जाहिर है, भाजपा की जीत की संभावना बहुत ही क्षीण हो चुकी है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि भाजपा को हराकर मतदाता किसे जनादेश दे। अखिलेश की समाजवादी पार्टी वहां की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है, इसलिए भाजपा विरोध का लाभ उसे ही मिलता दिख रहा था। भाजपा के समर्थक और कार्यकर्त्ता तक दबे स्वर में कह रहे थे कि इसबार फिर सपा की सरकार बन जाएगी। मायावती एक राजनैतिक संभावना के रूप में अब वहां चर्चा का विषय नहीं रही है। उनका जनाधार लगातार गिरता जा रहा है और वह अब सिर्फ एक जाति की नेता रह गई है। उनकी जाति की संख्या उत्तर प्रदेश में 12 फीसदी है, लेकिन जब जाति के बाहर का समर्थन आधार शून्य हो जाय, तो यह 12 फीसदी की आबादी भले रिकॉर्ड तोड़ रैलियों के आयोजन के काम आए, लेकिन यह जीत को सुनिश्चित नहीं कर सकती। मायावती अब उत्तर प्रदेश में दलित नेता भी नहीं रह गई हैं। वह जाटव नेता बनकर रह गई हैं और उसके साथ साथ वह मुसलमानों और ब्राह्मणों के समर्थन पाने की कोशिश करती रहती हैं। लेकिन भाजपा के प्रति नर्म रुख रखने और भाजपा सरकार की मुस्लिम विरोधी नीतियों के समर्थन के कारण मुसलमानों का अब पूरी तरह से उनके प्रति मोह भंग हो गया है।
जहां तक ब्राह्मण समर्थन की बात है, तो यह मायावती के लिए एक बड़ा छलावा है। ब्राह्मण अब उत्तर प्रदेश में एक बड़े दबाव समूह के रूप में परिवर्त्तित हो चुके हैं। दबाव बनाकर वे सत्ता से ज्यादा से ज्यादा हासिल करने के रास्ते पर व ेचल रहे हैं और उन्हें पता है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार से ह ीवह ज्यादा से ज्यादा हासिल कर सकते हैं। इसलिए चुनाव में ब्राह्मणों का बहुमत भाजपा के साथ ही जाएगा। उसके अलावा वे समाजवादी पार्टी की ओर भी मुखातिब हो सकते हैं, जिसके सत्ता में आने की संभावना बनी हुई है। मायावती की पार्टी में सतीशचन्द्र मिश्र दूसरे सबसे बड़े नेता हैं, लेकिन जिस तरह मायावती जाटव नेता है, उस तरह सतीशचन्द्र मिश्र प्रदेश के ब्राह्मण नेता नहीं हैं। सच तो यह है कि उत्तर प्रदेश में कोई भी ब्राह्मण नेता नहीं है। जब कोई समुदाय राजनैतिक पावर से घटकर एक प्रेसर ग्रुप में तब्दील हो जाता है, तो वह नेता नहीं पैदा करता, बल्कि उसमें दबाव समूह के नायक पैदा होते हैं। वैसे भी ब्राह्मण इस तथ्य से अवगत हैं कि यदि उनका कोई व्यक्ति मुख्यमंत्री बन सकता है, तो वह भाजपा के राज में ही बन सकता है, इसलिए चुनाव के पहले लाख आलोचना करने के बावजूद अंत में उनके ज्यादातर वोट भाजपा को ही पड़ेंगे, मायावती उनकी दूसरी क्या तीसरी पसंद भी नहीं है।
मायावती और उनकी बसपा के पतन के बाद अखिलेश यादव का काम आसान दिख रहा था और भाजपा सत्ता से बेदखल होती दिख रही थी, लेकिन लखीमपुर खीरा कांड के बाद प्रियंका गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस का जो उभार होता दिख रहा है, वह भाजपा को नया जीवन दे सकता है। इसका कारण यह है कि प्रियंका भाजपा समर्थक मतदाताओं को अपनी ओर तो खींच नहीं सकती, उलटे भाजपा विरोधी मतों का ही बंटवारा करेगी। इसका कारण यह है कि अखिलेश यादव के प्रति जो अभी उत्तर प्रदेश में समर्थन दिख रहा है, वह उनके प्रति लोगों के सद्भाव का परिणाम नहीं, बल्कि भाजपा को हराने की उनकी इच्छा का परिणाम है। अखिलेश की छवि कोई बहुत अच्छी नहीं है। सच तो यह है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा की स्थिति मजबूत ही इसीलिए हुई थी कि लोग मायावती और अखिलेश पसंद नहीं कर रहे थे। लेकिन भाजपा के खिलाफ असंतोष के कारण वे अखिलेश को फिर सत्ता में ला सकते थे।
पर प्रियंका गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस में हो रही सुगबुगाहट मतदाताओं को एक और मंच दे दे रहा है। लखीमपुरी खीरी हत्याकांड के विरोध में प्रियंका गांधी ने जो भूमिका निभाई, उसका असर लोगों पर दिख रहा है। कांग्रेस सभाओं मे लोग उमड़ रहे हैं और उससे भी बड़ी बात यह है कि कांग्रेस कार्यकर्त्ताओं और नेताओं की सक्रियता एकाएक बढ़ गई है। कांग्रेस के संगठन की स्थिति बहुत ही कमजोर है, इसलिए यह तो कोई उम्मीद नहीं करेगा कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में इस समय भाजपा की सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरेगी, लेकिन इतना तो तय है कि उसकी स्थिति पहले से बेहतर हो जाएगी और उसको पड़ने वाले मतों का प्रतिशत बढ़ जाएगा। उसकी सीटों की संख्या भी बढ़ जाएगी। यदि छोटे छोटे जाति आधारित दलों से कांग्रेस ने गठबंधन कर लिया, तो उसकी और गठबंधन की स्थिति और भी मजबूत हो जाएगी, लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में लाभ भारतीय जनता पार्टी को ही होगा, क्योंकि त्रिपक्षीय मुकाबले में वह कम मत प्रतिशत लाकर भी बहुमत प्राप्त कर सकती है। मतलब कि कांग्रेस का लाभ उत्तर प्रदेश में भाजपा का लाभ भी है। (संवाद)
उत्तर प्रदेश का घमसान
कांग्रेस के लाभ में भाजपा का भी लाभ है
उपेन्द्र प्रसाद - 2021-10-18 15:23
अलग अलग कारणों से उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा की स्थिति खराब हो गई है। कोरोना महामारी के दौरान हुई भारी तबाही ने मोदी के जादू का भूत लोगों के सिर से उतार दिया है और महामारी की दूसरी लहर के दौरान राज्य सरकार की ओर से भारी अव्यवस्था और पहली लहर के दौरान मोदी की केन्द्र सरकार द्वारा यूपी के विस्थापित मजदूरों के साथ किए गए बर्ताव ने भी भाजपा को कमजोर कर दिया है। तीन कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे किसान आंदोलन ने तो भाजपा की चूल ही हिला डाली है। सार्वजनिक संपत्तियों की मोदी सरकार द्वारा की जा रही अंधाधुंध बिक्री भी उसके खिलाफ जा रही है। पेट्राल-डीजल के दामों में हो रही बेतहाशा वृद्धि का असर भी मतदाताओं के मनोविज्ञान पर पड़ रहा है। ओबीसी भारतीय जनता पार्टी का एक बड़ा वोट बैंक है। भाजपा की जीत का एक बड़ा कारण गैर यादव ओबीसी का मिल रहा उसे विराट समर्थन रहा है। लेकिन जाति जनगणना की मांग ओबीसी की एक बड़ी मांग है, जिसे मोदी सरकार नकार चुकी है। इसके कारण उत्तर प्रदेश में भाजपा के पैरों के नीचे से जमीन खिसकी है।