यह सूचना सेना के गुप्तचर विभाग से उन्हें मिली थी। इस सबके बावजूद इस पूरी घटना में बहुत सारी कमजोर कड़ियां थीं, जिनका स्पष्टीकरण आवश्यक है। इस ट्रक पर सवार मजदूर निहत्थे थे, उन्हें मारने के बजाय गिरफ्तार करना आसान था, जो नहीं किया गया। उनके लिये पहाड़ों और खड़ी चट्टानों के बीच भागना भी संभव नहीं था। अगर वे विद्रोही ही थे तो किसी आक्रामक घटना की न कोई सूचना मिली ओर न ही इस गोलीबारी के दौरान कोई जवाब ही आया, विशेषकर भारतीय सीमा के भीतर तो कुछ भी नहीं हुआ। स्थानीय पुलिस और असम राइफल्स को भी इसकी कोई सूचना नहीं थी। क्या ये सारी योजना एक ‘‘सर्जिकल स्ट्राइक’’ का हिस्सा थी? वस्तुतः यह छुपकर घात करने की नीति तभी अपनाई जाती है जब शत्रु बहुत ताकतवर होता है। लेकिन पैराकमांडों तो उन मजदूरों से काफी अधिक ताकतवर थे, इसलिये ‘‘मारो और भागो’’ की तकनीक तो पूरी तरह अनावश्यक थी।

अखबारों में छपी सूचनाओं के आधार पर, इस आक्रमण में बचे दो मजदूरों में से एक ने कहा कि गोलीबारी, जो दो या तीन मिनट तक चली, के बाद मृतकों को गाड़ी से घसीटकर बाहर लाया गया और वहीं उन्हें पड़ा रहने दिया गया। उसने बहोशी में डूबने से पहले देखा कि उनमें उसका भाई भी था। इस सबसे यह तो पता चल ही जाता है कि घात लगाने वाले कमान्डो के पास पर्याप्त समय भी था और शस्त्र भी। इतना तो साफ लगता है कि एक-एक को खत्म करने की योजना थी। लेकिन जल्द ही यह पता चल गया कि यह उनकी विजय नहीं थी, बल्कि एक गंभीर त्रासदी थी। मृतको में सभी तिरू घाटी के मजदूर थे, निहत्थे थे और निपरपराध थे।

अधिकांश तो ट्रक में ही मारे गए, बचे हुए मजदूरों में कुछ और मारे गए, जब गांव की कोनियाक जनता ने कमान्डोज पर बाद में हमला किया और असम राइफल्स के पोस्ट पर आक्रमण हुआ। एक सेना का ट्रुपर भी मारा गया। वास्तव में उत्तर पूर्व के राज्यों में इस तरह के विद्रोह और उनसे निपटने के लिये भयानक कानूनों का उन्हें पुराना अनुभव है। एएफएसपी का कानून जो सेना का ही हिस्सा है, उनपर कई बार इस तरह के संकट ला चुका है। मणिपुर में इस विशेषाधिकार प्राप्त कानून के खिलाफ एक इलाके में जनता ने इतना विद्रोह किया कि सरकार को उसे हटाना ही पड़ा।

केन्द्रीय गृह मंत्री ने इस घटना के बाद अपने दौरे से वापस आकर राज्यसभा में अपना बयान दिया, जिसमें उन्होंने कहा कि ट्रक को रूकने का सिग्नल दिया गया था, जिसके बाद भी वह रूकी नहीं और चलती रही। इसके बाद ही इस पर गोली चलाई गई। इस आक्रमण में बचे हुए दो लोगों में एक के राष्ट्रीय दैनिक में छपे बयान के अनुसार उन्हें रूकने का कोई सिग्नल नहीं दिया गया था। गोलियां तो अचानक ही आईं।

अस्पताल के सूत्रों के अनुसार इन दो घायलों को, जिन्हें घटना के करीब दस घंटे बाद इलाज के लिये छोड़ गए थे, सुरक्षा देने के लिये असम पुलिस आई। जिला के अधिकारी आए, और नागालैंड राज्य के अधिकारी भी आए। इसतरह जब यह घटना बाहर आई तो अस्पताल को ज्ञात हुआ कि ये कौन थे, और फिर सोशल मीडिया पर उनके फोटो छाप दिए गये, जिससे उनके गांव के लोगों को उनके बारे में पता चला।

जिन्होंने इस योजना को बनाया और परिणाम तक पहुंचाया, उन्हें मालूम था कि ऐसी घटनाओं को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता, सिर्फ सांत्वना तक ही सीमित रहती है प्रतिक्रिया। इस पर कभी भी अफसोस नहीं जाहिर किया जाता। अभी सारे विद्रोही संगठन शांति वार्ता में संलग्न हैं। नागालैंड की सरकार इस वार्ता में सक्रिय है।

वे ‘‘सीज फायर’’ के समझौते तक पहुंच भी गए हैं। ऐसी स्थिति में छोटे नगण्य अपराध तो होते रहते हैं। यह संभावना हो सकती है कि कोई भूमिगत नागा गु्रप जो इस शांति वार्ता में शामिल न हो, वह इसमें सक्रिय थे। सूत्रों के अनुसार एनएससीएन ग्रुप को संगठित करने वाले एसएस खापलांग के भतीजे यंग आंग जो इस ग्रुप को नेतृत्व दे रहे हैं, इसमें सक्रिय हों, पर युंग आंग का समर्थन आधार तो म्यांमार में है।

ऐतिहासिक रूप से एक ही संगठन था जिसने नागालैंड में विद्रोह की शुरूआत की, और वह था ए जेड फिजो के नेतृत्व में चलने वाला नागा नेशनल कौंसिल। यह संगठन 1975 में भारत सरकार के साथ शांति वार्ता में शामिल हुआ। इसी का परिणाम था शिलांग एकॉर्ड। 1980 में इससे एक नया ग्रुप टूटकर निकला, जिसका नाम था नेशनल सोशलिस्ट काउन्सिल ऑफ नागालैंड। लेकिन यह भी टूटा और दो ग्रुपों में बंट गया। इनमें से एक के नेता थे एस एस खापलांग, जो म्यांमार के नागा थे और दूसरे ग्रुप के नेता थे थुइंगालेंग मुईवाह और आइजक चिश्ती सू। इन दोनों में खापलांग ग्रुप के कई बार टुकड़े हुए। इनके बीच भारतीय और म्यांमार के नागा थे, जो आपस में लड़ते रहते थे और नया संगठन बनाते रहते थे। इसमें भारतीय नागाओं के नेतृत्व में चलने वाला संगठन शांति वार्ता में शामिल है। 2017 में खापलांग का निधन हो गया और उनकी जगह खांगों कोनियाक इसके नेता बने, लेकिन इन्हें जल्द ही हटा दिया गया और 2018 में युडा आंग इसके नेता बने। खांगों कोनियाक भारत वापस आ गए और शांति वार्ता के अंतिम अध्याय तक साथ हैं।

यह अत्यावश्यक है कि शांति वार्ता अपनी कोशिश में सफल हो, लेकिन इस त्रासदी ने एक बार फिर इसे चोट पहुंचाई है। इस संकट का निदान भारत सरकार के पास ही है कि वह किस तरह नागालैंड की जनता को इस आघात से बाहर निकालती हैं। भारत को इस त्रासदी के समय नागालैंड की जनता के साथ होना चाहिये और इस पर अफसोस भी जाहिर करना चाहिये। (संवाद)