माओवादियों द्वारा की गई इस हिंसा की जितनी आलोचना की जाय, वह कम है, लेकिन उसके बाद गृहमंत्री पी चिदबरम ने जो प्रतिक्रिया व्यक्त की है, उससे एक बार फिर पता चलता है कि अपनी नक्सल नीति को आगे बढ़ाने के लिए वे कितने समर्पित हैं। वे एक बार फिर माओवादियों के खिलाफ वायुसेना के उपयोग की बात करने लग गए हैं। पिछले बार जब उन्होंने जब इस तरह का प्रस्ताव रखा था, तो वायुसेना ने साफ कर दिया था कि वायुसेना का प्रशिक्षण अपने देश में बमबारी करने के लिए नहीं दिया जाता है।

लेकिन लगता है कि गृहमंत्री को अपनी बात रखने का बहाना चाहिए और उन्हें एक और बहाना मिल गया है। यदि उन्हें लगता है कि वायुसेना का इस्तेमाल होना चाहिए और उन्हें नक्सलियों से लड़ने के लिए ज्यादा अघिकार मिलने चाहिएण् तो उन्हें यह बात प्रधानमंत्री के सामने रखनी चाहिए, लेकिन प्रधानमंत्री के सामने अपने प्रस्ताव को ले जाने के पहले वे मीडिया में अपनी बात रखते हैं। बात बात में मीडिया से मुखातिब होता रहना और प्रधानमंत्री से वह क्या कहने जा रहे हैं, इससे देश और दुनिया को अवगत कराकर आखिर चिदंबरम क्या हासिल करना चाहते हैं?

गृहमं.त्री ने नक्सल अभियान को एक ऐसा रूप दे रखा है, जिसमें लगता है कि एक तरफ माओचादी हैं, तो दूसरी तरफ पी चिदंबरम और दोनों के बीच बार पार की लड़ाई चल रही है। जबकि ऐसी बात नहीं है। कानून और व्यवस्था राज्य सरकार का मसला है और नक्सल प्रभावित राज्यों की सरकारें उस समस्या सामना कर रही हैं। गृहमंत्री का काम उन सरकारों को अर्द्ध सेनिक बल उपलग्ध कराने होते हैं। केन्द्र सरकार की इसमें सीमित भूमिका है, लेकिन चिदंबरम कुछ ऐसा प्रचार करते हैं, मानों यह लडाई माओवादियों और उनके बीच में है।

नक्सलवादियों के खिलाफ अपने कथित अभियान के बारे में मीडिया में चिदंबरम कुछ ज्यादा ही प्रचार कर रहे हैं। जब कांग्रेस के नेता भाजपा, वामदल व चुनाव लड़ने वाले अपने अन्य प्रतिद्वंद्वी दलों के खिलफ मीडिया का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करें, तो यह बात समझ में आती है, क्योंकि वे दल भी मीडिया का इस्तेमाल करते हैं, पर हमें नहीं भूलना चाहिए कि नक्सलवादी अलग किस्म की राजनीति कर रहे हैं। मीडिया में उनके खिलाफ प्रचार करके आप उनको पराजित नहीं कर सकते। उन्हे पराजित करने के लिए उनकी जमीन पर उन्हें वैचारिक और राजनैतिक रूप से पराजित करना होगा। और इसके लिए नक्सली इलाको की जमीनी हकीकत को समझना होगा।

दुर्भाग्य से पी चिदंबरम को नक्सली इलाके की राजनैतिक हकीकत के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। उन्हे न तो वहां के भूगोल के बारे में पता है और न ही इतिहास के बारे में। इसके लिए वे खुद जिम्मेदार नहीं हैं। इसका कारण यह है कि वे एक ऐसे क्षेत्र के हैं, जहां माओवादी समस्या नहीं है। यह गृहमंत्री की सबसे बड़ी समस्या है। और इसके कारण माओवादी समस्या के हल करने में वे सक्षम भी नहीं हैं।

मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने चिदंबरम की माओवादी नीति की आलोचना की थी। अब श्री चिदंबरम कह रहे हैं कि वह मामला खत्म हो चुका है। लेकिन श्री सिंह ने उन पर जो आरोप लगरए थे, वे तो अपनी जबह मौजूद हैं। केन्द्र सरकार के पर्यावरण मंत्री ने भी चिदंबरम पर कुछ दिग्विजय सिंह जैसा ही आरोप लगाया था।

दिग्विजय सिंह ने जो कहा वे काफी मायने रखते हैं, क्यांकि श्री सिंह छत्तीसगढ़ को चिंदबरम से बेहतर समझते हैं। श्री सिंह मघ्यप्रदेश के मुख्यमं.ख्ी रह चुके हैं और छत्तीसगढ़ उस समय मघ्यप्रदेश का ही भाग हुआ करता था। एक बार जब श्री सिंह ने पी चिदंबरम से वहां की न्कसली समस्या परकुछ कहना चाहा तो चिदंबरम का टका सा जवाब था कि वह आपकी जिम्मेदारी नहीं, बल्कि मेरी जिम्मेदारी है।

इस तरह की बात कोई राजनैतिक व्यक्ति नहीं, बल्कि दफ्तर का कोई बाबू अथवा नौकरशाह करता है। चिदंबरम का नक्सली समस्या पर रवैया किसी राजनेता की नहीं, बल्कि एक नौकरशाह का रहा है। माओवाद जब सिर्फ एक कानून व्यवस्था की समस्या होती, तब तो नौकरशाही रवैया शायद कुद सकारात्मक नतीजा लाता, लेकिन यह तो एक राजनैतिक समस्या हैख् जिसके आर्थिक और सामाजिक आयाम हैं।

पी चिदंबरम की अपनी छवि भी माओवादियों को जमीन पर मजबूत करने वाली साबित हो रही है। उनकी छवि उद्योगपतियों के लिए काम करने वाले राजनीतिज्ञ की है। माआवादी नक्सलवादी इलाके में प्रचार करते हैं कि उनकी जमीन पर उद्योगपतियों की नजर है और सरकार उन्हें हटाकर उनकी जमीन को उद्योगपतियों को देना चाहती है। उनकी यह छवि माआवादियों के काम को आसान कर रही है। बार बार मीडिया का इस्तेमाल कर चिदंबरम अपनी उस छवि को और भी मजबूत कर रहे हैं।

जाहिर है कि पी चिदंबरम माओवादी समस्या के हल के लिए गृहमंत्री के रूप में एक सक्षम रानीतिज्ञ नहीं हैं। उन्हें ने तो नक्सली इलाके की राजनीति की और न की उसके भूगोल का ज्ञान है और न ही वे दिग्विजय सिंह जैसे किसी नेता से वहां की हकीकत को जानने में रुचि रखते हैं। इसलिए अच्ठा यही रहेगा कि वे गृहमंत्री के पद से हट जाएं।

हटने की पेशकश तो उन्होंने पहले भी की थी लेकिन वह पेशकश हटने के लिए नहीं थी, बल्कि दिग्विजय सिंह जैसे राजनेताओं की आलोचना से बचने के लिए थी। उन्होंने गृहमंत्री के पद से इस्तीफे की पेशकश ऐसे माहौल में की थी, जिसमें प्रधानमंत्री उनका इस्तीफा स्वीकार ही नहीं कर सकते थे। उन्होंने पहले अपने पक्ष में मीडिया की सहायता से माहौल बना डाला और उसके बाद अपने इस्तीफे की पेशकश कर दी थी।

लेकिन यदि वे वास्तव में चाहते हैं कि नक्सली समस्या का समाधान निकले तो उन्हें अपना पद सचमुच छोड़ देना चाहिए। मीडिया के इस्तेमाल से नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री से बातचीत ेकरके उन्हें अपना मृत्रालय बदलवा लेना चाहिए।

प््रधानमंत्री को भी चाहिए कि वह नक्सल समस्या को हल करने की कमान किसी नक्सल प्रभावित राज्य के ही किसी नेता को बनाना चाहिए। चाहें तो वे दिग्विजय सिंह को ही गृहमंत्री बना दें अथवा प्रणव मुखजीै भी एक बेहतर मुख्यमंत्री हो सकते हैं। ै (संवाद)