दलबदल भारतीय लोकतंत्र पर एक बदनुमा दाग बन चुका है। वैसे लोकतंत्र में दलबदल कोई असामान्य बात नहीं होनी चाहिए। यदि कोई पार्टी अपनी विचारधारा से भटके तो उससे नाराज लोग बद बदलें, तो इसमें कुछ बुरा नहीं, लेकिन भारतीय लोकतंत्र में हमने देखा है कि लगभग सभी दलबदल निजी तुच्छ स्वार्थो के कारण ही होते हैं। हरियाणा विधानसभा के एक विधायक ने तो बदलबदल की एक ऐसी परिपार्टी शुरू कर दी कि ‘आयाराम, गयाराम’ एक मुहावरा ही हो गया।

दरअसल उस विधायक का नाम गयाराम था। विधानसभा में अस्थिरता थी और माननीय गयाराम ने एक दिन में ही कई बार पार्टियां बदली। वे 8 बजे किसी एक पार्टी में थे, तो 10 बजे किसी और पार्टी में होने की घोषणा कर दी। 2 बजे उन्होंने बताया कि उन्होंने फिर पार्टी बदल ली और शाम होते होते वे किसी अन्य पार्टी में शामिल दिखे। हरियाणा में उस समय पार्टियों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं थी, लेकिन कुछ सीमित पार्टियों में ही एक से दूसरे और दूसरे से फिर पहले वाली पार्टी में विचरने से उनको नहीं रोका जा सकता था। इसलिए माननीय गयाराम ने एक नये मुहावरे का इजाद कर दिया और तब से ‘आयाराम, गयाराम’ भारत के राजनैतिक विश्लेषकों का एक प्रमुख जुमला बन गया है।

1967 के विधानसभा चुनावों में अनेक राज्यों की विधानसभाएं त्रिशंकु हो गई थीं। किसी भी पार्टी को उन राज्यों की विधानसभाओं में बहुमत नहीं मिला था। इसलिए संयुक्त विधायक दल (संविद) सरकारें बनीं और उसी दौरान दलबदल को नये आयाम मिले। 1980 के दशक तक आते आते यह एक भयानक रोग का रूप ले चुका था। ये दलबदल ज्यादातर चुने हुए सांसदों और विधायकों के बीच में लोकप्रिय हो रहा था। उनके दलबदल से सरकारें गिरती और बनती थीं। जाहिर है राजनैतिक अस्थिरता का माहौल पैदा होता था। इस माहौल को समाप्त करने के लिए राजीव गांधी सरकार के 1980 के दशक के मध्य में एक दलबदल कानून बनाया, जिसके तहत यह निश्चित कर दिया गया कि विधायक दल या संसदीय दल के एक तिहाई सदस्य ही दलबदल कर सकते है। उससे कम सदस्य ने दबबदल किया, तो उनकी सदस्यता समाप्त कर दी जाएगी।

लेकिन उससे भी समस्या पैदा होती थी। यदि विधायक दल मे बहुत कम सदस्य हों, तो एक तिहाई सदस्यों का जुटान करना मुश्किल काम नहीं था। ऐसे भी मौके आए, जब एक ही सदस्य अपने संसदीय या विधायक दल का दो तिहाई हो जाता था। 1985 में दलबदल कानून बनने के बाद ही एक दलबदल हुआ और वह भी सिर्फ एक सांसद के द्वारा। चौधरी चरण सिंह की पार्टी को लोकसभा चुनाव में मात्र तीन सीटें मिली थीं। उनके एक सांसद विजय कुमार मिश्र थे। उन्होंने चौधरी साहब की पार्टी छोड़ कांग्रेस का दामन थाम लिया। चूंकि तीन ही सांसद थे और एक सांसद एक तिहाई हो जाता थ, इसलिए वे दलबदल कानून से बच गए।

उसके बाद भी दलबदल कानून की धज्जियां उड़ती रहीं और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के कार्यकाल में उसे थोड़ा और कठोर बना दिया गया। उसके बाद से दलबदल के लिए दो तिहाई सदस्य चाहिए। विधायकों और सांसदों द्वारा किए जाने वाले दलबदल को रोकने की व्यवस्था तो मजबूत हो गई है और अब ऐसा करने वालों को विधानसभा या संसद से इस्तीफा देना पड़ता है। पर इस बीच चुनाव के पहले होने वाले दलबदल की घटनाओं की बाढ़ आ गई है।

जैसे ही चुनाव नजदीक आते हैं, दलबदल का दौर शुरू हो जाता है। पार्टियां दूसरे दलों के उन विधायकों, सांसदों और अन्य नेताओं को आमंत्रित करने लगती हैं, जो उनकी चुनावी जीत की संभावना को बेहतर बना सकें और वे सांसद विधायक भी उन दलों की ओर बढ़ते हैं, जहां उन्हें जीत की संभावना ज्यादा लगती हैं। यह नामांकन पत्र दाखिल करने के दिन तक होता रहता है। कोई व्यक्ति निवर्तमान विधानसभा में कांग्रेस का सदस्य है, लेकिन वह चुनाव भारतीय जनता पार्टी के टिकट से लड़ रहा होता है। अगर ऐसा वाकया एक या दो हो, तो फिर भी यह चल सकता है, लेकिन इस तरह के वाकये बहुत ज्यादा होने लगे हैं और इससे देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया बदसूरत होती है और दलीय व्यवस्था पर भारी आघात होता है। जिस पार्टी में दलबदलू प्रवेश करता है, उसके सदस्यों के साथ भी अन्याय होता है। पार्टी टिकट तो पार्टी कार्यकर्त्ताओं को मिलना चाहिए, लेकिन बाहरी आदमी आता है और टिकट को झपट लेता है।

इस तरह के बाकये को रोका जा सकता है। या तो इसके लिए कानून बने या भारत का निर्वाचन आयोग खुद अपनी ताकत का इस्तेमाल करके यह व्यवस्था बनाए कि वह पार्टी का सिंबॉल पार्टी के उसी सदस्य को देगा, जो कम से कम पिछले 6 महीने से पार्टी का सदस्य रहा हो। नामांकन करने वाले उम्मीदवार से यह हलफनामा लिखाया जाना चाहिए कि वह वह 6 महीने से ज्यादा से पार्टी का सदस्य है। नवनिर्मित पार्टी पर इसे लागू नहीं किया जाय। यदि ऐसा किया जाता है, तो इससे लोकतंत्र थोड़ा और मजबूत होगा और दलीय व्यवस्था भी मजबूत होगी। (संवाद)