इसके सिलसिले में जॉन शेरमन, जो अमेरिकन सीनेटर थे और जिन्होंने 1890 में एंटी-ट्रस्ट एक्ट पास करवाया था, के अनुसार आज जनता को एक महाराजा नहीं चाहिए क्यांकि आज उत्पादन का, यातायात का, बाजार का कोई राजा नहीं हो सकता और इसीलिए जो सत्ता के नजदीक होते जा रहे हैं और जो उसे चुनौती दे रहे हैं उन्हें काबू में लाने की कोशिश की जा रही है। चीन के अलीबाबा का उदाहरण हमारे सामने है जिसमें मोनोपोली रेस्ट्रिक्टिव कदम उठाया गया था। अमेरिका में ए.टी. एंड टी और स्टैंडर्ड ऑयल के संदर्भ में भी इसका प्रयोग किया गया था। अभी हाल में माइक्रोसॉफ्ट और क्वालकॉम पर शेरमन एंटीट्रस्ट एक्ट का उल्लंघन करने के लिए कार्रवाई की गई। ये कदम कारपोरेट के हाथों में निरंकुश शक्तियां इकट्ठा न होने देने के लिए उठाए गए थे। कारपोरेट व्यवहार उत्पादन-विरोधी, निवेश-विरोधी और स्वयं पूंजीवाद-विरोधी है। हमारे अपने देश में 1969 में इजारेदार एवं हानिकारक व्यापार निरोधक एक्ट ;एम.आर.टी.पी. एक्ट लाया गया ताकि अर्थव्यवस्था में इजारेदारी रोकी जा सके।
2002 में अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एम.आर.टी.पी. एक्ट की जगह कम्पीटिशन यानी प्रतियोगिता एक्ट लागू किया गया जो उसका ढीला-ढाला रूप है। इसके फलस्वरूप अम्बानी और अडाणी जैसे विशालकाय वित्तीय इजारेदार पैदा हो गए हैं। इसके बावजूद एमआरटीपी कानून भारत का पहला ऐसा विधान था जो इजोरदारों पर उनके अवैधानिक कारोबार पर अंकुश लगाता था। आज जनतांत्रिक आदर्शों के ठीक विपरीत हम एक राजा को बढ़ावा दे रहे हैं जो न ही सिर्फ राजनैतिक शक्ति रखता है बल्कि पूरी व्यवस्था अर्थात अर्थव्यवस्था को काबू में लाने की कोशिश करता है। यह अदृश्य शासक नहीं है। वह खुलेआम आजादी की सारी राहें बंद कर दे रहा है। उनके लिए जिस जनता से वे हैं और जिस जनता के लिए हैं, हालांकि चुने हुए शासक वे जनता द्वारा ही हैं। फिर भी वे जनता के ऊपर एक नए वर्ग के रूप में हावी होते जा रहे हैं। उन्होंने हमारे सार्वजनिक क्षेत्र को, लघु और मध्यम उद्यमों को, बैंकों को और अब बड़े-बड़े सार्वजनिक उद्यमों को कब्जे में लेना शुरू कर दिया है। इस तरह वे एक नई शुरूआत कर रहे हैं जो न तो शुद्ध पूंजीवाद हैं क्योंकि यह निवेश नहीं करता है और न ही उन्हें बहुवाद की आवश्यकता होती है। सारे निर्णय एकतरफा होते हैं जिसके बहुतेरे उदाहरण हैं। अभी हाल में तीन कृषि कानून पास किए गए थे और तेरह महीनों बाद उसी तरह वापस भी ले लिए गए थे। सरकार एम.एस.पी. पर चुप्पी साधे हुए है। उन्हें सिर्फ चुनाव की चिंता सता रही है जबकि उन्होंने संसद को जनता की शक्ति के रूप में सक्रिय नहीं होने दिया। उन्होंने अपने वर्ग-स्वार्थ को सर्वोपरि रखा। यह वर्ग स्वार्थ व्यवस्था के वित्तीयकरण का था।
सरकार द्वारा उठाए गए मौद्रीकरण के कदमों में यह बात झलकती है। यह सार्वजनिक क्षेत्र पर चोट है। पिछले सात दशकों में बहुत सारे भारी उद्योगों का निर्माण देश की जरूरतें पूरा करने के लिए किया गया जिनमें इस्पात, तेल, कोयला, बिजली इत्यादि उद्योग शामिल हैं। यातायात के लिए सड़कें बनाई गई, ईंधन के तेल-शोधक कारखाने बनाए गए। ये सभी कदम देश की आधारभूत संरचना मजबूत करने और जनता की बुनियादी जरूरतों को पूरा करते हुए अर्थव्यवस्था सुदृढ़ करने के लिए उठाए गए थे।
औद्योगिक विकास की बुनियाद जनता के पैसों से खड़ी की गई। विशाल जनता के टैक्स के पैसों से ऊर्जा, स्वास्थ्य-सेवा, शिक्षा, तथा अन्य क्षेत्रों का विकास किया गया। उन्हें बेचने का अर्थ है पूरी अर्थव्यवस्था ध्वस्त करना।
यह यहीं नहीं रूकता। प्रत्येक बिक्री के साथ सरकार पूरा रेवेन्यू हड़पने का इरादा रखती है। साम्राज्यवाद आज बड़े पैमाने पर उन्हीं उत्पादक क्षमताओं पर प्रहार कर रहा है जिस पर वह जीवित है। अब तक पूंजीवाद ने मजदूरों और किसानों का शोषण किया है। 20वीं सदी के अंत और 21वीं सदी के आरंभ से वित्तीय पूंजी अब छोटे और मध्यम तथा अन्य उत्पादक पूंजी पर आक्रमण कर रहा है।
वित्त पूंजी स्वयं उस उत्पादन पद्धति के खिलाफ जा रहा है जिसने उसे पैदा किया। आज का पूंजीवाद दो हिस्सां में बंट चुका है। यह समकालीन पूंजीवाद में संकट का केंद्र है। इससे समाज में जनतांत्रिक परिवर्तन, उनके संघर्षों के नये आयाम निर्मित होते हैं। (संवाद)
पूंजीवाद का बदलता चेहरा
आज का पूंजीवाद दो हिस्सों में बंट चुका है
कृष्णा झा - 2022-01-08 09:31
यह घुमक्कड़ी नहीं है जिसके आकर्षण में लोग भटकते रहते हैं। आज यह आकर्षण मजबूरी बन गई है। यह मजबूरी भूख की है जिससे निजात पाना मुश्किल है। कुछ समय पहले ये मजदूर जो नौकरी से निकाले हुए थे और सड़क पर उतर आए थे, महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों के साथ ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलते हुए ये वहां पहुंचना चाहते थे जहां रोटी थी। भूख का मंजर अभी खत्म नहीं हुआ है। नौकरियां कम से कम होती जा रही हैं, अवसर सीमित हैं और योग्यता के अनुसार तो बिल्कुल नहीं। कोई बिजनेस मैंनेजमेंट कर चुका है लेकिन माली की नौकरी में जा रहा है और जिसने पी.एच.डी. की, वह स्कूल में पियन ;चपरासी है। व्यवस्था कुशलता को अपनाने से इंकार करती है। बेरोजगारी दर दिसंबर 2014 में ही सी.एमआई.ई. के अनुसार 7.91 फीसदी पर पहुंच चुकी है। यह महामंदी के दिनों से भी अधिक है लेकिन इन स्थितियों में भी धनी और भी धनी बनते जा रहे हैं। वे लगातार अधिकाधिक धनी होते जा रहे हैं।