रोहिणी आयोग तीसरा राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग है। पहला आयोग काका कालेलकर आयोग था और दूसरा मंडर आयोग तीसरा आयोग राहिणी आयोग है। कालेलकर आयोग और मंडल आयोग को पिछड़ी जातियों की पहचान करने का काम दिया गया था। रोहिणी आयोग को आरक्षण पा रही पिछड़ी जातियों को दो या तीन भाग में विभक्त करने का काम दिया गया है, ताकि आरक्षण का लाभी ओबीसी के सबसे पिछड़े वर्गो तक भी पहुंचे। इसके लिए सरकार 27 फीसदी आरक्षण को तीन भागों में बांटना चाहती हैं और पिछड़ेपन के आधार पर तीन उपश्रेणियो मे विभक्त पिछड़ी जातियों को अलग अलग आरक्षण देने से आरक्षण का लाभ ज्यादा से ज्यादा जातियों तक पहुंचाया जा सकता है।

लेकिन समस्या यह है कि रोहिणी आयोग के पास कोई आंकड़े नहीं हैं, जिनके आधार पर यह विभाजन हो सके। यही कारण है कि 12 सप्ताह में अपना काम पूरा करने वाले रोहिणी आयोग 3 साल में भी यह काम पूरा नहीं कर पाया है। वह सरकारी प्रतिष्ठान का हिस्सा है और उसने जाति जणगणना की मांग की है। उसके पास फिलहाल सरकारी नौकरियों में आरक्षण लेकर आने वाले ओबीसी अधिकारियों और कर्मचाहिरयों का आंकड़ा है, लेकिन इतना आंकड़ा पर्याप्त नहीं है। उसे यह पता होना चाहिए कि सभी जातियों की अलग अलग संख्या क्या है। और उसे यह भी पता होना चाहिए कि सभी ओबीसी जातियों के पिछड़ेपन का स्तर क्या है। जब तक जातियों के पिछड़ेपन के स्तर का पता नहीं होगा, यह कैसे पता चलेगा कि कौन जाति ज्यादा पिछड़ी है और कौन कम? इसके अलावा तीनों उपश्रेणियो के लिए आरक्षण का प्रतिशत तय करते समय भी उसे पता रहना चाहिए कि किस उपश्रेणी में ओबीसी की कितनी आबादी है। बिना इन दो आंकड़ों के ही यदि रोहिणी आयोग अपनी रिपोर्ट जारी कर देता है, तो उसे मनमाना रिपोर्ट ही कहा जाएगा और बहुत संभावना है कि सुप्रीम कोर्ट उस रिपोर्ट को ही खारिज कर दे और उसके आधार पर केन्द्र सरकार द्वारा लिए गए निर्णय को भी खारिज कर दे। यही कारण है कि रोहिणी आयोग ने भी जाति जनगणना की मांग की है।

मोदी सरकार ने बहुत ही धूम धड़ाके के साथ पिछड़ा वर्ग राष्ट्रीय आयोग को सांवैधानिक संस्था बना दिया। उसके पहले वह विधायी संस्था था। उसका एक काम उन पिछड़ी जातियों को ओबीसी श्रेणी में लाना है, जो अभी भी बाहर रह गई हैं और उन जातियों को ओबीसी सूची से बाहर कर देना है, जो अब पिछड़ी नहीं रहीं। लेकिन इसके लिए भी उसे इन जातियों की संख्या और उनके पिछड़ेपन के स्तर का आंकड़ा चाहिए और यह आंकड़ा जाति जनगणना से ही उपलब्ध हो सकता है। लिहाजा, उसने भी सरकार से मांग की है कि देश में जाति जनगणना होनी चाहिए। सच तो यह है कि जाति जनगणना की मांग 1990 के दशक में ही उस समय शुरू हुई, जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बने पिछड़ा वर्ग राष्ट्रीय आयोग का गठन हुआ और उस आयोग को सूची से बाहर रह गई पिछड़ी जातियों को सूची में लाने और सूची में शामिल अगड़ी जातियों को बाहर करने का जिम्मा दिया गया। उस आयोग ने जाति जनगणना की मांग की थी, क्योंकि उसे अपने कर्तव्यों के निष्पादन के लिए इस तरह के आंकड़े चाहिए थे। देवगौड़ा सरकार ने जाति जनगणना कराने का निर्णय भी लिया था, लेकिन वह सरकार गिर गई। उसके बाद बनी गुजराल सरकार भी गिर गई और बाद में बनी वाजपेयी सरकार ने जाति जनगणना कराने के निर्णय को पलट दिया।

फिर 2011 में जाति जनगणना की मांग हुई। सरकार ने संसद में अपना संकल्प व्यक्त किया कि वह जाति जनगणना कराएगी। लेकिन नियमित जनगणना में उसने जाति का कॉलम रखा ही नहीं और बाद में दबाव पड़ने पर उसने कहा कि जाति जनगणना अलग से कराई जाएगी। सोशियो इकनॉमिक कास्ट सेंसस उसने करवाया भी। लेकिन उसके आंकड़े जारी करने से मोदी सरकार ने मना कर दिया। उस जाति जनगणना को लेकर दो तरह के दावे हैं। एक दावे के अनुसार जाति जनगणना सही तरीके से हुई ही नहीं। दूसरे दावे के अनुसार जाति जनगणना ठीकठाक हो गई है। मोदी सरकार के पास उसके आंकड़े भी हैं और उन आंकड़ों की सहायता से बीजेपी अपनी चुनावी रणनीति तैयार करती है, लेकिन सरकार उसे जारी नहीं कर रही है।

आखिर सरकार जाति के आंकड़ों को क्यो जारी नहीं कर रही है और नियमित जनगणना के साथ जाति जनगणना क्यों नहीं करवा रही है? यह सवाल अनुत्तरित है। दबे स्वर में कहा जाता है कि इससे जातीय तनाव बढ़ जाएगा, क्योंकि ओबीसी अपनी जनसंख्या के बराबर आरक्षण की मांग करेंगे। लेकिन यह डर गलत है। आरक्षण की सीमा सुप्रीम कोर्ट ने तय कर दी है। संविधान सभा की बहस में हमारे संविधान निर्माताओं ने भी यह कहा है कि आर्टिकल 16 के तहत आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकती। इसलिए जाति जनगणना कराने से डरना बेबुनियाद है। सच तो यह है कि इन आंकड़ो की सहायता से आरक्षण व्यवस्था को और बेहतर बनाया जा सकता है और 50 फीसदी के दायरे में रहकर ही उन लोगों तक विकास को पहुंचाया जा सकता है, जो आरक्षित श्रेणी में अभी भी बहुत पिछड़े हुए हैं। (संवाद)