लेकिन सच यह भी है कि नीतीश कुमार पिछले एक साल से ही प्रदेश सरकार द्वारा जाति जनगणना कराने की बात कर रहे हैं और उसके पहले सर्वदलीय बैठक बुलाने की बात कर रहे हैं। लेकिन वे न तो सर्वदलीय बैठक बुला रहे हैं और न ही जाति जनगणना करवा रहे हैं। सर्वदलीय बैठक बुलाने की बात करना ही मामले को टालना है, क्योंकि इसकी अब कोई जरूरत ही नहीं है।
बिहार विधानसभा ने दो बार जाति जनगणना कराए जाने के प्रस्ताव सर्वसहमति से पारित किए हैं। सर्वसम्मति से विधानसभा में प्रस्ताव पारित करने का मतलब है कि सभी दलों की उस पर सहमति है। दूसरी बात यह भी है कि नीतीश कुमार के नेतृत्व में एक सर्वदलीय शिष्टमंडल नरेन्द्र मोदी से जाति जनगणना की मांग कर चुका है। उस मुलाकात में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि केन्द्र सरकार जाति जनगणना नहीं कराएगी और यदि राज्य सरकार खुद करवाती है, तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं।
जाहिर है, किसी सर्वदलीय बैठक की कोई जरूरत नहीं। बिहार के सभी दलों ने जाति जनगणना की सहमति विधानसभा के प्रस्तावों के रूप में और इस मसले पर एक सर्वदलीय शिष्टमंडल में शामिल होकर भी दी है। पर राजनीति में प्रायः जो दिखता है, वह होता नहीं है। केन्द्र सरकार ने तो कह दिया कि राज्य सरकार खुद जाति जनगणना करवा ले और भारतीय जनता पार्टी की बिहार ईकाई ने भी अपनी सहमति दे दी, लेकिन बाद में भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व और संभवतः सरकार स्तर से भी जाति जनगणना का विरोध होने लगा। नीतीश कुमार की राजनैतिक स्थिति कमजोर है, इसलिए भाजपा को नाराज कर जाति जनगणना कराने की हिम्मत भी नहीं कर रहे थे।
लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद बिहार भाजपा के स्थानीय नेताओं ने नीतीश कुमार के खिलाफ जमकर बयानबाजी शुरू कर दी और बयानबाजी का मुख्य जिम्मा बिहार के प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल को दे दिया, जो खुद ओबीसी हैं। संसद में भी केन्द्र सरकार ने जाति जनगणना नहीं कराने की घोषणा करने का दायित्व बिहार के ही एक ओबीसी सांसद मंत्री नित्यानंद राय को दे दिया। जब नीतीश पर भाजपा के लोग हावी होने लगे और अपमानजनक टिप्पणियां तक करने लगे, तो उन्होंने यह संकेत देना शुरू कर दिया कि राष्ट्रीय जनता दल से फिर मेलमिलाप करने का विकल्प भी उनके पास है।
इसके लिए नीतीश ने इफ्तार की राजनीति का सहारा लिया। राबड़ी देवी के घर इफ्तार पार्टी में शामिल हुए। खुद की पार्टी द्वारा आयोजित इफ्तार पार्टी में भी तेजस्वी को न्यौता दिया और वे आए भी। तेज प्रताप यादव ने तो गुप्त फैसले को सार्वजनिक भी कर दिया। उसके बाद भारतीय जनता पार्टी के स्थानीय नेताओं द्वारा नीतीश कुमार के खिलाफ दिए जाने रहे बयान बंद हो गए। एकाएक नीतीश कुमार ने अपना पुराना रुतबा फिर से हासिल कर लिया है। अब स्थानीय भाजपा नेता अगले विधानसभा चुनाव तक बिहार में नीतीश के मुख्यमंत्री बने रहने की बातें करने लगे हैं।
और इस बीच तेजस्वी ने जाति जनगणना के मुद्दे का हवा दे दी है। दरअसल यह लालू यादव की सोची समझी राजनीति है। सबसे पहले लालू यादव ने ही बताया था कि भाजपा नीतीश कुमार को जाति जनगणना नहीं कराने दे रही है। इसलिए भाजपा के साथ नीतीश कुमार इस मसले पर मथफुटौव्वल करे, इससे अच्छा लालू यादव के लिए और क्या हो सकता है। वे एक कहावत का उल्लेख करते थे कि जब दो लड्डु आपस में टकराए, तो उससे बुन्नी झड़ती है। यानी नीतीश कुमार के भाजपा पर हावी होते ही लालू यादव ने तेजस्वी को जाति जनगणना के मुद्दे पर लगा दिया।
वैसे इस बात को लेकर भी संदेह है कि क्या नीतीश कुमार वास्तव में जाति जनगणना चाहते हैं अथवा यह भी उनकी राजनीति का हिस्सा है। बिहार में यादव सबसे अधिक संख्या वाली जाति है। 1931 की जगणना के अनुसार अविभाजित बिहार में यादवों की संख्या कुल आबादी का करीब 12 प्रतिशत था। बिहार से झारखंड के अलग होने के बाद बाकी बचे बिहार में आबादी का यह प्रतिशत और भी बढ़ा होगा, क्योंकि झारखंड में यादवों की संख्या का घनत्व कम है। और फिर 90 साल के दौरान अधिक प्रजनन दर के कारण यादवों की संख्या का हिस्सा कुल आबादी में और बढ़ा होगा। सबसे कंजर्वेटिव अनुमान 14 फीसदी का है और सबसे ज्यादा लिबरल अनुमान 20 फीसदी का है। इसलिए बिहार के यादव तो किसी भी हालत में जाति जनगणना चाहते हैं, ताकि वे अपनी जनसंख्या की ताकत का अंदाजा पूरे प्रदेश को करा सकें।
लेकिन नीतीश कुमार की जाति की आबादी बहुत कम है। वैसे नीतीश कुमार की राजनीति लालू की तरह जाति केन्द्रित नहीं है। वे पिछड़े वर्गो के सबसे ज्यादा लोकप्रिय नेता हैं और यादव जाति को छोड़कर सभी में उनका राजनैतिक आधार है। लेकिन जाति जनगणना के बाद वे ओबीसी जातियां, जिनको अपनी आबादी के अनुसार हिस्सेदारी नहीं मिल रही है, नीतीश कुमार से नाराज हो सकते हैं और वे हिस्सेदारी के लिए दबाव भी बना सकते हैं। यही कारण है कि जाति जनगणना नीतीश के लिए बहुत शुभ नहीं हो सकता है।
भारतीय जनता पार्टी जाति जनगणना के खिलाफ है। बिहार में उसमें जो ओबीसी नेता हैं, वे तो जाति जनगणना चाहते हैं, लेकिन पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व के डर से खुलकर इसका समर्थन नहीं करते। जो अगड़ी जातियों के नेता हैं, वे तो इसके खिलाफ हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि जाति जनगणना के बाद उनकी पूछ समाप्त या कम हो सकती है, क्योंकि ओबीसी जातियां अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए दबाव बढ़ा देगी और पार्टी नेतृत्व चुनाव जीतने के लिए उनके दबाव में आ जाएगा।
मांग, भय और आशंका के इस माहौल में नीतीश कुमार जाति जनगणना की बात कर रहे हैं। वे करवा पाएंगे भी यह नहीं, यह पूरे दावे के साथ नहीं कहा जा सकता, लेकिन तेजस्वी के बढ़ते दबाव के कारण उन्हें शायद मजबूर होना पड़ सकता है। लेकिन सवाल यह भी है कि यदि नीतीश कुमार ऐसा करवाएंगे, तो क्या भारतीय जनता पार्टी चुप रहेगी? भारतीय जनता पार्टी में नरेन्द्र मोदी को तो जाति जनगणना से कोई परेशानी नहीं, क्योंकि वे खुद ओबीसी है, लेकिन अन्य नेताओं को खतरा हो सकता है। राजनैतिक जातीय चेतना ओबीसी जातियों में फैलने के बाद उनकी हिस्सेदारी को बढ़ाना उनकी मजबूरी होगी और इस क्रम में अमितशाह जैसे अगड़ी जातियों का राजनैतिक भविष्य प्रभावित हो सकता है, क्योंकि यदि बिहार में जाति जनगणना हुई, तो देश भर में और अलग अलग राज्यों में भी इस प्रकार की जनगणना कराने की मांग उठेगी। (संवाद)
बिहार में जाति जनगणना
क्या नीतीश गंभीर हैं या सिर्फ कर रहे हैं राजनीति
उपेन्द्र प्रसाद - 2022-05-17 10:31
बिहार की राजनीति में जाति जनगणना का मुद्दा छाया हुआ है। वहां के मीडिया में आ रही खबरें और छप रहे विश्लेषणों के अनुसार प्रदेश में जाति जनगणना होने जा रही है और नीतीश कुमार इसके लिए सर्वदलीय बैठक बुलाने जा रहे हैं। सर्वदलीय बैठक के बाद कैबिनेट की बैठक में जाति जनगणना का निर्णय ले लिया जाएगा। मीडिया को ये बातें खुद नीतीश कुमार ने बताई।