उत्तर प्रदेश में भी भारतीय जनता पार्टी जातीय समीकरण की मजबूत रणनीति से चुनाव जीतने का सपना पाल रही है। राममंदिर और मुस्लिम विरोधी राजनीति को दिखावा मात्र है, उसकी जीत उत्तर प्रदेश के जातीय समीकरण पर ही इस बार भी निर्भर है, लेकिन किसान आंदोलन उसके इस समीकरण पर भी भारी पड़ रहा था। वैसे कुछ गोदी मीडिया के चैनल वहां फिर से भाजपा के पूर्ण सत्ता में आने के सर्वे नतीजे दिखा रहे हैं, लेकिन अब देश की जनता राजनैतिक रूप से परिपक्व हो चुकी है और यह जानने लगी है कि ये सब सर्वे और उनके नतीजे प्रायोजित होते हैं। सर्वे तो भाजपा ने भी करवाए होंगे और उनमे उनकी हार के ही नतीजे निकले होंगे। और भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में किसी भी तरह से जीतना चाहती है। ऐसा संभव बनाने के लिए इन तीनों कानूनों को वापस लेना उसके लिए कोई बहुत बड़ा सौदा नहीं है। सत्ता में बने रहना भारतीय जनता पार्टी की सबसे बड़ी प्राथमिकता है। उत्तर प्रदेश में यदि उसकी हार हो जाती है, तो आगे केन्द्र मे मोदी सरकार को अपनी शर्तों पर काम करना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए हार को देखते हुए इन्हें वापस लिया ही जाना था। हां, यदि भारतीय जनता पार्टी अपने आपको जीतती हुई पाती, तो ये कानून हरगिज वापस नहीं लिए जाते।
जाहिर है, मोदी सरकार की यह घोषणा भारत के लोकतंत्र की जीत है। चुनाव लोकतंत्र का अविभाज्य हिस्सा है और हार चुनाव लड़ने वाले दलों और लोगों के लिए सबसे ज्यादा कंपकंपा देने वाली स्थिति। इसलिए हार के डर से ही सही, मोदी सरकार ने ये कानून तो वापस ले ही लिए और भविष्य में होने वाली भारत की संभावित तबाही से देश बच गया।
किसानों के हौसलों को सलाम करना होगा। 6 सौ आंदोलनकारी शहीद हुए। मौसम की मार का उनको सामना करना पड़ा। लगभग एक साल से वे आंदोलन कर रहे हैं और इस बीच भारत की तीनों ऋतुओं- सर्दी, गर्मी और बरसात- की विभीषिका का सामना किसान कर चुके हैं, लेकिन सत्याग्रह से वे पीछे नहीं हटे। वे पूरी तरह से गांधीवादी आंदोलन चला रहे थे, इसलिए उनका आंदोलन लंबा चला और उनकी जीत हुई। वैसे उसे िंहंसक बनाने की कोशिशें भी हुई और कुछ अराजक तत्व भी उसमें शामिल हुए, लेकिन कुल मिलाकर उनका सत्याग्रह गांधीवादी सत्याग्रह ही था।
प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि ये तीनों कानून वे किसानो को सशक्त बनाने के लिए लाए थे, लेकिन किसान से बेहतर वे नहीं जानते हैं कि उनके लिए सशक्तता का क्या मतलब है। वे तो नोटबंदी काले धन को समाप्त करने के लिए लाए थे, लेकिन उसका नतीजा क्या हुआ? अच्छी खासी देश की अर्थव्यवस्था उस नोटबंदी से तबाह हो गई। विकास पर ब्रेक लग गया और काले धन में कोई कमी नहीं आई। उलटे काला धन और बढ़ गए। नोटबंदी ने करोड़ों को बेरोजगार बना दिया। लाखों लोगों के व्यवसाय बंद हो गए। भारतीय रिजर्व बैंक का व्यर्थ में नये नोट छापने और उनका बैंकों और एटीएम तक पहुंचाने में हजारों करोड़ खर्च हुए। कितने लोग तो लाइन में लगे लगे ही मर गए। अनेक बैककर्मी भी काम के अतिशय बोझ से दबकर मौत की गाल में समा गए। कितने लोगों ने तो आत्महत्या तक कर ली।
ये तीन कृषि कानून अपनी विभीषिका में नोटबंदी से भी ज्यादा घातक साबित होने वाला था। इससे सिर्फ किसान ही तबाह नहीं होते, बल्कि देश की 95 फीसदी से भी ज्यादा आबादी प्रभावित होती। अनाज के बाजार में उपभोक्ताओं की शामत आ जाती। इन तीनों में से एक कानून खाद्यानों की जमाखोरी की अधिकतम सीमा को समाप्त करता है। इसके कारण जमाखोरी बढ़ती। अरबों रुपयों के मालिक अडाणी से लेकर हजारपति व्यापारी तक अनाजों की जमाखोरी करते। समृद्ध उपभोक्ता भी अपनी जरूरत से ज्यादा अनाज को खरीदकर जमा कर लेते, जिसके कारण बाजार में अनाज का भारी अभाव हो जाता और कीमतें बहुत ज्यादा बढ़ जाती। एक कृत्रिम अकाल पड़ता, जिसमें देश में पर्याप्त अनाज होने के बावजूद बाजार से अनाज या तो नदारद हो जाता या इतनी ज्यादा कीमत पर उपलब्ध होते कि मध्यवर्ग का व्यक्ति भी मुश्किल से उसे खरीद पाता। जिस तरह से मोदीजी को यह नहीं पता था कि नोटबंदी से कितनी तबाही मचेगी, उसी तरह शायद उन्हें यह नहीं पता है कि इन कानूनों का क्या असर लोगों पर पड़ता।
इस कानून का एक असर यह हो जाता कि किसान अपने खेत में ही मजदूर हो जाते और वे बड़े बड़े कॉर्पोरेट अनाज खरीददारो की कृपा पर आ जाते। कंट्रैक्ट खेती वाला कानून इसके लिए जिम्मेदार होते। किसान अपना अनाज किसी को भी बेचने के लिए स्वतंत्र नहीं होते और जिनसे उन्होंने कंट्रैक्ट किया हुआ होता, उनके रहमो करम पर आश्रित हो जाते। इसलिए किसानों के खिलाफ तो ये कानून थे ही और इसीलिए किसान इसका विरोध कर रहे थे, लेकिन उनके इस विरोध से देश के सभी लोगों का भला हुआ।(संवाद)
कृषि कानूनों पर मोदी सरकार का यूटर्न
भाजपा हार का रिस्क लेकर कुछ नहीं करती
उपेन्द्र प्रसाद - 2021-11-19 09:55
आखिरकार लोकतंत्र की जीत हुई और केन्द्र सरकार को तीन काले कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा। वैसे उनके वापस होने की उम्मीद पश्चिम बंगाल के चुनाव में भाजपा की करारी हार के बाद से ही प्रबल लग रही थी, क्योंकि वहां की हार को सुनिश्चित बनाने में किसान आंदोलन की बहुत बड़ी भूमिका थी। यह सच है कि पश्चिम बंगाल के किसान उतने आंदोलित नहीं हैं, जितने पंजाब, हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान के किसान, लेकिन दिल्ली को घेरकर आंदोलन करने वाले किसानों ने पश्चिम बंगाल में भाजपा के खिलाफ चुनावी अभियान चलाया था और उस अभियान ने भाजपा के सपने चकनाचूर कर दिए और उसका सारा का सारा जातीय समीकरण धरा का धरा रह गया।