किसानों पर धरने के दौरान असंख्य आपराधिक धाराएं लगाना इसी का द्योतक है। इसके अलावा भी हर तरह के उपाय अपनाएं गए, ताकि पूरे आंदोलन को कुचला जा सके। उन्होंने किसानों को झुकाने के हर हथकंडे अपनाए, पर हर कोशिश बेकार गई। यह तेरह महीनों का किसानों का धरना जनवाद को बचाने के लिये प्रशिक्षण शिविर का काम कर रहा था, सिर्फ किसानों के लिये ही नहीं, इस आंदोलन के विशाल समर्थन पक्ष के लिये भी, जिनमें शामिल थे नौजवान, छात्र, मजदूर, शिक्षक, महिलाएं और प्रायः अन्य सभी जो उसी तत्परता के साथ किसानों के समर्थन में धरने से जुड़े थे यह उनके उद्देश्य के प्रति प्रतिब(ता ही थी जिसने दिल्ली की कड़ाके की ठंड में ठंडे पानी की बौछार, झुलसाने वाली गर्मी और धूप और इन सबके ऊपर कोरोना की महामारी का भी सामना करने की ताकत दी। इन सारी विपत्तियों को एकजुट होकर उन्होंने झेला। नवजात शिशुओं ओर बुजुर्गों को साथ लेकर भी वह चलते रहे, अड़िग। उनके सैंकड़ों साथी ज्यादतियों के शिकार होकर शहीद हो गए, पर धरना चलता रहा। गांवों से खाना आता रहा, किसी ने यह नहीं पूछा कि यह किस घर से आ रहा है, दलित, अल्पसंख्यक या अन्य। सिलसिला चलता रहा, धर्मनिरेपक्षता और मानवता की ताकत पर।

जैसे ही धरने की शर्तों पर सरकार से समझौता हुआ, संयुक्त किसान मोर्चे ने कैराना में 12 सितंबर को महापंचायत की, जिसमें कहा गया स्पष्ट शब्दों में कि सरकार अगर अपने समाज को बांटने का रवैया नहीं बदलेगी, तो उसे गद्दी छोड़नी पड़ेगी। संयुक्त किसान मोर्चे के प्रवक्ता ने घोषणा की कि वे इसलिये नहीं जनता से संवाद कर रहे हैं कि उन्हें बताए कि किसे वोट देना है। वे तो यहां सरकार को उसके दिये गए वचनों को पूरा करने के लिये कहने के लिये इकट्ठा हुए थे। महापंचायत में इकट्ठा हजारों किसानों को वे जब संबोधित कर रहे थे तो उनके सारे उद्देश्य पूरी स्पष्टता से सामने रख रहे थे। न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिये उन्होंने कहा कि यह इस आंदोलन की एक विजय भी थी कि आज एमएसपी की चर्चा हर घर में हो रही है। यह एक यथार्थ है कि जिन कृषि कानूनों को भयानक निष्ठुरता के साथ, जनवाद की हर सीमा पार करते हुए किसानों पर लादा गया था, उन्हें प्रधानमंत्री ने एक झटके में वापस कैसे ले लिया, यह अब तक एक अनजाना सत्य है। जब लॉकडाउन था, तो इन्हीं शर्तों को ऑर्डिनेन्स के रूप में लिया गया। बाद में जब संसद सत्र चालू हुआ तो बिना किसी बहस के इन्हें कानून के रूप में पारित कर लिया गया। किसानों ने इन्हें मानने से इंकार कर दिया और यह आंदोलन पूरे देश में आग की तरह फैल गया, तो ये सारे किसान एक होकर दिल्ली आ गए। इन्हें सीमा पर रोक दिया गया। इनके आने की राह में बड़ी-बड़ी खाइयां खोदी गई, भयानक कीलें ठोकी गई ताकि कोई गाड़ी न चल सके। पर किसान रातभर चलकर, हर संकट में अडिग आगे बढ़ते गए और जब सीमा पार करने की अनुमति नहीं मिली तो वे वहीं डेरा डालकर धरने पर बैठ गए, हजारों की संख्या में जिसमें शामिल होने के लिये सारे देश से किसान आ रहे थे, यह क्रम अंत तक चलता रहा। इस सबके बावजूद प्रधानमंत्री ने उनसे मिलने से भी इंकार कर दिया। संवाद शुरू हुआ, चला भी, लेकिन एक पक्षीय। सरकार किसी भी मांग पर राजी नहीं थी। और अब, बिना संसद की राय लिये, सरकार ने तीनों कानून वापस ले लिए। एमएसपी और अन्य मांगों पर कमिटी गठित कर विचार करने का वादा किया।

वास्तव में न्यूनतम समर्थन मूल्य या एमएसपी एक ऐसा कदम है जो फसल की न्यूनतम कीमत तय कर देता है, जिससे नीचे यह जा नहीं सकती, और इस तरह कॉरपोरेटों की लूट पर बंदिश लग जाती है। इन सारे मसलों पर, जो वापस किए गए कानूनों में शामिल भी नहीं थे, कमिटि विचार करेगी और पूरे देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करेगी। इस कदम से किसानों की फसल की लगातार गिरती हुई कीमतों की गिरावट रूक जाएगी, कॉरपोरेट उसे, कौड़ियों के दाम पर खरीद कर उपभोक्ता से मुंहमांगी कीमत पर नहीं बेच पाएंगे। उन्हें किसानों से तय की हुई कीमतों पर ही फसल खरीदना पड़ेगा। कीमतों का गिरना रूक जाता है, इसमें स्थायित्व आता है।

अभी तक तो नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट ;एनएफसीएद्ध की जरूरतों के हिसाब से ही सरकार किसानों से उतनी ही खरीदारी करती है, बावजूद न्यूनतम समर्थन मूल्य की लगातार चलती मांगों के, जो कम से कम तेइस फसलों पर लागू होती है, सिर्फ दो ही अनाज-गेहूं और चावल ही अब तक एनएफसीए के लिये खरीदा जाता था, अन्य फसलें कौड़ियों के भाव ही बिकती थीं। इसलिये आज किसान एमएसपी को कानूनी दर्जा देने की मांग कर रहे हैं। 2014 और 2015 में किसान फसलों की गिरती कीमतों के शिकार हो चुके हैं। खेती में लगने वाली विभिन्न चीजों की जरूरत पूरा करने में उन्हें भयानक संकट का सामना करना पड़ा, क्योंकि कीमतें आसमान छू रही थीं और फसल बिकने की स्थिति में उन्हें कौड़ियों का भाव मिल रहा था, लागत से काफी कम। ऊपर से जीएसटी और नोटबंदी ;डिमनिटाइजेशनद्ध की विपत्ति। इन सबसे कृषि व्यवस्था ध्वस्त होने की कगार पर आ गई, उसे फिर से खड़ा करना असंभव-सा हो गया। यह कृषि में गैर कृषिजन्य संकट सिर्फ ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ही नहीं तोड़ रहा था, बल्कि पूरे कृषि क्षेत्र के लिये यह एक ध्वंसकारी परिस्थिति थी। हर दरवाजे बंद हो रहे थे, अंधकार फैलता जा रहा था,इसी हालत में 2016-17 में मंदी आ गई, और महामारी का दौर भी शुरू हो गया। किसान पूरी तरह लुट जाने के हाल में पहुंच गए। कृषि में होने वाली आय निम्नतम स्तर तक तो पहुंच ही चुकी थी, ऊपर से रोजगार का लगातार घटना एक बड़ी समस्या था। संकट का विस्तार हर पहलू में था। जीने के साधन पहुंच से बाहर हो रहे थे। आज कृषि में लगने वाली हर चीज, डीजल, पेट्रोल, बिजली, खाद की कीमतें ऊंचाइयों को छू रही हैं। इन सबका समाधान भी दूर होता जा रहा है। (संवाद)