फिलहाल हम बात उत्तर प्रदेश की कर रहे हैं। वहां कांग्रेस लगभग समाप्त हो चुकी है। पिछले लोकसभा चुनाव में खुद राहुल गांधी भी वहां पराजित हो गए थे। सोनिया गांधी जीत गई थी, लेकिन जीत का कारण सपा और बसपा द्वारा वहां अपने उम्मीदवार नहीं खड़ा करना था। लिहाजा इन दोनों पार्टियों के समर्थकों के वोट से ही सोनिया गांधी जीत पाई थी। अब प्रियंका गांधी ने देश की सबसे बड़ी आबादी वाले प्रदेश में कांग्रेस को जिंदा करने का बीड़ा उठाया है। और इस प्रक्रिया में उन्होंने एक बड़ी घोषणा यह की है कि पार्टी के 40 फीसदी उम्मीदवार महिलाएं होंगी। यह घोषणा निश्चय ही एक बड़ी घोषणा है। कुछ पार्टियां बहुत सालों से लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं को एक तिहाई सीटों पर आरक्षण देने की बात कर रही हैं और उनमें से एक खुद कांग्रेस भी है, लेकिन प्रियंका ने उससे भी ज्यादा 40 फीसदी सीटें महिलाओं को देने की घोषणा कर दी है।

अब जब प्रियंका गांधी कह रही हैं, तो यह मान लेने में कोई खतरा नहीं है कि वहां महिलाओं को 40 फीसदी सीटों पर उम्मीदवारी मिल ही जाएगी। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि कितनी महिलाएं जीत पाएंगी? पार्टी की हालत वहां खराब है। उसका जनाधार खिसक चुका है। उसके कार्यकर्त्ताओं और नेताओं की बहुत भारी संख्या पार्टी छोड़ चुकी है। अधिकांश कांग्रेसी भाजपा में शामिल हो चुके हैं। दलित आधार को मायावती ने खिसका दिया है। ब्राह्मण भारतीय जनता पार्टी में चले गए हैं और मुस्लिम मतदाता कमजोर पार्टी के साथ नहीं जाते, इसलिए उत्तर प्रदेश में वे समाजवादी पार्टी के साथ जुड़े हुए हैं। सबसे अधिक आबादी वाला ओबीसी कभी कांग्रेस के साथ रहा नहीं और कांग्रेस ने कभी ईमानदार कोशिश नहीं की ओबीसी को अपने साथ लाने की। काका कालेलकर आयोग से लेकर मंडल आयोग तक की सिफारिषों को मानने से कांग्रेस सरकारों ने इनकार कर दिया और जब 1990 में वीपी सिंह ने मंडल आयोग के कुछ सिफारिशों को लागू करने की घोषणा की, तो संसद के पटल पर एक लंबे भाषण में राजीव गांधी ने वीपी सिंह सरकार के उस निर्णय का विरोध किया। विरोध में तो भाजपा भी थी, लेकिन उसने ऑन रिकार्ड कभी भी मंडल का विरोध आजतक नहीं किया है। भाजपा टिकट देते समय ओबीसी उम्मीदवारो का ज्यादा ख्याल रखती है। मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री जैसे पदों पर बैठाते हुए भी ओबीसी का ध्यान रखती है। अभी तो भाजपा ने एक ओबीसी को ही प्रधानमंत्री पद पर बैठा रखा है। इसका लाभ उसे हो रहा है। लेकिन कांग्रेस ने कभी कोशिश नहीं की कि देश की आबादी के 52 से 60 फीसदी जनसंख्या वाले समुदाय को अपनी ओर लाने की। लिहाजा इस समुदाय का मत उसे उत्तर प्रदेष में तो लगभग नहीं ही मिलता है। और उत्तर प्रदेश में पार्टी के पतन का सबसे बड़ा कारण यही है।

अब कांग्रेस ने महिला कार्ड खेला है। लेकिन क्या भारत में कभी महिला कार्ड चला भी है? इसका जवाब है- नहीं। क्योंकि महिला उस तरह का समुदाय नहीं हैं, जिस तरह का समुदाय जातियां, संप्रदाय या अन्य जातियों समूह बनाते हैं। महिलाएं जातियों, संप्रदायों और वर्गो में बंटी हुई हैं। पुरुषों की तरह ही उनका अपना जातिहित, संप्रदायहित या वर्गहित होते हैं। उनका हित उनके परिवारों से जुड़ा हुआ होता है और यह एक तथ्य है कि कुछ विरले अपवादों को छोड़कर भारत में मतदान का निर्णय पूरे परिवार का समेकित निर्णय होता है और पुरुष प्रधान समाज होने के कारण कुछ विरले अपवादों को छोड़कर पुरुष ही करते हैं। इसलिए 40 फीसदी महिला उम्मीदवार बना देने मात्र से महिलाओं के वोट कांग्रेस को पड़ने लगेंगे, ऐसा कोई बहुत भोला-भाला व्यक्ति ही समझ सकता है।

इस घोषणा के बाद एक और सवाल प्रियंका और कांग्रेस के नेताओं से पूछा जा रहा है, जिसका जवाब अभी तक नहीं आया है। वह सवाल यह है कि यदि कांग्रेस महिलाओं के सशक्तीकरण में इतनी ही दिलचस्पी रखती है, तो उसकी यह घोषणा सिर्फ उत्तर प्रदेश के लिए ही क्यों? पड़ोसी उत्तराखंड में भी चुनाव उत्तर प्रदेश के साथ ही हो रहे हैं। वहां कांग्रेस 40 सीटों पर महिलाओं को क्यों टिकट नहीं दे रही है? तीन अन्य राज्य- पंजाब, मणिपुर और गोवा में भी चुनाव उत्तर प्रदेश के साथ ही हो रहे हैं। वहां कांग्रेस महिलाओं को 40 फीसदी सीटें क्यो नहीं दे रही हैं?

तो क्या यह माना जाय कि कांग्रेस उन्हीं राज्यों में महिलाओं को ज्यादा टिकट देगी, जहां जीतने की संभावना बहुत कम है और वहां ज्यादा टिकट नहीं देगी, जहां जीतने की संभावना ज्यादा है? गौरतलब हो कि उत्तराखंड में कांग्रेस सत्ता की प्रबल दावेदार है। पंजाब में तो वह अभी सत्ता में है और वहां सरकार में आने की फिर उम्मीद पाल रही है। गोवा और मणिपुर में भी कांग्रेस अपनी जीत के प्रति बहुत सकारात्मक है। सिर्फ उत्तर प्रदेश ही है, जहां वह चौथे नंबर की पार्टी है और दूर दूर तक सत्ता में आने की कोई संभावना नहीं है। जाहिर है, प्रियंका और कांग्रेस महिलाओं को हार के मोर्चे पर लगा रही हैं और जहां महिलाएं जीत सकती हैं, वहां वे उनको लड़ा ही नहीं रही हैं। (संवाद)