आजादी के पहले से ही जाति की समस्या और खासकर छुआछूत की समस्या के खिलाफ युद्ध छिड़ा हुआ है। हमारे देश के अनेक समाज सुधारकों ने इसके खिलाफ अभियान चलाए। ज्योतिराव फूले ने सत्यशोधक समाज के द्वारा इसके खिलाफ संघर्ष किया। आर्य समाज ने छुआछूत को मिटाने के लिए बहुत ही सराहनीय कार्य किए। खुद अछूत कहे जाने वाले समुदायों के लोगों ने भी इसके खिलाफ बिगुल फूंका।

अम्बेडकर की तो ऐसे लोगो में बहुत चर्चा होती है, लेकिन स्वामी अछूतानंद ने उनके पहले ही इसके खिलाफ जंग का एलान कर दिया था और वे अपने को अछूत कहने और कहलाने में गर्व किया करते थे। वे पहले आर्य समाज में थे, लेकिन आर्यसमाजियों से मतभेद के बाद वे अलग हो गए और आदि हिन्दू नामक मंच से अपने अभियान पर लग गए। उन्होंने अपना नाम ही अछूतानंद रख लिया और दावा किया कि अछूत होना छूत होने से बेहतर है, क्योंकि छूत का रोग होता अछूत का नहीं। छूत को उन्होंने रोगी और अछूत को नीरोग बताया। उन्होंने अछूतों को हरिजन कहे जाने का भी विरोध किया और कहा कि हमें अछूत ही कहो।

अछूतानंद, अम्बेडकर और आर्यसमाज से भी बहुत ज्यादा तीव्रता के साथ महात्मा गांधी ने छुआछूत पर हमला किया। उन्होंने त्रावणकोर के वॉयकम में छुआछूत और जातिभेद के खिलाफ एक बहुत बड़ा आंदोलन चलाया, जो 18 महीने से भी ज्यादा चला। वह भारतीय समाज के इस सबसे बड़े रोग के खिलाफ चलाया गया पहला सबसे बड़ा और सफल आंदोलन था। गांधीजी उस सफलता मात्र से खुश नहीं हुए, बल्कि उन्होंने हरिजन आदोलन चलाया, जो भारत के इतिहास का छुआछूत के खिलाफ चलाया गया अबतक का सबसे बड़ा आंदोलन है।

जब हमारा संविधान बना, तो उसमें गांधीवादी मूल्यों को बहुत जगह मिली, क्यों राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल, जवाहरलाल नेहरू और जेबी कृपलानी जैसे गांधीवादी संविधान का निर्माण कर रहे थे। लिहाजा, संविधान ने छुआछूत को समाप्त घोषित कर दिया। आजादी के बाद इसे समाप्त करने के लिए अनेक कानून बने। सरकार ने अनेक आदेश जारी किए। समाज पर इसका असर पड़ा, लेकिन फिर भी छुआछूत पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ।

1989 में एसएसी/एसटी एक्ट बना। इसका उद्देश्य बहुत अच्छा था, लेकिन इससे भी समाज पर कोई असर नहीं पड़ा। 1989 के बाद बिहार में दलितों के अनेको नरसंहार हुए। छिटपुट उत्पीड़न की घटनाएं तो देश भर में चलती रहीं। 1990 के आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान भी दलितों पर जुल्म हुए। आरक्षण तो उस साल ओबीसी को दिया जा रहा था, लेकिन आरक्षण विरोधियों ने दलितों को ही अपना मुख्य निशाना बनाया और एससी एक्ट किसी काम का साबित नहीं हुआ।

यह एक्ट दलितों की रक्षा करने में तो विफल रहा, लेकिन इसके दुरुपयोग इतने होने लगे कि लोग इससे त्राहि त्राहि करने लगे। आपसी झगड़े का सुलटाने के लिए लोग एक दूसरे के खिलाफ एससी एक्ट मे मुकदमे कराने लगे। शुरू में एससी के लोग नहीं, बल्कि एससी के लोग किसी एससी व्यक्ति का इस्तेमाल करके अपनी दुश्मनों को फंसाने लगे। यदि कोई बड़ा सरकारी अधिकारी अपने से छोटे अधिकारी की नौकरी लेना चाहता हो, तो उसी दफ्तर के किसी चतुर्थ श्रेणी या तृतीय श्रेणी के किसी एससी कर्मचारी से एससी एक्ट के तहत झूठी शिकायत दर्ज करवा देता था अपने पद की धौंस का इस्तेमाल करके। इस तरह की एक घटना तो इस लेखक के सज्ञान में 1996 में आया था, जब एक डीएसपी को जेल भेजने के लिए उसी का बॉस एसपी एक पुलिस जबान पर दबाव बना रहा था कि वह डीएसपी के खिलाफ एससी एक्ट की शिकायत दर्ज करा दे। इस लेखक द्वारा उस दबाव से संबंधित खबरें समय रहते प्रकाशित कर देने के कारण वह डीएसपी जेल जाने और अपनी नौकरी गंवाने से बचा, लेकिन पता नहीं, कितने लोग इसके शिकार हो गए होंगे।

एक मामला राजस्थान के पत्रकार से संबंधित है। पुलिस वाले से उसका तनाव चल रहा था, तो राजस्थान के पुलिस वाले ने बिहार के किसी पुलिस स्टेशन के पदस्थापित अपने दोस्त से बिहार के थाने में ही राजस्थान के उस पत्रकार के खिलाफ एससी एक्ट के तहत मुकदमा करवा दिया और उसकी गिरफ्तारी भी हो गई। आरोप था कि बिहार के किसी पासवान मजदूर से राजस्थान में काम करवाने के बाद उस पत्रकार ने उसे मजदूरी नहीं दी, उल्टे उसे मारा-पीटा और जाति सूचक गालियां दीं।

वह मुकदमा झूठा था। बिहार के पत्रकार उस मजदूर तक पहुंच गए, जिसको वादी बनाकर मुकदमा दर्ज किया गया था। पता चला, वह मजदूर उस पत्रकार को जानता तक नहीं और सबसे बड़ी बात यह कि वह अपनी जिंदगी में कभी राजस्थान गया ही नहीं था। उसने बिहार के पत्रकारों के सामने यह साफ कर दिया कि उसने किसी के खिलाफ कोई मुकदमा किया ही नहीं है और उसका किसी ने जातीय उत्पीड़न ही नहीं किया है। इस तरह तरह यह एससी एक्ट भ्रष्ट पुलिस अधिकारियों के हाथ में एक हथियार भी बन गया है, जिसका इस्तेमाल वे पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्त्ताओ व अपने विरोधियो के खिलाफ करते हैं।

दुरुपयोग की इन घटनाओं को वे अंजाम दे रहे हैं, जो खुद एससी नहीं हैं। अपने विरोधियों को फंसाने के लिए बस वे किसी एससी की मदद लेते हैं या उसे भड़का कर मुकदमा दर्ज करवा देते हैं। बाकी का काम इस कानून के कड़े प्रावधान कर देते हैं। हो सकता है, इस मुकदमे में सजा नहीं मिले, लेकिन दोषमुक्त होने के पहले जिस दौर से गुजरना पड़ता है, वह किसी बड़ी सजा से कम नहीं।

लेकिन इसका दुरुपयोग गैर एससी ही नहीं, एससी भी करने लगे हैं। अनेक मुकदमे झूठे और अनावश्यक होते हैं। वैसे ही एक झूठे मुकदमे के कारण सुप्रीम कोर्ट ने एक बार इस कानून में कुछ प्रावधान डाल दिए थे, ताकि इसका दुरुपयोग नहीं हो सके, लेकिन केन्द्र सरकार ने उस कानून को पहले की अवस्था में ही फिर से तैयार कर दिया और फिर सुप्रीम कोर्ट ने भी अपना पुराना आदेश वापस लेते हुए सरकार की बात मान ली।

इसके भारी दुरुपयोग को देखते हुए इसे समाप्त कर देने में ही समझदारी है, क्योंकि इसके कारण दलितों से लोग अब दूरियां बनाने लगे हैं, जो अपने आपमें एक उत्पीड़न से कम नहीं है और सबसे बड़ी बात यह है कि इससे दलितों पर होने वाले अत्याचारों में कोई कमी भी नहीं आई है। (संवाद)