मुख्यमंत्री का पद भाजपा मिलता दिखाई पड़ रहा है, लेकिन फिर भी भाजपा ने अपनी झोली उस पद के लिए नहीं खोली है। उसे अगले मुख्यमंत्री के बारे में निर्णय करना है, लेकिन वह किसे मुख्यमंत्री बनाए इस पर फैसला ही नहीं कर पा रही है। आखिर भाजपा की समस्या क्या है? भाजपा के लिए नेता चुनना कठिन क्यों साबित हो रहा है?

पहली बात तो यह है कि भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व कमजोर हो चुका है। वह पहले की तरह अपनी मर्जी को राज्य के ऊपर थोप नहीं सकता। उसके पास अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता नहीं रहे और जो केन्द्र में नेतृत्व वर्ग उभरा है, उसमें भी किसी बात पर आसानी से मतैक्य नहीं होता।

जब झामुमो ने भाजपा को मुख्यमंत्री पद सौंपने की पेशकश की थी, तो यशवंत सिन्हा मैदान में कूद पड़े, हालांकि राज्य में उनके पास कोई समर्थन नहीं है। वे वरिष्ठ नेता रहे हैं और केन्द्र में विदेश और वित्त जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय को संभाल चुकंे हैं, इसलिए उन्हें अपना नात चलाने में दिक्कत नहीं हुई, लेकिन झारखंड की चुनावी राजनीति में उनकी २शायद ही कोई उपयोगिता है।

दूसरा नाम रधुवर दास का मुख्यमंत्री पद के लिए सामने आया। वे झारखंड विधानसभा में भाजपा विधायक दल के नेता हैं और राज्य के उपमुख्यमंत्री भी हैं। संयोग से वे राज्य भाजपा के अध्यक्ष भी हैं। यानी राज्य के दोनों बड़े पद अभी उन्हीें के पास हैं। उपमुख्यमंत्री होने के कारण वे मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार हैं। यदि कांेई और भाजपा नेता मुख्यमंत्री बनता है, तो २शायद उस सरकार में वे उपमुख्यमंत्री भी नहीं बन सकें, क्योंकि भाजपा मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री दोनेां पद अपने पास नहीं रख सकती।

यानी यदि श्री दास मुख्यमंत्री नहीं बनते हैं तो नई सरकार में उनकी अवनति हो जाएगी। जाहिर है, वे वैसी स्थिति को स्वीकार नहीं कर पाएंगे। उन्हें पार्टी अध्यक्ष पद पर बनाए रखकर भी उन्हें संतुष्ट नहीं कर सकती। उन्हें असंतुष्ट करना पार्टी के लिए नुकसानदायक होगा, क्योंकि वे एक ऐसी जाति से आते हैं, जिसकी संख्या झारखंड में सबसे ज्यादा है। वे वैश्य समुदाय का भी प्रतिनिधित्व करते हैं जिसकी आबादी राज्य की किसी भी जाति अथवा जनजाति समूह से ज्यादा है।

गौरतलब है कि झारखंड में 26 फीसदी आदिवासी रहते हैं, जबकि वैश्य समुदाय की संख्या 30 से 40 फीसदी के बीच मे है और यही समुदाय भाजपा का परंपरागत राजनैतिक आधार रहा है। चुनाव के पहले भाजपा रधुवर दास को राज्य इकाई का अध्यक्ष अपने इसी जनाधार को पुख्ता करने के लिए बना देती है। अब यदि रधुवर दास को नाराज कर भाजपा किसी और को मुख्यमंत्री बनाती है और रधुवर दास कल्याण सिंह की तरह पार्टी से बगागवत कर देते हैं, तों पार्टी का हश्र झारखंड में नहीं होगा, जो उत्तर प्रदेश में हुआ है।

इसलिए झारखंड की राजनीति और अपने राजनैतिक हित को देखते हुए पार्टी रधुवर दास के दावे को आसानी से नकार नहीं सकती। अर्जुन मंुडा मुख्यमंत्री पद के एक अन्य सशक्त दावेदार हैं। वे आदिवासी हैं। विधायकों के बीच भी उनकी अच्छी पैठ है। वे पहले भी मुख्यमंत्री रह चुके हैं। इसलिए फिर से मुख्यमंत्री पद का दावा करना उनके लिए सहज और स्वाभाविक है।

यानी भाजपा के पास रघुवर दास और अर्जुन मुंडा के रूप में मुख्यमंत्री पद के दो प्रबल दावेदार हैं और दोनों में से किसी एक के भी दावे को खारिज करना भाजपा के लिए आसान नहीं है। लेकिन भाजपा को मुख्यमंत्री पद देने की घोषणा करने वाला झामुमो दो ऐसी २शर्त रख रहा है, जिससे मुख्यमंत्री पद के ये दोनों दावेदार मुख्यमंत्री की दौड़ से बाहर हो जाते हैं।

झामुमो कह रहा है कि मुख्यमंत्री आदिवासी होना चाहिए। इस शर्त के कारण रधुवर दास का नाम खारिज हो जाता है। उसकी दूसरी शर्त है कि मुख्यमंत्री विधायकों में से ही काई एक होना चाहिए। इस शर्त से अर्जुन मुडा मुख्यमंत्री की दौड़ से बाहर हो जाते हैं। जाहिर है, इस तरह की शर्तें लादकर झामुमों भाजपा की उलझने और भी बढ़ा रहा है।

और इन शर्तों के अलावा बारी बारी से मुख्यमंत्री बनने की मांग को भी झामुमो ने नहीं छोड़ा है। अब यदि भाजपा मुख्यमंत्री पद के अपने नेता का नाम घोषित कर भी देती है, तो फिर बारी बारी से मुख्यमंत्री बनने की मांग पर अड़कर झामुमो उसके नेतृत्व वाली सरकार को समर्थन देने से इनकार कर सकती है।

वैसी हालत में तो भाजपा की हालत बहुत ही पतली हो जाएगी, क्योंकि एक तरफ तो वह नेत्त्व के मसले पर अपनी पार्टी के एक या दो नेताओं को नाराज कर देगी और दूसरी तरफ वह सरकार भी नहीं बना पाएगी। झामुमो के पास कांग्रेस का विकल्प समाप्त नहीं हुआ है। यदि वह मुख्यमंत्री का पद छोड़ने के लिए तैयार हो जाए तो फिर कांग्रेस के साथ उसके गठबंधन में उसे कोई परेशानी नहीं होगी।

कांग्रेस भाजपा और झामुमों के बीच चल रहे खेल की महज तमाशबीन नहीं है। वह भी राज्य में अपनी सरकार बनाना चाहती है। वह श्री सोरेन को मुख्यमंत्री नहीं बनाना चाहती थी, इसके कारण ही सरकार के खेल में वह विधानसभा चुनाव के बाद पिछड़ गई थी, लेकिन उस फार्मूले पर वह फिर से तैयार हो सकती है। कांग्रेस के पास 14 और सहयागी झारखंड विकास मोर्चा के पास 11 विधायक हैं। यदि झामुमों के 18 विधायकों के साथ उसका गठबंधन बन जाए तो फिर उसे किसी और विधायक को अपने साथ लाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

कांग्रेस चाहे तो अपनी पार्टी के ही किसी व्यक्ति को मुख्यमंत्री भी बना सकती है और बाबूलाल मरांडी को केन्द्र में मंत्री बना सकती है। श्री मरांडी के अड़ जाने पर उन्हें मुख्यमंत्री बनाने में भी कांग्रेस को कोई परहेज नहीं होगा। इसलिए कांग्रेस को इंतजार है श्री सोरे द्वारा इस्तीफा देने का अथवा भाजपा द्वारा सोरेन सरकार से समर्थन वापसी का।

जाहिर है भाजपा के लिए मुख्यमंत्री पद के लिए अपने नेता की घोषणा करना आसान नहीं हैं। यदि वह अपने नेता की घोषणा करती है और श्री सोरेन से इस्तीफा मांगती है, तो उस इस्तीफे के बाद उसकी सरकार बन ही जाएगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है। (संवाद)