क्वाड भावना से प्रेरित नेताओं ने अपनी राजनीतिक भाषा में, स्पष्ट कारणों से एशिया-प्रशांत क्षेत्र को फिर से हिंद-प्रशांत के रूप में नामित किया है। टोक्यो शिखर बैठक की पृष्ठभूमि में उन्होंने एक नए हिंद-प्रशांत आर्थिक ढांचे का रूप दिया है, इसमें 13 देशों को शामिल किया गया है। इस क्षेत्र के महत्व को कोई भी नजरअंदाज नहीं कर सकता है। भौगोलिक दृष्टि से हिन्द-प्रशांत क्षेत्र 25 प्रतिशत भू-खंड का प्रतिनिधित्व करता है और दुनिया के महासागरों का 65 प्रतिशत इस क्षेत्र में है। दुनिया की आधी से अधिक आबादी हिंद-प्रशांत क्षेत्र में है और यहाँ दुनिया के 68 प्रतिशत युवा रहते हैं। यह क्षेत्र 60 प्रतिशत वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद के साथ वैश्विक आर्थिक विकास में दो तिहाई हिस्से की भागीदारी करता है। आधुनिक दुनिया में इस तरह के एक महत्वपूर्ण क्षेत्र की अपनी सार्थकता है। यह स्वाभाविक है कि क्षेत्र के देश आपसी सहयोग से अपना राजस्व चाहते हैं। यदि वे मानवता को चुनौती देने वाली समस्याओं का सामना करने के लिए ध्यान केंद्रित करते हैं तो उनके सभी संयुक्त प्रयासों का स्वागत किया जाएगा। पूरी दुनिया को जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग जैसे मुद्दों से खतरा है।

पेरिस समझौते के प्रति प्रतिबद्धताओं के बावजूद, जलवायु परिवर्तन पहले से ज्यादा गंभीर हो रहा है। दक्षिण एशिया में ग्लेशियर पिघल रहे हैं और द्वीप देश समुद्र के बढ़ते स्तर के कारण अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे हैं। कोविड-19 के कारण पैदा हुआ खतरा अभी भी दुनिया भर में मंडरा रहा है। बेरोजगारी और गरीबी इस क्षेत्र के साथ-साथ पूरी दुनिया में आबादी के बड़े वर्गों को परेशान कर रही है। इन मौजूदा मुद्दों के समाधान के लिए उपलब्ध संसाधनों को तैनात करने की जरूरत है। क्वाड और हिंद-प्रशांत आर्थिक ढांचे के सामने बुनियादी सवाल है कि अपने कार्यों को समझते हुए उनकी प्राथमिकता तैयार करें। उपलब्ध दस्तावेजों का कहना है कि क्वाड में हुए विचार-विमर्श में हमारे समय की सबसे खतरनाक चुनौतियों पर चर्चा नाममात्र की थी। क्वाड के नेता अपने राजनीतिक और आर्थिक उद्देश्यों पर जोर दे रहे थे। इस बात की पूरी संभावना है कि क्वाड के मंच का उपयोग अमेरिका के भू-राजनीतिक मंसूबों के लिए एक और साधन के रूप में किया जा सकता है। इस वैश्विक खेल में भारत जैसे साझेदार सह-खिलाड़ी बनते दिख रहे हैं।

जब भी दुनिया के किसी भी हिस्से में कोई संघर्ष पैदा होता है, तो अमेरिका अपने साम्राज्यवादी राजनीतिक मंसूबों के साथ इसमें शामिल होने की कोशिश करता है। उनके लिए हर द्वन्द हथियारों की दौड़ के विस्तार का अवसर है। इसलिए बातचीत के रास्तों को कमजोर किया जाता है। यूएनओ जैसे संस्थान काफी कमजोर हो गए हैं। क्षेत्रीय संघर्षों पर टोक्यो शिखर बैठक में भी अमेरिका का यही नजरिया देखने को मिला। जहाँ भारत जैसे साझेदारों ने अलग-अलग स्थिति अपनाई है। वे चीन पर एकमत थे, लेकिन रूस पर नहीं। अमेरिका के लिए किसी भी विदेश नीति की पहल के लिए पेंटागन और सैन्य औद्योगिक परिसर महत्वपूर्ण हैं। यूरोप में वे नाटो के विस्तार की राह पर हैं। एशिया में पहले का एसईएटीओ ;दक्षिण- पूर्व एशियाई संधि संगठनद्ध लगभग सुप्तावस्था में है। क्या अमरीका क्वाड मैत्री का इस्तेमाल इस खाली जगह को भरने के लिए करेगा?

रक्षा सौदे और प्रशांत क्षेत्र में संयुक्त सैन्य अभ्यास क्वाड गठबंधन के इस पहलू की ओर इशारा करते हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के कार्यकारी कार्यालय के अध्यक्ष के एक दस्तावेज में, यह कहा गया है कि चूंकि हम एक निर्णायक दशक में प्रवेश करते हैं जो कि हिंद-प्रशांत के लिए काफी उम्मीदें और ऐतिहासिक बाधाएं रखता है, इस क्षेत्र में अमेरिकी भूमिका पहले से कहीं अधिक प्रभावी और स्थायी होनी चाहिए। भारत के सामने सवाल सीधा, सरल और महत्वपूर्ण है। क्या हमें, आत्मनिर्भर भारत के रूप में, अमेरिकी चाल या विश्व आधिपत्य की योजना में एक आज्ञाकारी भागीदार होना चाहिए? क्या यह भारत के लिए 21वीं सदी का विश्व नेता बनने की मुहिम के लिए फायदेमंद होगा? व्हाइट हाउस द्वारा तैयार की गई हिंद-प्रशांत कार्य योजना में, ‘रुकावट‘ प्रमुख शब्द है। इसका मतलब है सैन्य शक्ति या अमेरिकी अर्थव्यवस्था में गिरावट को मजबूत करना। यह एक अनिवार्यता हो सकती है। लेकिन भारत जैसे देश के लिए यह प्राथमिकता नहीं हो सकती। क्वाड के साथ-साथ हिंद-प्रशांत आर्थिक ढांचे में, युद्ध और शांति के सवाल को उभरना ही है। जलवायु परिवर्तन और महामारी, गरीबी और बेरोजगारी के इन दिनों में भारत को युद्ध और संघर्षों का समर्थक नहीं होना चाहिए, बल्कि भारत को शांति और प्रगति का समर्थक होना चाहिए। (संवाद)