रविशंकर प्रसाद ट्विटर के साथ युद्ध में रत थे। ट्विटर का तो कुछ बिगड़ नहीं रहा था, लेकिन मोदी सरकार की अंतरराष्ट्रीय छवि को धक्का पहुंच रहा था। खुद रविशंकर प्रसाद को ट्विटर ने एक बार कुछ घंटों के लिए ब्लॉक करके बता दिया था कि वह क्या क्या कर सकता है। उससे भी ज्यादा परेशानी की बात यह थी कि कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद को यह कहते हुए ब्लॉक किया गया था कि वे किसी के कानूनी अधिकार का ट्विटर पर उल्लंघन कर रहे थे। प्रकाश जावड़ेकर सूचना प्रसारण मंत्री हैं। डिजिटल मीडिया को नियंत्रित करने की कोशिश उनका मंत्रालय भी कर रहा था, हालांकि डिजिटल मीडिया उनसे नियंत्रित हो नहीं रहा था। मंत्रालय को कुछ लोगों ने कोर्ट में भी घसीट रखा है और इधर अदालतों के कुछ निर्णय मोदी सरकार के लिए परेशानी का सबब बन रहे हैं। इसलिए अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि बचाने के लिए मोदीजी ने इन दोनों मंत्रियों को बलि का बकरा बना दिया, हालांकि यह साफ देखा जा सकता है कि वे दोनों मंत्री सरकार की नीतियों के अनुरूप ही आचरण कर रहे थे।

कोरोना काल ने भी नरेन्द्र मोदी की छवि को तार तार कर दिया है। पहली लहर में मजदूरों की व्यथा और दूसरी लहर में कोरोना पीड़ितों की दारुण कथा ने मोदी के ऊपर चढ़ाई गई महानता की चादर को फाड़कर रख दिया है। उन्हें ईश्वर का अवतार तक बताया जा रहा था और एक औसत व्यक्ति को विश्वास दिलाया जा रहा था कि मोदी हैं, तो वे सुरक्षित हैं। मोदी को बहुत ही कड़े निर्णय लेने वाले नेता के रूप में भी पेश किया जा रहा था, हालांकि उनके कड़े निर्णय आमतौर पर जनता के खिलाफ ही जाते थे, लेकिन विफलता का ठीकरा सिस्टम पर थोप दिया जाता था। गोदी मीडिया यह काम सफलता पूर्वक कर रहा था। लेकिन कोरोना की दूसरी लहर ने गोदी मीडिया को भी एक औसत व्यक्ति की नजर में संदिग्ध बना दिया है और अब यह मानने के लिए शायद ही कोई तैयार होगा कि मोदीजी ने हिमालय पर जाकर सिद्धि प्राप्त कर रखी है। आजादी के बाद के सबसे बुरे दिनों से भारत गुजरा है और इसमें लोगों का साथ देने वाला कोई नहीं था। गरीब तो गरीब अमीर लोग भी बेबस थे। उनके बैंक खाते में जमा उनके करोड़ो रुपये भी उनके काम नहीं आ रहे थे। पिछले अप्रैल और मई महीनों में देश में यही नजारा ही था। अनेक मोदी भक्त ट्विटर और फेसबुक पर अपने भगवान मोदी से रक्षा की गुहार लगाते लगाते मौत को गले लगा रहे थे। भाजपा और आरएसएस के बड़े बड़े नेता फोन की घंटी सुनकर तनाव में आ जाते थे कि पता नहीं कौन अपना आदमी सहायता की पुकार लेकर फोन कर रहा है, क्योंकि उन्हें पता था कि वे सहायता नहीं कर पाएंगे।

वैसे पृष्ठभूमि में उत्तर प्रदेश में चुनाव होगा। वहां तो नदियों में तैरती लाशों की संख्या सबसे ज्यादा थी। नदी किनारे उथले ढंग से गाड़े गए शवों की संख्या भी बहुत थी। उत्तर प्रदेश में त्रासदी शायद अन्य राज्यां से कुछ ज्यादा ही थी और उस त्रासदी के लिए कुंभ का आयोजन और पंचायती चुनावों का होना दो बड़े कारण थे और उनके लिए बीजेपी की केन्द्र और राज्य सरकारें सीधे रूप से जिम्मेदार थीं। जाहिर है, लोगों का विश्वास जीतना भाजपा के लिए बहुत ही कठिन है। राम मंदिर का अयोध्या में निर्माण हो रहा है। भाजपा के लिए यह एक बड़ा चुनावी दांव हो सकता था, लेकिन मंदिर निर्माण ट्रस्ट में हुए घोटाले राम मंदिर निर्माण से होने वाले फायदों के रास्ते में आ रहे हैं।

इसलिए मोदीजी स्वास्थ्य मंत्री और रसायन मंत्री को सरकार से बाहर कर यह बताने की कोशिश की है कि जिन लोगों के कारण कोरोना संकट ने गंभीर रूप ले लिया था, उन्हें हटा दिया गया है। स्वास्थ्य मंत्री के रूप में हर्षवर्द्धन की जिम्मेदारी तो स्वास्थ्य सेवा को बेहतर बनाने की थी ही, रसायन मंत्री के रूप में सदानंद गौड़ा की जिम्मेदारी कोरोना की दवाइयों और टीकों का समुचित उत्पादन सुनिश्चित कराना था। वैसे सारी शक्तियां तो खुद मोदी ने अपने हाथों केन्द्रित कर रखी थी, लेकिन जनता को दिखाने के लिए यह जरूरी था कि वे खुद जिम्मेदार नहीं हैं, बल्कि जिनकी जिम्मेदारी थी, वे बाहर कर दिए गए हैं।

कुछ मंत्रियों को बाहर निकालने के अलावा मोदजी ने जाति कार्ड भी जमकर खेला है। ओबीसी सांसदों को आजादी के बाद पहली बार इतनी संख्या में मंत्री बनाया गया था। 78 मंत्रियों में 27 ओबीसी हैं। खुद मोदी को जोड़ दें, तो वह संख्या 28 हो जाती है, जो करीब 35 फीसदी है। दलित मंत्रियों की संख्या में 12 पहुंचा दी गई हैं। चुनाव में जाति का खेल जमकर चलता है और इस खेल में भारतीय जनता पार्टी अन्य पार्टियों से बेहतर दांव चलती रही है। उसकी जीत का राज भी यही है। लेकिन प्रतिनिधित्व के नाम पर ओबीसी के पक्ष में कुछ खास नहीं किया जा रहा था और ऐसा लग रहा था कि मोदीजी सिर्फ ओबीसी का वोट लेते हैं और करते कुछ नहीं हैं। तो मोदीजी ने अच्छी संख्या में ओबीसी मंत्री बना डाले हैं अब। पर क्या इससे भाजपा को उत्तर प्रदेश में चुनावी फायदा हो पाएगा? इसका जवाब देना बहुत ही कठिन है। चुनाव के बाद ही इस सवाल का जवाब मिल पाएगा। (संवाद)