भारतीय जनता पार्टी और पूरा संघ परिवार एक रणनीति के तहत नरेन्द्र मोदी को एक अवतार पुरुष की तरह प्रोजेक्ट कर रहा था और उसमें सफलता भी मिल रही थी, लेकिन कोरोना काल की तबाही ने उन लोगों को निराश किया है, जो वास्तव में नरेन्द्र मोदी को अवतार पुरुष मानने लगे थे और जिनको लगता था कि उनकी सारी समस्याओं का समाधान नरेन्द्र मोदी के पास है। पेट्रोल और डीजल की बढ़ती कीमतों ने लोगों को बेचैन करना शुरू कर दिया है। उनकी बढ़ती कीमतें महंगाई को भी बढ़ा रही है, जिसका गुस्सा भाजपा की केन्द्र सरकारों पर लोगों द्वारा निकालना स्वाभाविक है। अखिलेश के लिए ये बेहतर माहौल खड़े कर रहे हैं।

सिर्फ इतना ही नहीं, उत्तर प्रदेश की एक और राजनैतिक ताकत मायावती का भी पराभव हो चुका है। वह समाप्त तो उसी समय होने लगी थी, जब उनकी पार्टी को 2014 के लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं मिली थी। 2017 में हुए विघानसभा चुनाव में मायावती का पतन जारी रहा और उनकी पार्टी को वहां से मात्र 19 सीटें मिली थीं। अपनी राजनैतिक अपरिपक्ता के कारण अखिलेश यादव ने मायावती की शर्तां पर 2019 के लोकसभा चुनाव में उनसे समझौता कर लिया। खुद से ज्यादा सीटें मायावती को दे दी और बसपा के लिए आसान सीटें भी छोड़ दीं। जिसके कारण मायावती की पार्टी को उत्तर प्रदेश में 10 सीटें हासिल हो गईं। यदि अखिलेश ने मायावती से गठबंधन करने की गलती नहीं की होती, तो बसपा को उत्तर प्रदेश में एक बार फिर शून्य सीट हासिल होती। बहरहाल, 10 सीटें पाकर मायावती एक बार फिर उत्तर प्रदेश की राजनीति में प्रासंगिक होती दिख रही थीं, लेकिन जनता से कटकर रहने के कारण उनका पतन जारी रहा। कारण चाहे जो भी रहे हों, लेकिन वे अनेक नीतिगत मसलों और फैसलों पर भाजपा सरकारों का समर्थन करती दिखीं, जबकि उनका समर्थन आधार भाजपा विरोधी रहा है। वे जाति की राजनीति से पैदा हुई हैं और आरंभिक कालों में ब्राह्मणों व अन्य कथित अगड़ी जातियों के खिलाफ बोलकर अपने आपको मजबूत करती थी, लेकिन उन्होंने अपनी जातिवादी विचारधारा में भी बदलाव किया है। नफरत की भाषा त्यागना अच्छी बात है, लेकिन उन्होंने अपने समर्थक को पहले नफरत की घूंट पिलाई और अब खुद उससे अलग हो रही हैं। इसलिए उनके और उनके समर्थक आधार के बीच भी एक बड़ी खाई बन चुकी है। इसके कारण उनका पतन और भी तेज हो रहा है।

मायावती का पतन अखिलेश के लिए शुभ है, क्योंकि अब भाजपा विरोधी मतों को अपनी ओर खींचने की हालत में बसपा सुप्रीमो नहीं रहीं और भाजपा विरोधी दलित भी अखिलेश की ओर आ सकते हैं। प्रियंका के नेतृत्व में कांग्रेस अखिलेश के लिए एक समस्या बन सकती हैं, लेकिन प्रियंका से अखिलेश का कम भाजपा का नुकसान ज्यादा होगा। कांग्रेस का एक बड़ा समर्थन आधार भारतीय जनता पार्टी में चला गया है और यदि वहां कांग्रेस फिर जीवन पाती है, तो उसका ज्यादा नुकसान भाजपा को होगा, क्योंकि भाजपा से मोहभंग होने के बाद कुछ कांग्रेसी कांग्रेस की ओर फिर वापस आ सकते हैं। इसलिए प्रियंका के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का उत्थान भी अखिलेश यादव के पक्ष में ही जाएगा। प्रियंका ने घोषणा की है कि 40 फीसदी सीटों पर महिलाओं को टिकट दिया जाएगा। कहने की जरूरत नहीं कि कांग्रेसी और पूर्व कांग्रेसी परिवारों की महिलाओं को भारी संख्या में उम्मीदवार बनाए जाएंगे और वे महिला उम्मीदवार भाजपा के समर्थन आधार को ही कमजोर करेगी, क्योंकि पूर्व कांग्रेसियों का एक बड़ा आधार भाजपा में ही है। वे फिर से कांग्रेस की ओर वापसी करेंगे।

अखिलेश के लिए सबकुछ ठीक चल रहा है, लेकिन जिन्ना को गांधी, नेहरू और पटेल के साथ एक ही खाने में खड़ा करके उन्होंने जो किया है, इससे उनको नुकसान ही होगा। वे अब अपनी बात को न्यायसंगत बताने में एकेडमिक बातें करने लगे हैं, लेकिन उनको पता होना चाहिए कि एकेडमिक बातें स्कूल और कॉलेजों के लिए तो ठीक है, लेकिन जब करोड़ों का मतदाता वर्ग सामने हो, तो परसेप्शन मायने रखता है, न कि सच्चाई और परसेप्शन यह है कि जिन्ना के कारण देश का बंटवारा हुआ और उसमें लाखों लोग मारे गए। और यह सिर्फ परसेप्शन ही नहीं, बल्कि सच्चाई भी है कि देश का बंटवारा जिन्ना के कारण हुआ और अब यह मायने नहीं रखता कि जिन्ना अपनी राजनीति के शुरुआती सालों में कांग्रेस में थे और गांधी, नेहरू और पटेल के साथ कांग्रेस के अधिवेशनों के हिस्सा होते थे और आजादी की लड़ाई में भी वे कांग्रेस के साथ थे। 1940 के बाद जिन्ना ने जो किया, वह ज्यादा महत्वपूर्ण है और देश के बंटवारे का दोष उनकी पुरानी कां्रगेस सदस्यता से नहीं धोया जा सकता।

शायद अखिलेश मुस्लिम वोट पाने की प्रतिस्पर्धा में इस तरह की बयानबाजी कर रहे हैं, लेकिन ऐसा करके वे अपना ही नुकसान कर रहे हैं। भारत का एक औसत नागरिक विभाजन की पीड़ा को नहीं भूल पाया है और उसने इसके लिए जिन्ना को भी माफ नहीं किया है, इसलिए स्कूली बातें कर अखिलेश अपनी जीतती बाजी गंवा सकते हैं। चुनाव में अभी कुछ महीने बाकी हैं, यदि इसी तरह की दो- तीन और गलतियां अखिलेश ने कर दीं, तो भाजपा के लिए इससे बेहतर स्थिति और कुछ नहीं हो सकती। वह हारती बाजी जीत सकती है और अखिलेश जीतती बाजी हार सकते हैं। (संवाद)