सवाल उठता है कि क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने इस मकसद में कामयाब हो पाएंगे? पश्चिम बंगाल चुनाव में लाख जतन लगाने के बावजूद भी उनकी पार्टी हार गई और उसके बाद हुए उपचुनावों में भी उसका स्थिति अच्छी नहीं रही। फिलहाल हिन्दी प्रदेश उसके लिए ज्यादा मायने रखते हैं, लेकिन हिन्दी प्रदेशों में ही भाजपा की सबसे खराब हालत रही। हिमाचल प्रदेश और राजस्थान में तो उसके उम्मीदवारों की सबसे ज्यादा दुर्गति हुई और हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उत्तर प्रदेश तो हिन्दी का हृदय प्रदेश है। यदि आसपास के इलाकों में हुए उपचुनाव का कोई संदेश है, तो वह भाजपा के लिए नकारात्मक ही है।

महंगाई, बेरोजगारी, किसान असंतोष बगैरह ने उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत को अत्यंत कठिन बना दिया है। किसानों के बढ़ते असंतोष को थामने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तीनों विवादास्पद कानूनों को वापस ले लिए। उन कानूनों को वापस नहीं लेने का राजहठ नरेन्द्र मोदी का था, लेकिन चुनाव जीतने का मोह राजहठ पर भारी पड़ा और मोदीजी ने उसे अपने अंदाज में वापस ले लिया, लेकिन आंदोलन के कारण जो असंतोष पैदा हुआ था, वह अभी भी समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा है। यह मोदी और उनकी भाजपा के लिए सबसे ज्यादा चिंता का कारण है। देखने से तो लगता है कि यह आंदोलन सिर्फ पश्चिम उत्तर प्रदेश तक ही सीमित था, लेकिन सच कहा जाय, तो इसका असर पूरे उत्तर प्रदेश पर था।

अखिलेश यादव की सभाओं में उमडती भीड़ भी भाजपा के लिए चिंता का सबब है। प्रतिपक्ष के मुख्य नेता और मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार अखिलेश अभी विजय यात्रा पर निकले हुए हैं। यात्रा के दौरान उन्हें भारी जनसमर्थन तो मिल ही रहा है, बीच बीच में होने वाली सभाओं में जुटी भीड़ भी अपूर्व और अप्रत्याशित है। लोग वहां लाए नहीं जा रहे हैं, बल्कि खुद आ रहे हैं। जिन इलाकों में अखिलेश की जाति के लोगों की आबादी नहीं है, वहां भी लोग भारी संख्या में उन्हें देखने और सुनने को उमड़ रहे हैं। इसका मतलब है कि उनका समर्थन उनकी जाति तक सीमित नहीं रह गया है। समाज के अधिकांश तबकों में उनके समर्थन का आधार बढ़ता चला गया है।

भारतीय जनता पार्टी के लिए चिंता की एक बात यह भी है कि मुकाबला वहां लगभग आमने सामने का होता जा रहा है। उत्तर प्रदेश की राजनीति पिछले कुछ दशकों से त्रिकोणीय संघर्ष वाली रही है। भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी और बसपा मुख्य राजनैतिक ताकतें रही हैं, लेकिन इस बार बहुजन समाज पार्टी पर लगभग पूरी तरह ग्रहण लग गया है और मुकाबला भाजपा और सपा के बीच तक सीमित होता जा रहा है। तीन तरफा मुकाबला सत्तारूढ़ दल के लिए ज्यादा फायदेमंद होता है, क्योंकि सत्ताविरोधी फ्लोटिंग मतदाता दो खेमे में बंट जाते हैं, लेकिन जब मुकाबला आमने सामने का होता है, तो सत्ता विरोधी फ्लोटिंग मतदाता सामने की विपक्षी पार्टी की ओर ध्रुवीकृत हो जाता है। इसका लाभ अखिलेश यादव को मिल रहा है।

मायावती अब उत्तर प्रदेश की राजनैतिक ताकत नहीं रह गई हैं। उनका समर्थन आधार सिर्फ उनकी जाति तक सिमटकर रह गया है। उसके बाहर उनके प्रति समर्थन का कोई भाव नहीं रहा है। यह सच है कि उनकी जाति प्रदेश में सबसे अधिक आबादी वाली जाति है, लेकिन उसका प्रतिशत मात्र 12 ही है। ध्रुवीकरण की स्थिति में पूरे 12 प्रतिशत लोग उनको मत देंगे, इसमें भी शक है। जो घोर भाजपा विरोधी हैं, वे सपा में चले जाएंगे और जो घोर सपा विरोधी हैं वे भाजपा में चले जाएंगे। इसलिए हो सकता है, मायावती को इस बार 10 फीसदी वोट भी नहीं मिले और उनकी पार्टी अपने इतिहास का सबसे खराब प्रदर्शन इस बार दर्ज करे।

बहरहाल हम बात भाजपा की कर रहे हैं। भाजपा के लिए यह चुनाव निश्चय ही एक कठिन चुनाव है और इसे जीतने के लिए ही काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का उद्घाटन उस समय किया गया, जबकि यह अभी तक पूरा भी नहीं हुआ है। इसे कॉरिडोर के प्रथम फेज का उद्घाटन कहा जा रहा है। जाहिर है, कॉरिडोर का पूरा काम होना अभी बाकी है। इस उद्घाटन के द्वारा भाजपा योगी सरकार को एक सफल सरकार बताने और दिखाने की कोशिश कर रही है। वह अयोध्या को भी अपनी उपलब्धि बता रही है, लेकिन अभी वहां काम जारी है और उससे संबंधित कोई इवेंट भाजपा आयोजित नहीं कर सकती, जबकि इसकी राजनीति इवेंट मैनेजमेंट के आधार पर चलती है और इवेंट मैनेज करना का मौका उसके बनारस में मिला है।

अखिलेश यादव को भी पता है कि इस तरह के आयोजनों का असर मतदाताओं के दिमाग पर पड़ता है। हिन्दू धार्मिकता का चैंपियन खुद को बताकर भाजपा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन कर सकती है। इसलिए अखिलेश यादव भी इस कॉरिडोर का श्रेय लेने के लिए मैदान में कूद पड़े हैं। वे कह रहे हैं कि इस कॉरिडोर की परिकल्पना उनकी सरकार के समय में हुई थी और उसके लिए उन्होंने अनुमति भी प्रदान कर दी थी। सरकार बदल जाने के कारण वे आगे कुछ कर नहीं पाए। अब वह कह रहे हैं कि भारतीय जनता पार्टी की योगी सरकार ने उनके ही द्वारा शुरू किए गए कार्य को आगे बढ़ाया है, इसलिए इस कॉरिडोर के श्रेय के असली हकदार वे खुद हैं न कि योगी और मोदी। इसके पहले पूर्वाचल एक्सप्रेसवे के उद्घाटन के समय भी उन्होंने इसी तरह की बात की थी। वे अपनी बातों के समर्थन में दस्तावेजी सबूत भी जारी कर रहे हैं।

जाहिर है कि अखिलेश के दावों के कारण भारतीय जनता पार्टी हिन्दू हितों की एक मात्र अलंबरदार पार्टी अपने को बनाने में विफल हो गई है। अखिलेश के दावों का उसके पास कोई जवाब नहीं। बस वह यही कह रही है कि पहले उन्होनं काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के बारे में लोगों को क्यो नहीं बताया?

यानी इस कॉरिडोर पर हिन्दू बनाम हिन्दू की लड़ाई चल रही है। यह लड़ाई हमें लोहिया की पुस्तक ‘हिन्दू बनाम हिन्दू’ की याद दिला देता है, जिसके अनुसार भारत में हजारों साल से हिन्दू बनाम हिन्दू का संघर्ष चल रहा है और आने वाले दिनों में भी यह संघर्ष चलता रहेगा। (संवाद)