Sat 28 of Jul, 2007
__भारत – अमेरिकी नाभिकीय समझौता
चुगली खाते हैं भारत और अमेरिकी अधिकारियों के बयान__
भारत – अमेरिकी नाभिकीय समझौते के प्रारुप को दोनों देशों के अधिकारियों ने अंतिम रुप दे दिया है। भारत के परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष अनिल काकोदकर, जो कल तक इस समझौते को भारत के लिए नुकसानदेह बता रहे थे, अचानक बदल गये और कहने लग गये हैं कि वे अंतिम प्रारुप से संतुष्ट हैं। लगे हाथ जो बयान उन्होंने दिये और जो बयान राजनीतिक मामलों के अमेरिकी विदेश अवर सचिव निकोलास बर्नस ने दिये उनसे लगता है कि कोई बड़ा खेल हो गया है।
दुनिया का इतिहास गवाह है कि जब किसी विरोधी को समर्थन करने के लिए विवश कर दिया जाता है तब भी वह कुछ ऐसी बातें बोल जाता है कि जनता को संकेत मिल जाये और फिर उसे जो करना हो वह करे। संभवत: काकोदकर के मामले में भी ऐसा ही हुआ है। उनसे कल जो पत्रकार सम्मेलन करवाया गया उसमें जब उनसे पूछा गया कि क्या वे वर्तमान समझौता प्रारुप से संतुष्ट हैं, तो उन्होंने कहा हां। लेकिन फिर जब प्रतिप्रश्न किया गया तो जवाब था, “मैं इसे अपने नाभिकीय कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के दृष्टिकोण से संतोषजनक कहना चाहूंगा।” परन्तु फिर एक बार जब पुरानी बात याद दिलाते हुए उनको कुरेदा गया तो वह बोले, “पहले मैंने जो भी कहा था वह ‘राष्ट्रीय दृष्टिकोण’ (नेशनल पॉजिशन) का एक अंग था। जो मैं अब कह रहा हूं वह ‘नेशनल पॉजिशन’ है।”
बात साफ है। जब भारत सरकार ने किसी विशेष प्रकार का समझौता करना तय ही कर लिया जिसके वह सेवक हैं, तब वह सरकार के साथ हां में हां मिलाने से अलग कर भी क्या सकते हैं। यही नेशनल पॉजिशन है, मतलब यही सरकार का निर्णय है। लेकिन इसके पहले उन्हें लगा होगा कि वह सरकारी सेवक नहीं बल्कि लोक सेवक हैं, तब उन्होंने साफ कह दिया था कि समझौता भारत के लिए अहितकर है।
कल ही अनेक अधिकारियों के बयान आये, भारत की ओर से भी और अमेरिका कि ओर से भी। भारत की ओर से दिये गये बयान में कहा गया कि समझौते का प्रारुप भारत के हितों के अनुरुप है और अमेरिकी अधिकारियों की ओर से दिये गये बयान में कहा गया कि यह दोनों देशों के संयुक्त बयानों के अनुरुप है। लेकिन समझौते का प्ररुप अभी गुप्त रखा गया है और जनता के विश्लेषण से भी उसे काफी दूर रखा गया है। उम्मीद की जा रही है कि समझौते पर दोनों देशों के हस्ताक्षर हो जाने के बाद कुछ बातें रिसकर बाहर जनता के समक्ष आयें।
अबतक जो बातें सार्वजनिक हुई हैं उससे निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जो कहा जा रहा है और जो लिखित है उसमें काफी अंतर है। अमेरिकी संसद में पारित कानून एक सार्वजनिक दस्तावेज है जिसमें अमेरिका क्या चाहता है यह स्पष्ट है। कल ही निकोलास बर्न्स ने कहा है कि अमेरिका को यह अधिकार है कि वह परमाणु ऊर्जा अधिनियम के तहत भारत से नाभिकीय इंधन और प्रद्योगिकी वापस मांग सकता है यदि भारत ने भविष्य में कभी परमाणु बम का परीक्षण किया। लेकिन उन्होंने साथ में यह भी कहा कि उन्हें उम्मीद है कि ऐसी स्थिति नहीं आयेगी।
इधर भारतीय अधिकारियों के बयानों को देखिये। प्रधान मंत्री के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम के नारायणन, विदेश सचिव शिवशंकर मेनन और परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष अनिल काकोदकर ने यहां नयी दिल्ली में पत्रकारों से कहा कि यह ऐतिहासिक समझौता है और 18 जुलाई 2005 तथा 2 मार्च 2006 को जारी भारत – अमेरिकी संयुक्त बयानों के अनुरुप है। उन्होंने बताया कि भारत के पास अपने नाभिकीय कार्यक्रम को चलाने का पूरा अधिकार सुरक्षित है। एक सवाल के जवाब में नारायणन ने तो विभ्रम भी फैलाने की कोशिश की और कहा कि समय आ गया है कि कुछ देश विशेष यह कहना छोड़ें कि भारत और अधिक परमाणु बम बनाने के लिए यह समझौता कर रहा है।
इस पूरे विभ्रम के माहौल में जो बातें बतायी नहीं जा रही हैं वे हैं – पहला, अब से भारत का नाभिकीय कार्यक्रम क्या होगा और दूसरा, अमेरिका मौखिक तौर पर जो बातें कह रहा है वह उसके कानून में लिखी बातों से अलग क्यों है जिसके तहत वह भारत की बांहें मरोड़ सकता है।
यदि यह समझौता हो गया और अमेरिकी कानून में बिना परिवर्तन किये तो उसके अर्थ क्या होंगे? अब से भारत का परमाणु कार्यक्रम क्या होगा? अमेरिका किस हद तक भारत को अपने अधीन रखने में कामयाब हो सकेगा? ये सवाल जवाब मांगते हैं।
अब तक कि स्थिति के अनुसार भारत का संभावित नाभिकीय कार्यक्रम समझौते के लागू होने पर इस प्रकार का होगा।
भारत के पास थोरियम का विशाल भंडार है जिसके सहारे वह नाभिकीय कार्यक्रम अपने दम पर चला सकता था। अब से भारत ऐसा नहीं करेगा और अमेरिका तथा अन्य देशों से यूरेनियम और अन्य नाभिकीय साजो - सामान खरीदकर काम करेगा। ध्यान रहे कि भारत में यूरेनियम का भंडार काफी कम है। थोरियम वाली प्रौद्योगिकी जिसे विकल्प के रुप में हमारे स्वदेशी सोच वाले वैज्ञानिकों और नेतृत्व ने अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद विकसित कर लिया है उसे यह कहकर त्याग दिया जायेगा कि यह पर्यावरण के दृष्टिकोण से घातक है।
परमाणु परीक्षण कर जब भारत ने दुनिया को बता दिया कि इसके पास क्षमता की कमी नहीं है, तब हमारे देश का नेतृत्व भारत की जनता को ही बतायेगा कि उसके पास क्षमता नहीं है और अमेरिका से यूरेनियम और परमाणु उपकरण मंगाने के अलावा कोई विकल्प शेष नहीं है। यदि ऐसा नहीं किया गया तो बिजली की कमी के बिना देश का विकास ठप हो जायेगा।
अब तक जिस भारत ने अपने नाभिकीय प्रतिष्ठानों की सूची तक दुनिया को नहीं दी वह अमेरिका को बता चुका है कि कहां - कहां हमारे नाभिकीय सैन्य और असैन्य प्रतिष्ठान हैं। समझौते के तहत अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा आयोग और अमेरिका को भारत अपने नाभिकीय प्रतिष्ठानों के निरीक्षण का अधिकार देगा। अब तक की हमारी सोच थी कि हम एक स्वतंत्र देश हैं और हमारा निरीक्षण करने का अधिकार किसी को नहीं है। इसी सोच के तहत हमने परमाणु अप्रसार संधि और इस तरह की किसी भी अंतर्राष्ट्रीय कानून को नहीं माना था और अपनी स्वतंत्रता बरकरार रखी थी। लेकिन अब भारत परमाणु परीक्षण भी नहीं करेगा और निरीक्षण की भी इजाजत देगा। ऐसी स्थिति ला दी जायेगी ताकि भविष्य में भारत की किसी भी सरकार के लिए इसके विपरीत करना संभव नहीं रहेगा।
कुल मिलाकर भारत पूरी तरह अमेरिकी नियंत्रण में होगा, और भारत की स्वतंत्रता की सीमा उसी हद तक रह पायेगी जिस हद तक अमेरिकी नेतृत्वों की इच्छा होगी।
यदि अमेरिकी भावी नेतृत्व सभ्य हुए तो भारत या भारत के लोग अमेरिका, उसके मित्रों और उनके अनुचरों से समान हैसियत से बात भी कर पाने की स्थिति में होंगे, वरना हमेशा इन्हें छोटा बनकर ही बात करना होगा। अमेरिका ने डेमोक्लिज की तलवार हमारे सिर पर पतले धागे से लटका भी रखी है और हमसे हाथ मिलाते हुए चिकनी चुपड़ी बातें भी कर रहा है। उसकी प्रेमपूर्ण बातों में भी धमकी छिपी होती है।
सवाल उठता है कि हमारे प्रधान मंत्री डा. मनमोहन सिंह, शासक दल की नेता सोनिया गांधी और उनकी समर्थक और सहयोगी राजनीतिक पार्टियां आखिर भारत को ऐसी स्थिति में क्यों ढकेल रहे हैं ? देश में एक ऐसा माहौल बन गया है जिसमें “धन कमाओ, और मौज करो, नैतिकता में क्या रखा है” वाली नस्ल के लोगों का भारी समर्थन भी सत्ता पक्ष को मिल रहा है। जनहित की नीतियों और सिद्धांतों पर चलने वाले हाशिये पर धकेल दिये गये हैं और धकेले जा रहे हैं। ये ताकतें उन सभी नीतियों और सिद्धांतो को सही ठहरा रहे हैं जो जनविरोधी और राष्ट्रविरोधी हैं। #
ज्ञान पाठक के अभिलेखागार से
प्रधान मंत्री ने डलवायी नकेल
System Administrator - 2007-10-20 07:26
भारत के परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष अनिल काकोदकर, जो कल तक इस समझौते को भारत के लिए नुकसानदेह बता रहे थे, अचानक बदल गये और कहने लग गये हैं कि वे अंतिम प्रारुप से संतुष्ट हैं।