जाति जनगणना न कराने का कारण बताते हुए केन्द्रीय गृहराज्य मंत्री ने बताया कि यह सरकार का नीतिगत निर्णय है। सवाल उठता है कि सरकार का यह नीतिगत निर्णय क्यों है? 2019 के चुनाव के पहले यही मोदी सरकार केन्द्र में सत्ता में थी। उस सरकार ने ओबीसी जनगणना कराने का निर्णय किया था। यह केन्द्रीय मंत्रिमंडल का निर्णय था। केन्द्रीय मंत्री राजनाथ सिंह ने देश को मोदी सरकार के उस निर्णय से अवगत कराया था। लेकिन 2019 में लोकसभा चुनाव में जीतकर फिर से सरकार बनाने के बाद ऐसा क्या हुआ कि मोदी सरकार का नीतिगत निर्णय ही बदल गया। लोग कहते हैं कि पार्टियां चुनाव के पहले वादे करती हैं और चुनाव जीतने के बाद भूल जाती है। जाति जनगणना कराने का तो मोदी सरकार का वादा नहीं था, बल्कि निर्णय था। आखिर वह निर्णय बदल क्यों गया?
न तो नरेन्द्र मोदी के पास और न ही उनकी सरकार के पास इस सवाल का जवाब है कि जाति जनगणना वे क्यों नहीं कराना चाहते हैं। हां, इसके विरोधी कहते हैं कि इससे जातिवाद बढ़ेगा, लेकिन जातिवाद तो पहले से ही है। और सबसे बड़ी बात है कि संविधान ने जातियों को मान्यता दे रखी है। राज्य सरकारें देश के नागरिकों का जाति प्रमाण पत्र जारी करती हैं। सरकार की कई नीतियां जाति को आधार बनाकर ही बनाई जाती हैं। अनेक कल्याण कार्यक्रम जाति के आधार पर चलाए जाते हैं। कमजोर जातियों के उत्थान के लिए केन्द्र सरकारें और राज्य सरकारें अनेक योजनाएं चलाती हैं। छात्रवृत्तियां जारी करती हैं। फ्री कोचिंग क्लासेज चलाती हैं। जाति के आधार पर सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिए जाते हैं, शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश दिए जाते हैं। यानी कमजोर जातियां का उद्धार करने का जिम्मा सरकार ने अपने ऊपर ले लिया है।
और जब सरकार जातियों को आधार बनाकर इतना सब कुछ कर रही हैं, तो जातियों से संबंधित जानकारियों का डेटा इकट्ठा करने में उसकी नानी क्यों मरती हैं? जातिगत जानकारियों को इकट्ठा किए बिना यह कैसे पता चलेगा कि जाति आधारित कार्यक्रमों का लाभ हो भी पा रहा है या नहीं या उसके लाभ सही जगह पर जा रहे हैं या नहीं? जब तक जातियों के पिछड़ेपन या उत्थान का आंकड़ा सरकार के पास नहीं होगा, तो सरकार अपनी जाति आधारित कार्यक्रमों को ज्यादा से ज्यादा फलदायी बनाने की कोशिश कैसे करेगी?
जाहिर है, वर्तमान परिस्थितियों में जाति जनगणना आवश्यक ही नहीं, अपरिहार्य भी है, लेकिन सरकारें इससे लगातार कतराती रही हैं। आजादी के बाद से ही ऐसा हो रहा है। कानूनी और संवैधानिक संस्थाओं तक ने जाति जनगणना की मांग की है। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग जब कानून संस्था था, तब भी उसने जाति जनगणना की मांग की थी, क्योंकि जाति आंकड़े के बिना वह अपना काम कर ही नहीं सकता था। पीएम मोदी अपनी पीठ थपथपाते हैं कि उन्होंने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को सांवैधानिक संस्था बना दिया है। अब जब वही सांवैधानिक संस्था जाति जनगणना की मांग कर रही है, तो फिर नरेन्द्र मोदी के हाथ पांव क्यों फूल रहे हैं?
मोदी सरकार ने खुद एक तृतीय पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन कर रखा है, जिसकी अध्यक्षता न्यायमूर्ति रोहिणी कर रही हैं। इस रोहिणी आयोग को ओबीसी आरक्षण पाने वाले लाभार्थियों को तीन श्रेणी मे बांटने का काम दिया गया है, ताकि 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण को तीन भागों में बांटकर ओबीसी के अत्यंत कमजोर तबके तक भी उसका लाभ पहुंचाया जा सके। लेकिन सबसे कमजोर तबका कौन- कौन हैं और उनकी आबादी कितनी-कितनी हैं, इसकी जानकारी के बिना रोहिणी आयोग अपना काम नहीं कर पा रही थी। जब उसका गठन हुआ था, तो उसे अपना काम करने के लिए 12 सप्ताह का समय दिया गया था। यह 2018 की बात है। अब रोहिणी आयोग के गठन के तीन साल हो जाएंगे। लेकिन उसने अपना काम पूरा नहीं किया है। वह कर भी नहीं सकता, क्योंकि उसके पास न तो अलग अलग जातियों की संख्या के आंकड़े हैं और न ही उन जातियों के पिछड़ेपन के आंकड़े।
इसलिए जाति जनगणना कराने के हजार कारण हैं, लेकिन न कराने के एक भी कारण नहीं दिखते। सरकार खुद कारण नहीं बता पा रही। सिर्फ यह कह देने का कोई मतलब नहीं है कि इससे जातिवाद बढ़ेगा। जब संविधान ने खुद जाति को मान्यता दे रखी है और सरकारें खुद जाति प्रमाण पत्र जारी करती हैं, तो सरकार यह भी नहीं कह सकती कि इससे जातिवाद बढ़ेगा, क्योंकि जातिवाद बढ़ेगा। इस तरह की आशंक फजूल की आशंका है। जाति जनगणना से जातियां और भी कमजोर होंगी। इससे जातियों पर शोध को बढ़ावा मिलेगा और जाति व्यवस्था के अंतर्विरोध खुलकर सामने आ जाएंगे। जीनोम सायंस के द्वारा इस अंतर्विरोध को सरकार और भी स्पष्टता के साथ दिखा सकती हैं कि एक ही ब्लडलाईन के लोग अनेक जातियों मे मौजूद हैं और एक जाति में अनेक ब्लडलाईन के लोग हैं। इस तरह जातियों से संबंधित सच को दबाकर नहीं, बल्कि समाज को दिखाकर ही जाति को कमजोर किया जा सकता है और जातिवाद को समाप्त किया जा सकता है। लेकिन जाति जनगणना के प्रति अरुचि दिखाकर सरकार न केवल अपने पहले किए गए निर्णय से भाग रही है, बल्कि समाज के प्रति अपने दायित्व का पालन करने से भी पलायन कर रही है। (संवाद)
जाति जनगणना के सवाल
न करवाने का कोई युक्तिसंगत तर्क नहीं
उपेन्द्र प्रसाद - 2021-08-04 11:16
जाति जनगणना की मांग एक बार फिर तेज हो गई है। सच तो यह है कि इस बार यह मांग जितनी तेज है, उतनी पहले कभी नहीं थी। संसद में पूछे गए एक सवाल के जवाब में केन्द्र सरकार ने कहा कि जनगणना में जातियों की अलग अलग आबादी की गणना नहीं होगी। सरकार के इस जवाब के बाद देश में एक तरह का भूचाल आ गया है और जाति जनगणना की मांग तेज हो गई है। राजद नेता अगले 7 अगस्त को मंडल दिवस के दिन देश भर में सरकार के इस निर्णय का विरोध किया जा रहा है। विरोध कुछ राजनैतिक पार्टियां और ओबीसी संगठन कर रहे हैं। चूंकि ओबीसी राष्ट्रीय स्तर पर बहुत संगठित नहीं हैं और राजद जैसे दल तो इस विरोध का आयोजन कर रहे हैं, क्षेत्रीय दल हैं, इसलिए देश के अलग अलग हिस्सों में यह विरोध अलग अलग तरीके से होगा। कहीं दिख पड़ेगा और कहीं नहीं दिख पड़ेगा। लेकिन विरोध तो सारे देश में किसी न किसी रूप में होगा।