ऐसा ही माहौल करीब नवंबर 2019 में भी बनाने की कोशिश की गई थी जब शिव सेना, एनसीपी और कांग्रेस के गठबंधन की सरकार बन रही थी। उस समय भी मीडिया का एक बड़ा हिस्सा और भाजपा-आरएसएस से जुड़े राजनीतिक विश्लेषक शिव सेना और कांग्रेस के साथ आने को बड़े दुखी मन से अजूबे की तरह देख रहे थे। सभी का कहना था कि यह भारतीय राजनीति में अनोखी घटना और राजनीतिक अवसरवाद की अभूतपूर्व मिसाल है।
मगर सवाल है कि क्या वाकई शिव सेना और कांग्रेस राजनीतिक तौर पर एक-दूसरे के लिए वैसे ही अछूत हैं, जैसा कि प्रचारित किया जा रहा है? यह सही है कि भाजपा और शिवसेना का साथ तीन दशक से भी ज्यादा पुराना था। 1980 और 1990 के दशक में जब कोई भी पार्टी भाजपा से हाथ मिलाने में हिचकिचाती थी और देश में गठबंधन की राजनीति का दौर भी शुरू नहीं हुआ था, तब शिव सेना ही वह पार्टी थी जिसने भाजपा के साथ गठबंधन कर उसका ‘अछूतोद्धार’ किया था। इन तीन दशकों के दौरान दोनों पार्टियों ने लोकसभा और महाराष्ट्र विधानसभा के लगभग सभी चुनाव मिलकर लड़े और केंद्र तथा राज्य सरकार में भी साझेदारी की। सिर्फ 2014 का विधानसभा चुनाव ही दोनों पार्टियों ने अलग-अलग लड़ा था लेकिन चुनाव के कुछ समय बाद शिवसेना भाजपा के साथ सरकार में साझेदार हो गई थी। 2019 का विधानसभा चुनाव भी दोनों ने मिलकर लड़ा था। उनके गठबंधन को बहुमत भी हासिल हुआ लेकिन मुख्यमंत्री पद को लेकर दोनों का रिश्ता टूट गया, जिसके चलते विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद भाजपा सरकार नहीं बना सकी।
इस सबके बावजूद राज्य में नई सरकार के गठन को लेकर बने नए राजनीतिक समीकरण के तहत शिवसेना और कांग्रेस के साथ आने में हैरानी या ताज्जुब जैसी कोई बात नहीं थी। पिछले तीन दशक तक भले ही शिवसेना का भाजपा से गठबंधन रहा हो, मगर महाराष्ट्र की राजनीति में कांग्रेस और शिवसेना के सहयोगपूर्ण रिश्तों का इतिहास इससे भी पुराना है और उतना पुराना है, जितनी शिवसेना की कुल उम्र है। पिछले तीन दशक की ही बात करें तो ऐसे कई मौके आए हैं जब शिवसेना ने भाजपा के साथ रहते हुए भी उसकी राजनीतिक लाईन से हटकर फैसले लिए और राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस का समर्थन किया।
बहुत पहले की नहीं, बल्कि 2012 की ही बात करें तो राष्ट्रपति पद के चुनाव में शिवसेना ने कांग्रेस के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी का समर्थन किया था, जबकि भाजपा ने उनके खिलाफ पीए संगमा को एनडीए का उम्मीदवार बनाकर मैदान में उतारा था। इससे पहले 2007 में भी शिवसेना ने राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस की उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल को समर्थन दिया था। उस चुनाव में तत्कालीन उप राष्ट्रपति और भाजपा के वरिष्ठ नेता रहे भैरोसिंह शेखावत एनडीए के उम्मीदवार थे। इससे भी पहले 1997 में जब राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस ने केआर नारायणन को अपना उम्मीदवार बनाया था और भाजपा ने भी उनका समर्थन किया था तब शिव सेना ने भाजपा से अलग लाईन लेते हुए निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर मैदान में उतरे पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन को अपना समर्थन दिया था।
यही नहीं, शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे ने 1975 में इंदिरा गांधी सरकार के लगाए आपातकाल का और फिर 1977 व 1980 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस का समर्थन किया था। 1977 में मुंबई के मेयर के चुनाव में कांग्रेस नेता मुरली देवड़ा को जिताने में भी बाल ठाकरे ने अहम भूमिका निभाई थी। हालांकि शिवसेना को इन चुनावों में कांग्रेस का समर्थन करने की राजनीतिक कीमत भी चुकानी पड़ी। 1978 में महाराष्ट्र विधानसभा और बाद में बंबई म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन (बीएमसी) के चुनाव में शिवसेना को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा।
आपातकाल के प्रति अपना समर्थन जताने के लिए तो बाल ठाकरे खुद मुंबई के राजभवन में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलने गए थे। उन्होंने आपातकाल लागू करने के फैसले को साहसिक कदम बताते हुए श्रीमती गांधी का बधाई दी थी। हालांकि आपातकाल का समर्थन करने की पेशकश राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सर संघचालक मधुकर दत्तात्रय उर्फ बाला साहब देवरस ने भी की थी, लेकिन यह और बात है कि इंदिरा गांधी ने उनकी यह पेशकश मंजूर नहीं की थी।
असल में कांग्रेस ने पिछले पांच-छह दशक के दौरान इसी तरह शिवसेना का इस्तेमाल किया। यानी जाहिरा तौर पर शिवसेना की कट्टर हिंदूवादी और मराठी मानुष की नीति का विरोध भी किया और जब जरूरत पड़ी तब उसका सहयोग भी लिया।
बाल ठाकरे ने शिव सेना की स्थापना 1960 के दशक के मध्य में की थी। यह वह दौर था जब फायरब्रांड समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडीज को मुंबई का बेताज बादशाह कहा जाता था। महानगर की तमाम छोटी-बड़ी ट्रेड यूनियनों के वे नेता हुआ करते थे और उनके एक आह्वान पर पूरा महानगर बंद हो जाता था। उसी दौर में 1967 के लोकसभा चुनाव में 37 वर्षीय जॉर्ज ने मुंबई में कांग्रेस के अजेय माने जाने वाले दिग्गज नेता एसके पाटिल को हराकर उनकी राजनीतिक पारी समाप्त कर दी थी।
चूंकि महाराष्ट्र तब भी एक औद्योगिक राज्य था और पूरे राज्य में समाजवादी तथा वामपंथी मजदूर संगठन बहुत मजबूत हुआ करते थे। औद्योगिक राज्य होने की वजह से सरकार को नियमित रूप से मजदूर संगठनों से जूझना होता था। जिस समय बाल ठाकरे ने शिव सेना की स्थापना की उस वक्त महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री वसंतराव नाईक हुआ करते थे। बाल ठाकरे से उनकी काफी नजदीकी थी। मुंबई के कामगार वर्ग में जॉर्ज के दबदबे को तोड़ने के लिए वसंत राव नाईक ने शिव सेना को खाद-पानी देते हुए बाल ठाकरे का भरपूर इस्तेमाल किया। इसी वजह से उस दौर में शिव सेना को कई लोग मजाक में ‘वसंत सेना’ भी कहा करते थे।
आपातकाल के बाद जॉर्ज जब पूरी तरह राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय हो गए तो उन्होंने मुंबई में समय देना कम कर दिया। उसी दौर में मुंबई में मजदूर नेता के तौर दत्ता सामंत का उदय हुआ। शुरुआती दौर में तो जॉर्ज के नेतृत्व वाली यूनियनों के दबदबे को कम करने के लिए कांग्रेस ने भी दत्ता सामंत को खूब बढ़ावा दिया, लेकिन वे भी टेक्सटाइल मिलों में हड़ताल और मजदूरों के प्रदर्शन के जरिए जब महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार के लिए सिरदर्द बनने लगे तो कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों ने उनका भी ‘इलाज’ बाल ठाकरे की मदद से ही किया।
सिर्फ वसंतराव नाईक ने ही नहीं, बल्कि उनके बाद शंकरराव चह्वाण, वसंतदादा पाटिल, शरद पवार, अब्दुल रहमान अंतुले, बाबा साहेब भोंसले, शिवाजीराव पाटिल निलंगेकर आदि कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने भी समय-समय पर महाराष्ट्र और मुंबई की राजनीति में बाल ठाकरे का अपने लिए भी और कांग्रेस के लिए भी भरपूर इस्तेमाल किया। शरद पवार से तो उनकी दोस्ती जगजाहिर ही रही।
ऐसा नहीं कि सिर्फ बाल ठाकरे ही कांग्रेस की मदद करते थे। वे भी कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों से बाकायदा अपनी मदद की राजनीतिक कीमत वसूलते थे। यह कीमत होती थी विधानसभा और विधान परिषद में अपने उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित कराने के रूप में भी और इससे इतर दूसरे स्तरों पर भी। उसी दौर में और उसके बाद भी महाराष्ट्र के विभिन्न इलाकों में कई जगह कांग्रेस के जिला स्तर के नेताओं ने शिव सेना के साथ तालमेल करते हुए स्थानीय निकायों में बोर्ड का गठन भी किया। उस पूरे दौर में बाल ठाकरे पर उनके भड़काऊ बयानों और भाषणों को लेकर कई मुकदमे भी दर्ज हुए, लेकिन पुलिस उन्हें कभी छू भी नहीं पाई। ऐसा सिर्फ कांग्रेस से उनके दोस्ताना रिश्तों के चलते ही हुआ।
शिव सेना और कांग्रेस के ये रिश्ते 1980 के दशक के अंत में भाजपा और शिव सेना का गठबंधन होने तक जारी रहे। इसलिए यह विलाप बेमतलब है कि कांग्रेस और एनसीपी के साथ गठबंधन करने से शिवसेना ‘हिंदूवाद’ और ‘मराठी माणूस’ की अपनी मूल विचारधारा से दूर हो गई है या कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता से किनारा कर लिया है। (संवाद)
भाजपा से भी पुराना है शिव सेना और कांग्रेस का दोस्ताना
बाल ठाकरे तो कांग्रेस की ही उपज थे
अनिल जैन - 2022-06-30 11:42
शुरू से कहा जा रहा है कि शिव सेना ने कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के साथ सरकार चलाते हुए हिंदुत्ववादी विचारधारा को छोड़ दिया है, इसलिए उसके विधायक बागी हो गए। यह बात वे विधायक भी कह रहे हैं जो प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी, आयकर और सीबीआई आदि केंद्रीय एजेंसियों के डंडे से बचने के लिए अपने कदम शिव सेना से बाहर निकालने पर मजबूर हुए हैं और कतिपय भाजपा नेताओं के भी ऐसे ही बयान आ रहे हैं। तमाम टीवी चौनल और कई राजनीतिक विश्लेषक भी अपनी टिप्पणियों के जरिए ऐसा ही माहौल बना रहे हैं।