हालांकि थाईलैंड का यह रक्तरंजित संकट किसी दृष्टि से अप्रत्याशित या आश्चर्य की घटना नहीं थी। दक्षिण पूर्व एषिया की राजनीतिक संस्कृति ने अभी तक वैसे तो शुद्ध पश्चिमी मॉडल वाले लोकतंत्र के साथ स्वयं को एकाकार नहीं किया है। उस क्षेत्र की राजनीतिक, सामाजिक सोच पर अध्ययन करने वाले मानते हैं कि समाज के अंदर किसी एक शीर्ष प्रतीक के प्रति समर्पण का संस्कार विद्यमान है। थाईलैंड ही नहीं, ज्यादातर देश में आप इस प्रतीक की महिमामंडित उपस्थिति देख सकते हैं। बावजूद इसके समय-समय पर विद्रोह, भले वे किसी रुप में हों, सामने आता रहा है। हम यदि बाहरी दुनिया के नजरिए से देखेंगे तो यह मानने में कोई हिचक नहीं होगी कि थाईलैंड आर्थिक रुप से भले स्थिर एवं मजबूत देश माना जाए, उसकी राजनीतिक प्रणाली डांवाडोल है। वर्तमान सम्राट की उम्र 83 वर्ष है और 63 वर्षों के अपने कार्यकाल में इन्होंने 15 से ज्यादा विद्रोहों का सामना किया है, 16 बार संविधान तथा 27 बार प्रधानमंत्री बदले हैं। हां, मौजूदा विद्रोह थोड़ा अलग प्रकार का अवष्य था। बेशक, विद्रोह की जड़ पूर्व निर्वासित प्रधानमंत्री थाकसिन शिनावात्रा की सरकार भंग करने की घटना में निहित है। इनमें बड़ी संख्या थाकसिन शिनावात्रा के समर्थकों की है, और रेड शर्ट्स यानी लाल कमीज वालों का यह आंदोलन, शिनावात्रा के प्रति निष्ठा की भावना से पैदा भी हुई। शिनावात्रा का धन इस आंदोलन का मुख्य वित्तपोषण भी था, लेकिन यह अब इससे आगे निकल चुका था।

यह विद्रोह मूलतः देहाती गरीबों का था, जिनके पीछे कम्युनिस्ट विचारधारा और संघर्ष का प्रशिक्षण है। इन्होंने अपने मोर्चे को नाम दिया, युनाइटेड फ्रंट फॉर डेमोक्रेसी अगेन्स्ट डिक्टेटरषीप। ये सरकार को ज्यादा प्रतिनिधिमूलक बनाने के साथ देश का बहुमत मतदाता होने के कारण स्वयं का उचित प्रतिनिधित्व मांग रहे थे। देश के उत्तर और उत्तर पूर्व में इनकी ही बहुतायत है। कुल मिलाकर यह संघर्ष अत्यधिक प्रतिनिधित्व वाले लोकतंत्र की स्थापना की मांग में परिणत हो चुका था। इस कारण आंदोलन में शहरी छात्र युचा एवं मध्यमवर्गीय एलिट वर्ग भी जुड़ रहा था। ये वर्तमान सरकार को अवैध कह रहे थें, क्योंकि इनकी नजर में इस सरकार ने कोई चुनाव नहीं जीता एवं शिनावात्रा की थाई रैक थाई पार्टी यानी जिसका अर्थ है थाई थाई से प्यार करते हैं, पर चुनावी धोखाधड़ी का आरोप लगाकर भंग किया एवं संसद से बाहर कर दिया गया। सेना, नौकरशाही एवं संपत्तिवान के साथ आम नागरिकों का वर्ग भी इस आंदोलन के विरुद्ध हैं। 2008 में थाकसिन की सरकार भंग करने वाला येल्लोशर्ट यानी पीली कमीज संगठन लाल कमीज वालों के विरुद्ध ही बना था। इसे पीपुल्स एलाएंस फॉर डेमोक्रेसी कहते हैं। ये सत्तारुढ़ वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। थाईलैंड के सम्राट का रंग भी पीला है और इस कारण इन्हें सम्राट के साथ जोड़कर देखा जाता है। किंतु आश्चर्यजनक रुप से इस बार के संघर्ष में ये दिखाई नहीं पडे।

अभिसित पर इस विद्रोह के अंत का दबाव था और उन्होंने अंततः सैन्य कार्रवाई से लाल कमीज के मोर्चे को तोड़ दिया एवं विद्रोहियों की धड़-पकड़ हो रही है। इसके पूर्व विद्रोहियों द्वारा संयुक्त राष्ट्रसंघ की मध्यस्थता में बातचीत का प्रस्ताव अभिसित ठुकरा चुके थे। अंतरराष्ट्रीय संकट समूह (इंटरनेशलन क्राइसिस ग्रूप) ने भी बाहरी मध्यस्थता, विद्रोहों का अंत एवं चुनाव आयोजित करने के लिए राष्ट्रीय सरकार के गठन का सुझाव दिया था। पर सरकार के प्रवक्ता ने साफ कर दिया था कि किसी बाहरी देश, संस्था या व्यक्ति का हस्तक्षेप वह स्वीकार नहीं करेगी। सरकार ने विद्रोहियों को सुरक्षित निकलने का ऑफर दिया था, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया था। हालांकि इसके पूर्व प्रधानमंत्री के शांति प्रस्ताव एवं नवंबर में चुनाव कराने के प्रस्तावों से लाल कमीज विद्रोही सहमत दिखे थे, किंतु इन्होंने उप प्रधानमंत्री को गिरफ्तार करने की मांग कर दी जिन्होंने 10 अप्रैल को सेना को विद्रोहियांे के विरुद्ध कार्रवाई का आदेश दिया जिसमें 25 लोग मारे गए। सरकार का कहना है कि 10 अप्रैल को विद्रोहियों ने बाजाब्ता हमला किया और उनका मुकाबला करने के अलावा चारा ही नहीं था। मेजर जनरल खट्टिया सावास्दिपोल पर हमले और उनकी मृत्यु के बाद विद्रोहियों का गुस्सा और बढ़ गया था। सरकार ने मेजर सावास्दिपोल को लाल कमीज वालांे का नेता व सैन्य रणनीतिकार मानकर भगोड़ा घोषित किया था। निस्संदेह, मेजर स्वास्दिपोल की 10 अप्रैल प्रकरण मे भूमिका थी, किंतु उनकी मृत्यु से मामला और बिगड़ने की संभावना पैदा हो रही थी। थाईलैंड चीन या बर्मा नहीं है। थाईलैंड दक्षिण पूर्व एषिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था एवं पर्यटन केन्द्र है। यहां राजनीतिक अस्थिरता का अर्थ दक्षिण पूर्व एशिया की अर्थव्यवस्था एवं पर्यटन का चरमरा जाना होगा। दुनिया इस संकट का अंत चाहती थी। थाईलैंड के संकट का असर दुनिया की अर्थव्यवसथा पर पड़ना निश्चित था। प्रश्न है कि क्या सेना द्वारा विद्रोह को कुचलने एवं विद्रोही नेताआंे के समर्पण के साथ संकट का अंत हो गया?

ऐसा मानना गलत होगा। बेशक, विद्रोहियों ने हिंसा का माहौल बनाकर अपना पक्ष कमजोर किया, किंतु इससे उनकी शिकायतें व मांगे नावाजिब नहीं होतीं। थाइलैंड भी दुनिया के कई देशो की तरह विकास की असमानता के कारण सामाजिक और राजनीतिक असमानता का शिकार है। आखिर इतना उग्र विरोध यूं ही नहीं होता। अगर विरोध के काराण दूर नहीं हुए विद्रोह दूसरे रुप में सामने आ सकता है। निस्संदेह, इस विद्रोह को पेरिस कम्युन नहीं कह सकते, न ही यह माओ का कूच था, लेकिन बैंकॉक की गलियों बांसों एवं टायरों के अवरोधक लगाए डटे पुरुश, महिलाओं और बच्चों के रेड शर्ट को हम क्या कहेंगे? वस्तुतः थाईलैंड की इस धीमी, मद्धिम राजनीतिक संकट की आग के कुछ तो निहितार्थ है, कुछ तो इसका संदेश है और इसकी वर्तमान विफलता के बावजूद इसकी प्रतिध्वनि कुछ न कुछ न तो होगी। थाइलैंड के सम्राट को, वर्तमान सरकार को, सेना को एवं एलिट वर्ग को विद्रोहियों की भावनाओं को समझते हुए लोकतांत्रिक सुधार लाना होगा, अन्यथा विद्रोह किसी न किसी रुप में फिर पनप सकता है। वास्तव में शासन पर काबिज एलिट वर्ग अगर यह मान बैठा था कि बाजार पूंजीवाद क्रांति विचारों के अंकुरन से रहित समय का चक्र है तो ये घटनाएं इसके विपरीत इशारा कर रहीं हैं। दुनिया के लिए इसमंे दूसरे सबक भी अंतर्निहित हैं। पूंजीवाद के भूमंडलीकरण की दुनिया में जिन लोगों ने यह कल्पना की थी कि अब अतीत के संगठित वामपंथी राजनीतिक विद्रोहों की संभावनाएं निःशेश हो गईं या अब कम्युनिस्टों या कम्युनिस्ट प्रतिरुप के विद्रोहों का सामना किसी देश की सत्ता को नहीं करना पड़ेगा, थाईलैंड की घटना के बाद उन्हें अपनी सोच पर पुनिर्वचार करना होगा। (संवाद)