जैसा कि हर साल होता है, इस साल भी दीवाली के बाद दिल्ली और आसपास का प्रदूषण बहुत तेजी से बढ़ा और यह अगले सप्ताह तक बढ़ता ही गया। अधिकांश इलाकों में प्रदूषण को लेवल मेडिकल इमरजेंसी के लेवल तक पहुंच गया। यह लेवल तब प्राप्त होता है जब प्रदूषण का सूचकांक बेहद प्रदूषण के स्तर को भी लांघ देता है। जब प्रदूषण ने अपना यह स्तर प्राप्त किया, तो दिल्ली के केजरीवाल सरकार और केन्द्र की मोदी सरकार दिल्ली के आसपास के राज्यों में पराल जाने की घटना को जिम्मेदार बताने लगे।

केजरीवाल सरकार तो अपने सिर से बदनामी हटाने के लिए पड़ोस की राज्य सरकारों को जिम्मेदार बता रही थी, जिन्होंने पराली जलाने की घटना को रोकने के लिए उपयुक्त कदम नहीं उठाए। नासा से प्राप्त चित्रों को देखकर यह आंकड़ा जारी किया जाने लगा कि हरियाणा और पंजाब में कितनी जगह धान की पराली जल रही है। दूसरी तरफ मोदी सरकार के लिए किसान अभी समस्या बने हुए हैं, इसलिए मोदी सरकार के लोगों ने किसानों को सीधे सीधे इस प्रदूषण के लिए जिम्मेदार बताना शुरू किया।

सवाल उठता है कि किसानों को पराल जलाने का विकल्प क्यों नहीं उपलब्ध कराया जाता है? हमारे वैज्ञानिकों ने पराली के उत्पादक इस्तेमाल की टेक्नालॉजी विकसित कर रखी है। पराली को खेतों से निकालकर उनसे बिजली का उत्पादन किया जा सकता है। उन्हें खाद में भी तब्दील किया जा सकता है, जिससे खेतों की उर्वरकता बढ़ेगी। किसानों को खाद्य सब्सिडी के रूप में प्रत्येक साल लाखों करोड़े रुपये खर्च करने वाली केन्द्र सरकार क्या कुछ सौ करोड़ और खर्च कर पराली प्रबंधन का काम नहीं कर सकती?

किसानों की मुख्य चिंता खेती होती है। जहां खेत होते हैं, वहां प्रदूषण मुख्य चिंता नहीं होती। इसलिए हम किसानों से क्यों उम्मीद करें कि वह महानगरों के प्रदूषण की चिंता करें? उन्हें अगली फसल लगानी होती है और उसके लिए उन्हें खाली खेत चाहिए। धान की कटनी होने के बाद खेतों में जो फसल की खूंटी या पराली रह जाती है, उसे उन्हें हटाना होता है और हटाने के लिए सबसे अच्छा तरीका उनके लिए यही होता है कि वे उन्हें जला दें और वे यही करते हैं। हटाने के अन्य तरीका का यदि वे इस्तेमाल करें, तो उसके लिए उन्हें खर्च करना पड़ेगा, जिसके लिए पैसे शायद उनके पास हैं ही नहीं, क्योंकि पहले से ही उनकी हालत खस्ता होती जा रही है और अपनी फसल के लाभदायक रिटर्न के लिए भी वे मिनिमम सपोर्ट प्राइस यानी सरकारी सब्सिडी पर निर्भर है।

जाहिर है कि पराली हटाने की चिंता सरकार की ही हो सकती है। राज्य सरकारों और केन्द्र सरकारों का यह दायित्व है कि वे पराल हटाने का वित्तीय बोझ वहन करें। यह मामला एक राज्य से जुड़ा हुआ नहीं है, बल्कि अनेक राज्यों से जुड़ा है, क्योंकि वायुमंडल एक है, इसलिए केन्द्र सरकार की भूमिका सबसे अहम होनी चाहिए। पर केन्द्र सरकार ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया, जबकि केन्द्र की राजधानी दिल्ली ही सबसे ज्याद प्रभावित होती है। यहां केन्द्र की लगभग पूरी सरकार होती है। सुप्रीम कोर्ट होता है और राष्ट्रपति भी होते हैं।

जाहिर है, पराली से होने वाले प्रदूषण के लिए सबसे बड़ा दोषी केन्द्र सरकार ही है और उसके बाद स्थान राज्य सरकारों का आता है। किसानों पर इसके लिए दोष डालना समस्या को गलत मोड़ देना है। इस बात को सुप्रीम कोर्ट ने भी स्वीकार किया है। यह कारण सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र और राज्य सरकारों को दोष किसानों पर मढ़ने के लिए फटकार लगाई है और स्पष्ट आदेश दिए हैं कि पराली जलाने के लिए किसानों को दंडित नहीं किया जाय।

पराल प्रदूषण का एक कारक है, लेकिन यह सबसे बड़ा कारक नहीं। केन्द्र ने खुद सुप्रीम कोर्ट में यह स्वीकार किया है कि दिल्ली के प्रदूषण में पराली का योगदान 4 से 10 फीसदी ही है। जब उसका योगदान इतना कम है, तो फिर सारा दोष पराली को ही क्यों दिया जाता है? जाहिर है सरकारें अपनी विफलता को छिपाने के लिए किसानों की आड़ लेती है। जो आंकड़े आ रहे हैं, उससे साफ है कि दिल्ली का आधा प्रदूषण तो मोटर वाहनों से ही है। उसके बाद स्थान औद्योगिक प्रदूषण का है। निर्माण कार्यो से भी प्रदूषण होता है। हवा चलने से उड़ी धूल भी अपना योगदान करते हैं। घरेलू कारणों से भी प्रदूषण हो रहा है।

नवंबर के महीने में जब तापमान कम होने लगते हैं, पहले हुए बरसात के कारण हवा में नमी बनी रहती है और हवा की गति कम हो जाती है, तो सभी प्रदूषण कारक अपना तांडव नृत्य दिखाने लगते हैं और सरकारें किसानों को दोष देकर अपने आपको बचाने लगती हैं। प्रदूषण का एक और कारक उस समय दिवाली की आतिशबाजी भी है। सुप्रीम कोर्ट ने इस साल आदेश देकर आतिशबाजी पर रोक लगा दी, लेकिन फिर भी खूब आतिशबाजी हुई। दिल्ली पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन कर आतिशबाजी करने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की।

सरकार को जब पता है कि सबसे ज्यादा प्रदूषण मोटर वाहनों से होता है, तो वह वाहनों के चलने पर नवंबर महीने में रोक क्यों नहीं लगा सकती? जब लॉकडाउन लगाकर सबको घरों से बाहर निकलने पर रोक लगाई जा सकती है, तो प्रदूषण बढ़ोतरी के दिनों में निजी वाहनों को घर से बाहर निकालने पर रोक लगाना तो बहुत आसान है। पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ऐसा किया जा सकता है। लोग सार्वजनिक वाहनों का इस्तेमाल करें। उसी तरह आतिशबाजी पर भी पूर्ण प्रतिबंध लगाया जा सकता है। साफ-सफाई में उड़ने वाली धूल से पर्यावरण को बचाने के लिए सफाई की नई टेक्नालॉजी का इस्तेमाल किया जा सकता है। लेकिन सरकारें सबकुछ जानते हुए ऐसा नहीं करती हैं, तो फिर दोष किसका है? (संवाद)