विपक्ष को एक जुट करने के अभियान लगातार चलने वाली एक प्रक्रिया है, जो न तो कभी अपना उद्देश्य हासिल करती है और न ही कभी समाप्त होती है। अब एक करने का यह बीड़ा नीतीश कुमार ने उठाया है, जो कुछ समय पहले तक ही भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से बिहार की सरकार चला रहे थे। अब भाजपा को केन्द्र की सत्ता से हटाने की मुहिम में ये लग गए हैं, लेकिन मुहिम की शुरुआत में ही उनको एक झटका लग चुका है।

यह झटका दिया है उन्हें तेलांगना के मुख्यमंत्री केसीआर ने। वह पटना जाकर नीतीश से मिले थे और उन्होंने उन्हें गैरकांग्रेस गैरभाजपा मोर्चा बनाने की सलाह दी। इस तरह की सलाह उन्होंने कुछ महीने पूर्व तेजस्वी को भी दी थी। उस समय तेजस्वी का कांग्रेस से खटपट चल रहा था। पर उस समय भी तेजस्वी ने उन्हें मना कर दिया और कहा कि वे कांग्रेस को छोड़ नहीं सकते। बिहार में जब वे कांग्रेस को गठबंधन में सीटें देने से इनकार कर रहे थे, तब भी कह रहे थे कि कांग्रेस के साथ उनका राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन है, पर विधानसभा उपचुनाव में वे कांग्रेस के लिए सीट छोड़ने को बाध्य नहीं है। लिहाजा, केसीआर को उस समय निराशा हाथ लगी थी।

अब एक बार फिर पटना जाकर उन्होंने नीतीश के सामने गैरकांग्रेस गैरभाजपा दलों का मोर्चा बनाने का प्रस्ताव दिया, जिसे नीतीश ने अस्वीकार कर दिया। बिहार मे नीतीश की ही सरकार है और उस सरकार में कांग्रेस भी शामिल है। इसके साथ नीतीश को यह भी पता है कि अपने घोर पतन के इस काल में भी कांग्रेस भाजपा के खिलाफ सबसे बड़ी पार्टी है। इसलिए उस अलग करके भाजपा के खिलाफ प्रभावी गठबंधन बनाना संभव नहीं है।

दरअसल कांग्रेस का विस्तार अधिकांश राज्यो मे है और वहां के क्षेत्रीय दलों के खिलाफ कांग्रेस को लड़ना पड़ता है। इसलिए विपक्षी गठबंधन का मतलब कांग्रेस का अलग अलग राज्यो में क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन ही है। इसके बारे में अंतिम फैसला कांग्रेस ही ले सकती है, नीतीश कुमार या किसी अन्य पार्टी का नेता नहीं। दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकारें हैं। इन दोनों राज्यों में कांग्रेस को पराजित कर आम आदमी पार्टी की सरकारें बनी हैं। इन दोनों राज्यों में नीतीश के दल की कोई उपस्थिति ही नहीं है। सवाल उठता है कि क्या इन दोनों राज्यों में कांग्रेस के साथ आम आदमी पार्टी का गठबंधन नीतीश करवा सकते हैं?

आम आदमी पार्टी गुजरात और हिमाचल प्रदेश में भी बहुत जोरशोर से चुनाव अभियान में लगी हुई है। अगले कुछ महीनों में ही वहां चुनाव होने हैं। उन दोनों राज्यों में कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी है। आम आदमी पार्टी मुकाबले को त्रिकोणात्मक बनाकर भाजपा का काम आसान कर रही है। नुकसान तो कांग्रेस का ही होना है, क्योंकि भाजपा विरोधी मतों का विभाजन होना है। क्या नीतीश कुमार इन दोनों राज्यों की विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का गठबंधन करवा सकते हैं? इसका सवाल ही नहीं उठता। आखिर कांग्रेस क्यों आम आदमी पार्टी के लिए सीटें छोड़ेगी और यदि कुछ सीटें छोड़ भी दी, तो आम आदमी पार्टी कुछ सीटों पर ही चुनाव क्यों लड़ेगी?

आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन में एक और समस्या है। आम आदमी पार्टी अरविंद केजरीवाल को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर लोकसभा का अगला चुनाव लड़ना चाहती है। क्या नीतीश कुमार विपक्षी गठबंधन को इसके लिए तैयार कर पाएंगे? बिहार के जदयू नेता तो नीतीश को ही पीएम मटेरियल बता रहे हैं, लेकिन खुद नीतीश कुमार पीएम प्रत्याशी बनने का दावा नहीं करते, लेकिन जो लोग दावा करते हैं, उन्हें अपना दावा वापस लेने से नीतीश कैसे रोक सकते हैं?

अरविंद केजरीवाल के अलावा ममता बनर्जी भी प्रधानमंत्री पद की दावेदार है। उनकी पार्टी के लोग इसी लाइन पर बात करते हैं, हालांकि उन्होंने खुद ऐसा साफ साफ कभी नहीं कहा। पर ममता बनर्जी का विपक्ष से गठबंधन करने का मतलब क्या होगा? क्या बंगाल में वह कांग्रेस और वामपंथी दलों के लिए सीटें छोड़ेगी या कांग्रेस और वामपंथी दल असम, त्रिपुरा वगैरह में ममता की पार्टी के सीटें छोड़ पाएंगी? दोनों ही कठिन काम है। अपने मजबूत गढ़ पंजाब की सारी सीटों पर चुनाव लड़कर ममता जीतना चाहेंगी, ताकि भाजपा के बाद उनके पार्टी के लोकसभा सांसदों की संख्या सबसे ज्यादा और त्रिशंकु लोकसभा होने की परिस्थिति में पीएम पद का उनका दावा सबसे ज्यादा मजबूत हो। वह यह भी सोंच रही होंगी कि आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के सांसदों की संख्या 40 से भी नीचे गिर सकती है, क्योंकि केरल में इस बार कांग्रेस द्वारा 2019 का प्रदर्शन दुहराना संभव नहीं हो पाएगा और पंजाब में भी शायद उसे अपनी वर्तमान सीटें गंवानी पड़े।

इसलिए नीतीश कुमार का काम आसान नहीं है। सच कहा जाय, तो लोकसभा चुनाव के पहले विपक्ष में पूर्ण गठजोड़ हो पाना लगभग असंभव है। जिन प्रदेशों में भाजपा के अलावा कांग्रेस ही एकमात्र पार्टी है, वहां कांग्रेस किसी अन्य को सीटें नहीं देंगी और जहां क्षेत्रीय पार्टियां मजबूत हैं, वहां वे एकाध अपवाद को छोड़कर कांग्रेस को सीटें नहीं देंगी। अलग अलग क्षेत्रीय पार्टियों के गठबंधन का कोई मतलब ही नहीं, क्योंकि तमिलनाडु के स्टालीन बिहार के नीतीश कुमार और पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी को गठबंधन का क्या फायदे दे सकते हैं? दूसरे तरीके से देखें, तो केजरीवाल, नीतीश कुमार और ममता बनर्जी तमिलनाडु में स्टालीन से गठबंधन कर उन्हें क्या फायदा पहुंचा सकती है?

इसलिए भाजपा विरोधी विपक्षी नेताओं को व्यापक गठबंधन के मोह से बचकर अपने अपने गढ़ों में भाजपा को पराजित करने की कोशिश करनी चाहिए। यदि बिहार का महाबंधन बिहार में भाजपा की सीटें शून्य कर दे, ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में भाजपा की सीटें शून्य कर दें, ओडिसा में नवीन पटनायक भाजकी सीटें शून्य कर दें, दिल्ली में केजरीवाल भाजपा की सीटें शून्य कर दें, तो फिर भाजपा बहुमत के आंकड़ों से बहुत दूर रह जाएगी। (संवाद)