये जाने लगे और तो और प्रेस ने भी किसी प्रत्याशी की जीत हार का आकलन धर्म और जाति आधार पर मिलने वाले वोटो को स्वाभाविक प्राप्त होगें ऐसा मानते हुऐ सर्व देना शुरू कर दिया। इतना ही नहीं जातियों के वोटों को देख कर आरक्षण की लुभावने वादों ने जनता के बीच में विषमता बढ़ा दी। इसके कारण घृणा पूर्ण जातिवाद का जहर और भी बढ़ता चला गया।

सत्ता के लालच में वीपी सिंह सरकार ने आरक्षण लागू करने की घोषणा सरकार जाने और चुनावी मैदान में कांग्रेस बीजेपी को धराशायी करने के लालच में की। अन्य पिछड़े वर्गाें को आरक्षण देने के काम ने आग में घी का काम किया। सच्चाई ता यही है कि रोटी देने की जगह गेंहूँ उगाना बताना ईमानदारी की मदद है। आरक्षण वोअ की लूट खसोट का दाना बन कर रह गया । मजे कि बात और ठोस सच तो यही है कि यह लाभ समाज में पहले से ही स्थापित पिछड़भ् जाति का अमीर वर्ग ही ले गया जिसे इसकी जरूरत नहीं थी।

असल में सेसद के नेता इसलिए ये मुद्दे उदालतें है क्यांेकि भ्रष्टाचारों के आरोपों से धिरी, कागजी नीतियों के कारण विफल सरकार के कारनामेां पर किसी की नजर न पड़े। है। महिला आरक्षण विधेयक के नाटक की तरह ही मंहगाई से जनता का ध्यान हटाने और बहुराष्ट्रीय कंपनीयों के हाथों लुटते देश पर कोई रूकावट ना आ जाय इस लिऐ फौरी तौर पर जाति जनगणना की घोषणा कर दी।

इस तरह की जनगणना से कोई विकास पूर्ण काम नहीं होगा। जरूरी बहुतेरे काम है। नक्सलवाद के फोडे का नासूर, काश्मीर की सीमा में अब तक घूसपैठ, गरीबी के दंश में आधी से ज्यादा आबादी, अपराध का ऊँचा होता ग्राफ। प्रशासन तंत्र निर्णयों का इंतजार करता है लेकिन वो फैसले मिलते है जब अर्थ हीन हो जाते है।