सरकारी सेवाओं अथवा शैक्षिक संस्थाओं में प्रवेश के लिए भी जाति प्रमाण पत्र मांगे जाते रहे हैं, लेकिन ये आवेदन पत्र उन्हीं से मांगे जाते हैं, जिन्हें आरक्षण का लाभ मिलना और जिन्हें आरक्षण का लाभ लेना है। जिन्हें आरक्षण का लाभ न तो मिलना है और न ही लेना है, उनसे जाति नहीं पूछी जाती। उन्हें सामान्य या अनारक्षित श्रेणी लिखने को कहा जाता है।

पर सेना की भर्ती में कोई जातिगत आरक्षण नहीं है, फिर इसमें जाति बताने और जाति प्रमाण पत्र संलग्न करने की जरूरत क्यों? यह तो सभ्य समाज की सोच से बाहर का विषय है। जाति के साथ धर्म का प्रमाण पत्र भी मांगा जा रहा है। जब इस पर विवाद उठा, तो मोदी सरकार कहने लगी कि यह हम कोई पहली बार ऐसा नहीं कर रहे हैं, यह तो पहले से ही होता आ रहा है। मोदी सरकार को बताना चाहिए कि पहले तो अग्निपथ नाम की कोई योजना ही नहीं थी, तो वह कैसे कह रही है कि धर्म और जाति का पहचान पत्र पहले से ही मांगा जा रहा है।

शायद सरकार सेना में भर्ती की बात कर रही है। सेना की भर्ती में जाति प्रमाण पत्र पहले से ही मांगे जाते रहे हैं, ऐसा सरकार की ओर से कहा जा रहा है। कुछ सरकार भक्त रिटायर्ड फौजी भी यह बात दुहरा रहे हैं। वे कह रहे हैं कि अंग्रेज के जमाने से ही इस तरह के प्रमाण पत्र मांगे जाते हैं। कारण बताते हुए वे कहते हैं कि युद्ध में सेना के जवान मारे जाते हैं और उनकी मौत के बाद उनके रीति रिवाजों से उनका क्रिया कर्म करना पड़ता है, इसलिए उनका धर्म या मजहब जानना जरूरी हो जाता है, क्योंकि अनेक मृत सैनिकों का अंतिम संस्कार सेना के अन्य लोग ही करते हैं। यह तो हुई धर्म की बात, तो फिर जाति का प्रमाण पत्र क्यों?

एक और सवाल उठता है कि आवेदन के समय ही धर्म का प्रमाण पत्र क्यों? नियुक्ति के बाद भी धर्म के बारे मे जानकारी लेकर सेना अपने रिकॉर्ड में डाल सकती है, ताकि मृत्यु के बाद उसके धार्मिक तौर तरीकों के अनुसार उसका अंतिम संस्कार किया जा सके। आवेदन के समय इसकी जानकारी मांगना गलत है और प्रमाणपत्र मांगने तो और भी ज्यादा आपत्तिजनक है, क्योंकि धर्म और जाति के नाम पर जब कोई सुविधा ही नहीं मिलनी है, तो कोई अपनी गलत जाति क्यों बताएगा? और अगर गलत जाति बताने से कोई फायदा किसी को हो जाता है, तो यह सेना में भर्ती की प्रक्रिया पर ही सवाल खड़ा कर देता है।

कुछ पूर्व सैनिक अफसर जाति आधारित रेजिमेंट की बात भी कर रहे हैं। वे कहते हैं कि अंग्रेजी काल में जाति और क्षेत्र के आधार पर सेना में रेजिमेंट बनाए गए थे। उन्हीं नामों से रेजिमेंट आज भी हैं। राजपूत रेजिमेंट, जाट रेजिमेंट, मराठा रेजिमेंट, राजपूताना रेजिमेंट, मराठा रेजिमेंट, गोरखा रेजिमेंट, सिख रेजिमेंट, बिहार रेजिमेंट, पंजाब रेजिमेंट और वैसे ही अन्य रेजिमेंट हैं। अंग्रेज के जमाने में जाति के आधार पर ही उन रेजिमेंटों में नियुक्तियां होती थीं। जाट रेजिमेंट मे जाट की ही नियुक्ति होती थी और राजपूत रेजिमेंट में सिर्फ राजपूत की ही। इसलिए उस समय जाति सर्टिफिकेट मांगा जाता था। यदि जाट रेजिमेंट में किसी को भर्ती होना हो, तो उसे यह प्रमाण पत्र लाना पड़ता था कि वह जाट ही है।

लेकिन आजादी के बाद से जाति आधारित नियुक्तियां समाप्त हो गईं। नाम भले अभी भी जाति या क्षेत्र पर ही हों, पर रेजिमेंट में किसी भी जाति के व्यक्ति की बहाली हो सकती है। तब सवाल उठता है कि फिर भी जाति का प्रमाण पत्र क्यों मांगा जाता रहा है? इसकी जरूरत क्या थी? एक वरिष्ठ सेना निवृत अधिकारी ने बताया कि यदि किसी जाति विशेष के नाम से रेजिमेंट हो, तो उस रेजिमेंट में उस जाति के सैनिकों की संख्या को ज्यादा बनाए रखने के लिए ऐसा किया जाता था। लेकिन जब संविधान ने स्पष्ट कर दिया है कि जाति के आधार पर सरकारी नियुक्तियों मे भेदभाव नहीं होगा, तो फिर सैनिक अधिकारियों को यह किसने अधिकार दे दिया कि वे एक जाति विशेष की संख्या के ज्यादा बनाए रखने के लिए सैनिकों की नियुक्ति करने के लिए नियुक्ति से पूर्व ही उनकी जाति जान लें।

यह जो भी हो रहा था, बहुत गलत हो रहा था। यह संविधान का मजाक उड़ाया जा रहा था। और अभी अग्निपथ योजना के तहत अिर्ग्नवीरों की नियुक्ति के लिए जो जाति और धर्म के प्रमाणपत्र मांगे गए हैं, वे तो और भी आपत्तिजनक हैं। इसका कारण यह है कि यह रेजिमेंट द्वारा की जा रही नियुक्तियां नहीं हैं। यह केन्द्रीय स्तर से नियुक्ति हो रही है। कोई रेजिमेंट में भर्ती के लिए आवेदन नहीं कर रहा है, बल्कि सीधे सेना में अग्निवीर के लिए आवेदन कर रहा है। यहां रेजिमेंट मे जाति विशेष को ज्यादा महत्व देने वाली बात भी नहीं है। सफल आवेदकों का रेजिमेंट निधार्रण भी बाद में होगा। नियुक्ति के समय तो नियुक्त करने वाले अधिकारियों को भी पता नहीं चलेगा कि फलां आवेदक नियुक्ति के बाद कि रेजिमेंट में जाएगा।

जाहिर है, जाति प्रमाणपत्र मांगने की व्यवस्था गलत थी। अग्निवीर में तो यह व्यवस्था महागलत है। मोदी सरकार ने अग्निपथ के रूप में एक नई स्कीम चलाई है, तो फिर इस नई स्कीम में पुरानी बीमारी के बनाए रखने का क्या मतलब? यह मोदी सरकार जाति जनगणना से भाग रही है। उसने संसद में कह दिया है कि जाति जनगणना कराने से जातिवाद बढ़ेगा, इसलिए इस तरह की गणना नहीं होगी, तो क्या अग्निपथ योजना में आवेदकों को जाति पूछने से जातिवाद समाप्त हो जाएगा? इस सवाल का जवाब रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को देना चाहिए। मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में राजनाथ सिंह गृहमंत्री थे। गृहमंत्री की हैसियत से उन्होंने घोषणा की थी कि कैबिनेट ने ओबीसी जनगणना कराने का निर्णय लिया है। वह मोदी सरकार का निर्णय 2019 के चुनाव के पहले का निर्णय था। चुनाव जीतने के बाद मोदी सरकार चुनाव के पहले किए निर्णय को ही भूल गई। राजनाथ सिंह को ही जवाब देना चाहिए कि जाति जनगणना आपको नहीं चाहिए, तो अग्निवीरों की नियुक्ति के पहले आप उनकी जाति जानना क्यों चाहते हैं जबकि जाति के आधार पर कोई आरक्षण ही नहीं है। (संवाद)