बिहार विधानसभा ने दो बार देश भर में जाति जनगणना करवाने का प्रस्ताव पारित किया था और वह भी सर्वसहमति से। भाजपा ने भी उस प्रस्ताव के पक्ष में वोट डाला था। पर जाति जनगणना चाहती नहीं थी और संसद में उसकी सरकार ने साफतौर पर कहा कि हम जाति जनगणना नहीं करवाएंगे। सुप्रीम कोर्ट में भी उसने साफ किया कि जाति जनगणना नहीं होगी। उधर नीतीश खुद बिहार की एक सर्वदलीय टीम को लेकर प्रधानमंत्री मोदी से जाति जनगणना की मांग लेकर पहुंचे। उस टीम में भाजपा भी शामिल थी। प्रधानमंत्री ने उस टीम को भी कहा कि हम तो जाति जनगणना नहीं करवांएगे, राज्य सरकार चाहे तो खुद अपने राज्य में करवा ले।
उसके बाद नीतीश कुमार ने बिहार में प्रदेश सरकार द्वारा ही जाति गणना कराने की घोषणा कर दी। लेकिन सहयोगी भाजपा ने अडंगा लगा दिया। उसने साफ मना कर दिया कि वह बिहार में भी जाति गणना की इजाजत नहीं देगी। उसके प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल, जो खुद ओबीसी हैं, ने कहना शुरू कर दिया कि जातियां तो सिर्फ दो ही हैं- अमीर और गरीब। इसलिए जाति जगणना की कोई जरूरत नहीं। बीजेपी का कोई अन्य नेता बोला कि जाति गणना करवाने की जरूरत नहीं, एक से एक बड़े काम करवाने के लिए पड़े हुए हैं, सरकार वह करवाएगी।
कुल मिलाकर नीतीश कुमार की स्थिति विचित्र हो गई। जाति गणना का निर्णय उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एनओसी मिलने के बाद ही किया था और उसके बाद बाद प्रधानमंत्री की पार्टी ही उनको यह करने से रोक रही थी। भाजपा के साथी होने के कारण वे साफ-साफ कुछ बोल भी नहीं सकते थे और उधर लालू यादव और उनकी पार्टी जाति जनगणना के मुद्दे पर लगातार दबाव बना रही थी। स्थिति यह थी कि विधानसभा के विधायकों का बहुमत जाति गणना चाहता था, हालांकि उस बहुमत का आधा से ज्यादा विपक्ष में था, पर नीतीश जाति गणना की शुरुआत नहीं कर पा रहे थे। तभी लगता है कि लालू-तेजस्वी के साथ नीतीश की सहमति बन गई थी कि भाजपा विरोध करे, तो करे राजद के समर्थन से नीतीश जाति जनगणना या गणना करवा लेंगे। लेकिन यदि दोनों मिलकर उसी हालत में करवा सकते हैं, जब दोनों एक साथ सरकार में हों।
लालू के समर्थन से उत्साहित होकर ही नीतीश कुमार ने जाति गणना की प्रक्रिया शुरू कर दी। अगर और मगर करते हुए भाजपा भी उस निर्णय के साथ घिसट रही थी। लेकिन जब भाजपा को लगने लगा कि अब तो जातियों की अलग अलग संख्याओ को गिन ही लिया जाएगा, तो उन्होंने नीतीश सरकार को गिराने की साजिश रचनी शुरू कर दी। एक रणनीति के तहत बिहार से सांसद गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय, जो खुद ओबीसी हैं, से संसद में केन्द्र सरकार द्वारा जाति जनगणना न करवाने के फैसले की घोषणा करवाइ गई थी। फिर एक रणनीति के तहत बिहार से राज्यसभा सांसद रामचन्द्र प्रसाद सिंह से भी यह बयान दिलवाया गया कि बिहार में अब जाति जनगणना की जरूरत नहीं।
और रामचन्द्र प्रसाद सिंह कोई और नहीं, बल्कि नीतीश कुमार के सबसे खास रहे आरसीपी सिंह ही थे, जो जदयू के प्रमुख भी रह चुके थे। भारतीय जनता पार्टी ने आरसीपी सिंह का इस्तेमाल कर नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री के पद से हटाने की रणनीति बनानी शुरू कर दी। इस रणनीति के तहत जदयू के 30 से 35 विधायकों को नीतीश से तोड़ना था। कांग्रेस व कुछ अन्य दलों से भाजपा कुछ और विधायको को तोड़ लाती। फिर आरसीपी सिंह को मुख्यमंत्री बना दिया जाता। वे जदयू के ही मुख्यमंत्री होते। जदयू के बहुमत विधायकों के नेता होने के कारण नीतीश खेमे के अल्पमत विधायक पर दलबदल कानून के तहत सदस्यता समाप्ति की तलवार लटका दी जाती, जो अभी महाराष्ट्र में उद्धव समर्थक शिवसैनिक विधायकों पर लटक रही है।
लेकिन भाजना आरसीपी सिंह को समझने में गलती कर गई। वे एकनाथ शिंदे की तरह जमीन से जुड़े हुए नेता नहीं हैं, जो टैक्सी ड्राइवर से उठकर राजनीति में आए थे। सच तो यह है कि आरसीपी सिंह नेता ही नहीं हैं, उनमें जो कुछ भी राजनैतिक चमक थी, वह नीतीश से नजदीकी के कारण ही थी। और यहीं भाजपा मात खा गई। उसे लगा था कि आरसीपी को मुख्यमंत्री बना देंगे और आरसीपी सरकार का पहला फैसला जाति गणना प्रक्रिया को रोक देना होगा। पर नीतीश कुमार ने सबकुछ आसानी से पलट दिया। आरसीपी को राज्यसभा का सदस्य फिर नहीं बनाया। उन्हें केन्द्र का मंत्री पद छोड़ने पर मजबूर कर दिया।
और जब बिहार के एक कस्बे मे उत्साही लोगों ने जब नारा लगा दिया कि ‘हमारा मुख्यमंत्री कैसा हो, रामचन्दर बाबू जैसा हो’ तो नीतीश के कान खड़े हो गए। सबसे पहले तो उनके भ्रष्टाचार की फाइल सार्वजनिक कर दी गई, जो नीतीश के पास पहले से ही पड़ी हुई थी और उसके बाद उनसे जवाब तलब भी किया गया कि इस फाइल पर अपनी स्थिति स्पष्ट करें। यहां दिलचस्प यह है कि जब नीतीश कुमार ने लालू का साथ 2017 में छोड़ा था तब भी भ्रष्टाचार के आरोपों पर तेजस्वी से स्थिति स्पष्ट करने के लिए ही नीतीश कह रहे थे। बहरहाल, इस बार रामचन्द्र बाबू ने जदयू से इस्तीफा देते हुए अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी।
बिहार की जाति गणना ने लालू और नीतीश को एक मंच पर ला खड़ा किया था, और इसी के कारण लालू परिवार के खिलाफ ईडी एक्शन तेज कर दिया गया था, जाहिर है लालू के दल को भी जल्द से जल्द सत्ता चाहिए था। नीतीश कुमार भी बीजेपी के बातों पर विश्वास नहीं कर सकते थे। लालू और और नीतीश की दूरी बनी रहती, तो कभी भी भाजपा बिहार सरकार से बाहर आकर राष्ट्रपति शासन लगवाकर जाति गणना रोक सकती थी। इसलिए नीतीश कुमार ने राजद के साथ सत्ता का गठबंधन भी कर लिया। अब देखना होगा कि भारतीय जनता पार्टी जदयू-राजद गठबंधन की सरकार को जाति गणना करने से रोकने के लिए किसी तिकड़म का इस्तेमाल करती है।(संवाद)
बिहार की सियासी हलचल
जातिगणना रोकने की कोशिश भाजपा पर भारी पड़ी
उपेन्द्र प्रसाद - 2022-08-10 13:01
आखिरकार भारतीय जनता पार्टी बिहार की सत्ता से बाहर हो ही गई। जिस पार्टी का सिद्धांत किसी भी शर्त पर सत्ता में आना और बने रहना हो, उसकी इस तरह से सत्ता में बिदाई उसके लिए एक बहुत बड़ा झटका है। पर यह बहुत कम लोगों को दिखाई दे रहा है कि इस झटके की पृष्ठभूमि उसी समय तैयार हो गई थी, जब नीतीश कुमार ने बिहार में जाति गणना का निर्णय ले लिया था। भारतीय जनता पार्टी इस निर्णय के सख्त खिलाफ थी और नीतीश कुमार बिहार के लोगों से बहानेबाजी करते हुए इसे लगातार टालने की कोशिश कर रहे थे। तब लालू यादव ने ही इस बात का खुलासा किया था कि भाजपा के विरोध के कारण नीतीश जाति गणना नहीं करवा रहे हैं। लगता है, यह सूचना लालू यादव को खुद नीतीश से या नीतीश से जुड़े किसी खास व्यक्ति से मिली होगी।