लालू यादव का पंद्रहवर्षीय शासन और उनकी उपलब्धियां आपके सामने है। लेकिन राजनीति में व्यक्ति का महिमामंडन तब ही तक होता है जब वह सत्ता में होता है, सत्ता में रहकर उसने कुछ ऐसा कार्य कर दिया जिससे बहुजन को फायदा पहुंच जाए तो उसका प्रभाव लंबे समय तक समाज में बना रहता है। लालू यादव आज अपनी करतूतों का फल भोग रहे हैं। क्योंकि बटाइदारी बिल को लेकर आए उबाल के बावजूद बहुमत लोग लालू यादव को नीतीश के विकल्प के रूप में स्वीकार करना नहीं चाहते। इसलिए नीतीश के लिए दोहरा लाभ का अवसर सुरक्षित है।
पांच साल पूर्व बिहार की राजनीति में लालू को लेकर जो घृणा और विरोध का उबाल था वह आज भी कहीं न कहीं किसी कोने में छिपे ही हैं। लालू यादव के छोटे भाई नीतीश कुमार को बिहार की सत्ता मिली। उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य और सड़क के अलावा कानून व्यवस्था को पटरी पर लाकर बिहार के लोगों के मनमस्तिष्क में अपनी जगह बना ली है। इस दौरान नीतीश की इमेज एक कर्मठ राजनीतिज्ञ के रूप में बन गयी है। काम-काम और सिर्फ काम करना और करने की जुगत में लगे रहना उस नेता का तकिया कलाम बन गया। यह बात बिहार की अवाम भी कहने लगी है। विगत लोकसभा चुनाव के दौरान यह बात सभी विरोधी राजनीतिक दलों के नेताओं को अच्छी तरह लग गयी है। हाजीपुर के लिए विकास पुरूष का तमगा धारण करने वाले रामविलास पासवान को हार का मुंह देखना पड़ा। लालू यादव पाटलिपुत्र लोकसभा सीट से हार गये। उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र में यादवों की संख्या 5 लाख के लगभग है। इस चुनाव ने विरोधियों को नीतीश को हटाने के लिए मुद्दे की तलाश थी। बटाइदारी बिल का प्रस्ताव सबसे ज्वलंद मुद्दा मिल गया इन नेताओं को। ले उड़े। इसे लेकर प्रदेश भर में अभियान चलाया गया। गांधी मैदान में रैली भी हो गयी। जिसमें विभिन्न दलों से भूमिपतियों के नेता एक मंच पर भाषण के लिए उपलब्ध हुए। प्रदेश भर से आए भूपतियों किसानों की संख्या स्थानीय मीडिया के अनुसार एक लाख से कुछ ज्यादा थी। यदि इसे ही आधार मान लिया जाए तो नीतीश के लिए यह चेतावनी ही नहीं संजीदा होने के समय का संकेत है। क्योंकि नीतीश कुमार जिस अहं के शिकार हुए हैं वह बिहार की राजनीति में तब तक ही लागू रह सकती है जब रैली में आई जातियों के लिए हानिकर नहीं हो।
क्या है बटाइदारी बिल- 1980 में पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ने वहां भूमि बंदोबस्ती कानून लागू करके बंटाइदारों को जमीन का मालिकाना हक दिलाया था। उसमें बटाइदार को जमीन बेचने का अधिकार शामिल नहीं था। केवल जमीन को उपयोग में लाने की इजाजत थी और फसल वितरण को बटाइदारों के पक्ष में कर दिया गया था। नीतीश कुमार वही फार्मूला बिहार में भी लागू करना चाहते हैं। लेकिन बंगाल और बिहार की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियांे में आकाश-पाताल का अंतर है। बिहार में जमीन के लिए सबसे ज्यादा लोगों की जानें गयी हैं और आज भी एक धूर जमीन के लिए कई लाशें बिछ जाती हैं। बिहार के सत्र, जिला और उच्च न्यायालयों में दर्ज मुकदमों में से आधे से ज्यादा मुकदमे जमीन से जुड़े विवादों से हैं जिसमें फौजदारी और दीवानी दोनों प्रकार के मुकदमे शामिल है। अब यदि बंगाल का फार्मूला बिहार में भी लागू हो जाता है तो बटाइदारों और भूमि स्वामियों के बीच वह विश्वास और त्याग नहीं रह जाएगा। यदि बटाइदारी कानून बन भी जाए तो इसे लागू करने में हजारों निर्दोषों का खून बहेगा? ऐसा लाजिमी लगता है।
नीतीश कुमार की इच्छा है कि बटाइदारी बिल लागू करके सरकार उन बटाइदारों को सरकारी योजनाओं का लाभ देना चाहती हैं जिसके हकदार होने के बावजूद भी उन्हें नहीं मिल पाते। क्योंकि उनके पास उस जमीन के कागजात नहीं होते जिन पर वे खेती कर रहे होते हैं। ज्यादातर सरकारी अनुदान और माफी योजनाएं उन किसानों को ही मिल सकती हैं जिनके पास जमीन है। ऐसे में उन बटाइदारों के साथ नाइंसाफी होती है जो वाकई खेती कर रहे हैं। बिहार विधान सभा में बटाइदारी बिल पेशी के लिए तैयार है, बस उसे पेश करने हैं। हालांकि भूमि सुधार मंत्री नरेंद्र नारायण यादव इस बात से इंकार करते हैं और उनका कहना है कि हमें इस बात का पता नहीं है कि भूमि सुधार बिल बनकर तैयार है या नहीं।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तीन साल पूर्व ही पश्चिम बंगाल में भूमि सुधार के शिल्पी पूर्व नौकरशाह देवव्रत बंदोपाध्याय को बिहार में भूमि सुधार से संबंधति रिपोर्ट तैयार करने के लिए आमंत्रित किया था। बंदोपाध्याय ही बिहार में भी भूमि सुधार का मसौदा तैयार किए हैं। बंदोपाध्याय का भूमि सुधार मसौदा बिहार की सामाजिक संरचना के हिसाब से कितना मुफीद साबित होगा यह चुनाव के बाद बनने वाली राजनीतिक परिस्थिति ही तय कर सकेगी। बहरहाल बिहार की राजनीतिक-सामाजिक के आइने में हम बटाइदारी बिल के विरोधियों के बयानों का अवलोकन कर सकते हैं।
ऐतिहासिक गांधी मैदान में आयोजित किसान महापंचायत में आए लाखों किसानों को संबोधित करते हुए पूर्व विदेश राज्य मंत्री और वर्तमान निर्दलीय सांसद दिग्विजय सिंह ने कहा कि हम आपको आगे आने वाली विपत्तियों से अवगत करा देना चाहते हैं। अब आपको फैसला करना है कि आप इस सरकार को अगली बार सत्ता में आने देना चाहते हैं या इसे उखाड़ फेंकते हैं। दिग्विजय सिंह की नीतीश कुमार की निजी खुन्नस रही है। नीतीश कुमार उन्हें देखना नहीं चाहते। यही कारण है कि पिछली लोकसभा चुनाव में उन्हें जदयू का टिकट नहीं मिला था। वह अपना बदला इसी बहाने नीतीश से चुकता कर लेना चाहते हैं।
अभी हाल तक नीतीश कुमार के निकटतम विश्वासपात्र और संकटमोचक रहे राजीव रंजन सिहं लल्लन ने किसान महापंचायत को संबोधित करते हुए कहा कि लालू यादव ने पिछले पंद्रह साल में बिहार को विनाश के कगार पर ला खड़ा किया। हमने उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया। अब यदि नीतीश कुमार भी हमारे हितों के साथ खिलवाड़ करना चाहते हैं तो हम उन्हें बिहार की सत्ता से बाहर करके ही रहेंगे। यह लाखों की अरमान और विश्वास का सवाल है क्योंकि हमने ही उन्हें सत्ता सौंपी है और हम ही उन्हें सत्ता से बाहर करंेगे। हाल तक नीतीश कुमार के लिए संकटमोचक रहे ललन सिंह की खुन्नस का कारण अपनी उपेक्षा और उपेंद्र कुशवाहा का जदयू में वापसी को मुख्य कारण के तौर पर देखा जा रहा है।
पूर्व संासद और कभी लालू के कट्टर विरोधी और नीतीश के सलाहकार रहे प्रभुनाथ सिंह ने भी किसान महापंचायत में अपनी भड़ास निकाली। उन्होंने किसानों को अपनी इज्जत सुरक्षित रखने के आह्वान के साथ नीतीश की बिहार से विदाई का ऐलान किया। पिछला लोकसभा चुनाव हारने के बाद प्रभुनाथ सिंह का नीतीश कुमार से रिश्ते खट्टे होते गये और संवादहीनता के बीच प्रभुनाथ सिंह के लिए अपना महत्व कायम रखने के लिए विरोध का झंडा उठाना समय की जरूरत हो गयी है।
राजद नेता और पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री अखिलेश प्रसाद सिंह वैसे तो लालू यादव के सलाहकार हैं लेकिन उनकी किसान महापंचायत में उपस्थिति के कई राजनीतिक एंगल हैं। जिसमें पहला एंेगल तो यही है कि इस महापंचायत को राजद की ओर कैसे मोड़ा जाए। लालू यादव बिहार की सत्ता में वापसी के लिए बटाइदारी बिल का प्रोपेगेंडा या दुष्प्रचार को सहारा बनाना चाहते हैं। बिहार में पिछले तीन साल से लालू यादव के कार्यकर्ता और नेता बटाइदारी बिल का प्रोपेगेंडा करने में जुटे हुए हैं लेकिन लोकसभा चुनाव में इसका कोई लाभ नहीं मिल सका। अब जब ललन सिंह जैसे नीतीश के सिपहसालार नीतीश के खिलाफ मंच पर आ ही गए हैं तो लालू के लिए यह कूटनीतिक जरूरत थी कि वह किसी तरह इस पंचायत को अपने पक्ष में भुनाने के लिए तिकड़में भिड़ाएं। हालांकि बिहार अब लालू यादव को जिस तरह रिजेक्ट और आउटडेटेड कर दिया उससे नहीं लगता कि अखिलेश सिंह की रणनीति किसान पंचायत के मार्फत लालू को मिल पाएगी। हां, यह संभव है कि इसका फायदा भाजपा और कांग्रेस को मिल जाए।
पिछले 25 वर्षों में से 15 साल के राजा लालू यादव को लगने लगा है कि जिस आग के दरिये को उसने पूरे बिहार में फैलाया था उसके बुझने के बाद उनकी दाल नहीं गलने वाली, सो बटाईदारी का जिन्न निकाल लाये हैं। लंबे समय से नीतीश के दाहिना बांह और दिमाग रहे नेताओं को लगने लगा कि अब उनकी भी हालत किसी रद्दी की टोकरी में जाने लायक सलाहकार की हो गयी है तो वे अपनी इज्जत ढूंढ़ने लगे? गांधी मैदान की किसान महापंचायत किसी नीतीश के शासन के ही खिलाफ शंखनाद नहीं था, उसमें उन नेताओं की राजनीतिक अस्तित्व की खोज का खीज भी था। साथ में लालू यादव की ‘उसकी टोपी इसके सिर और मलाई खाए अकेले भिड़’ वाली स्वार्थ से लबालब भरी ललचाई राजनीति भी है। सत्ता से दूर होने के बाद लालू के लिए जेल से बाहर रहना किन-किन मजबूरियों से वास्ता दिला रहा है इसकी मिसाल हाल ही में कांग्रेस के खिलाफ भाजपा के साथ बजट सत्र में दिखे लालू के तेवर के ठीक उल्टा है, जब वह कट मोशन में स्वयं कांग्रेस के हाथों कटने को मजबूर हो गये। बिहार की जनता के तेवर अभी भी तूफान से पहले की शांति की तस्वीर पेश कर रहे हैं। यह सच है कि यदि बारा से लेकर बथानी टोला को याद किया जाए तो भूमिहार कभी भी लालू को वोट नहीं देंगे। राजपूतों के साथ दिक्कत यह है कि वे तीन जगहों पर अपनी भूमिका निभाने में आधारहीन होते गए हैं और यादवों का हाल भी कमोबेश वही है। बटाइदारी बिल से सबसे ज्यादा भूमिहार प्रभावित होंगे इसके बाद राजपूत, यादव, कोइरी और कुर्मी भी। लेकिन लालू के साथ खड़ा होना इन सभी जातियों के लिए संभव नहीं है। ऐसे में कांग्रेस के लिए सुनहरा मौका है जब इन असंतुष्टों को अपनी छतरी के नीचे लाने का कूटनीतिक अभियान चलाए। वैसे भी लालू यादव भरोसे के काबिल किसी के लिए नहीं रह गये हैं। नीतीश को हराना किसान महापंचायत के नेताओं की अस्तित्व का सवाल है तो, उन्हें लालू से अलग कुछ नया समीकरण के बारे में सोचना होगा। नहीं तो क्रांति की बात तो दूर, उसकी मिट्टी पलीद भी नहीं हो सकेगी। लालू यादव आउटडेटेड और रिजेक्टेड हो चुके हैं।
बटाइदारी बिल के अखाड़े में बिहार के महारथी राजनीतिज्ञ
शशिकान्त सुशांत - 2010-05-13 08:09
बिहार को ऐसे ही देश की राजनीतिक प्रयोगशाला का ‘उत्प्रेरक’ नहीं कहा जाता क्योंकि वहीं पर क्रांतिकारी राजनीतिक फार्मूलों का ईजाद होते आया है। आजादी के बाद देश में जितनी भी क्रांतियां हुई हैं, उसकी जन्मभूमि, प्रयोग भूमि और कर्मभूमि कहीं न कहीं पृष्टभूमि भी बिहार की धरा ही रही है। आजादी के पहले गांधीजी का असहयोग आंदोलन और बिनोवा भावे का भूदान आंदोलन की प्रयोगस्थली भी बिहार ही रहा है। देश में राजनीति को नई दिशा देने का मामला हो या फिर बिहार को ही गर्त में ले जानी राजनीति की मिसाल हो, सब तरह का मसाला आपको बिहार में मिल जाएगा।