लेकिन विपक्षी एकता में अनेक बाधाएं हैं और सबसे बड़ी बाधा का नाम है कांग्रेस, जो अपने खराब दिनों में भी आज देश के बहुत बड़े हिस्से में फैली हुई है। वह सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है और उसका विस्तार भी विपक्षी पार्टियों में सबसे ज्यादा है, इसलिए उसक विपक्षी मोर्चे का नेतृत्व करने का दावा गलत भी नहीं है। लेकिन उसका विस्तृत होना विपक्षी एकता में सबसे बड़ी बाधा है। अधिकांश क्षेत्रीय पार्टियों के साथ उसका सीटों का गठबंधन होना बहुत ही मुश्किल का काम होता है।
अनेक राज्यों में तो क्षेत्रीय दलों के साथ उसकी मोर्चेबंदी हो ही नहीं सकती, क्योंकि कांग्रेस खुद इतनी कम सीटों पर नहीं लड़ना चाहती, जिससे उस राज्य में उसका अस्तित्व पर ही खतरा हो जाए। जहां जहां कांग्रेस जूनियर पार्टनर बनकर चुनाव लड़ी है, वहां-वहां वह समाप्त होती गई है। उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और झारखंड इसका उदाहरण है। उत्तर प्रदेश में वह अपने बूते लड़ी, उसे दो सीटें आईं। बिहार और झारखंड में भी यदि वह अपने बूते लड़े, तो नतीजा अलग नहीं होगा। यानि जूनियर पार्टनर के रूप में गठबंधन के बाद वह पूरी तरह से क्षेत्रीय पार्टी पर हमेशा के लिए आश्रित हो जाती है और यदि अकेले चुनाव लड़े, तब मुश्किल से एकाध सीटें जीत पाती हैं।
इसलिए यदि कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के साथ पूर्ण गठबंधन करने के लिए मोर्चाबंदी करे, तो जिन राज्यों में वह अभी अकेले लड़ती है, वहां भी उसे अपनी जमीन खोनी पड़ेगी। यदि सपा से उसका समझौता होता है, तो उसे मध्यप्रदेश में सपा को सीटें देनी पड़ेंगी, जो वह नहीं चाहेंगी। यदि कांग्रेस आम आदमी पार्टी से समझौता करती है, तो पंजाब में उसे आम आदमी पार्टी को बहुत सीटें देनी होंगी और वहां भी वह समाप्त होने लगेगी। दिल्ली में में तो वह लगभग समाप्त हो ही गई है। आम आदमी पार्टी कांग्रेस के साथ मोर्चा बंदी करेगी, तो गुजरात में भी कांग्रेस से सीटें मांगेगी, जो कांग्रेस हरगिज नहीं देना चाहेगी।
यह तो कांग्रेस की समस्या है। अनेक राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस को सीट नहीं देना चाहेंगी। तेलंगाना में केसीआर कांग्रेस के लिए एक भी सीट छोड़ने को तैयार नहीं होंगे, क्योंकि उनकी खुद प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा है और ज्यादा से ज्यादा सीटें खुद जीतना चाहेंगे। ओडीसा में नवीन पटनायक कांग्रेस के साथ समझौता करने की नहीं सोच सकते और इसकी कारण उनकी पार्टी विपक्षी एकता की मुहिम से बाहर रहती है। उनका खुद का दिल्ली आना जाना बहुत कम रहता है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी भी कांग्रेस के लिए सीटें नहीं छोड़नी चाहेंगी। वह खुद प्रधानमंत्री पद की दावेदार हैं और अपनी पार्टी के निशान पर ज्यादा से ज्यादा सीटें निकालना चाहेंगी। कांग्रेस की खराब होती स्थिति बरकरार रही और ममता बनर्जी ने भारी जीत दर्ज की, तो यह संभव है कि उनकी तृणमूल कांग्रेस भाजपा के बाद लोकसभा में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी हो सकती हैं। पश्चिम बंगाल में लोकसभा की 42 सीटें हैं और यदि उनमें 40 पर भी उनकी पार्टी जीतती है, तो फिर कांग्रेस को वह संख्या के खेल में पीछे छोड़ सकती है।
गुलाब नबी आजाद ने कहा है कि कांग्रेस की सीटें अगले लोकसभा चुनाव में घटकर 25 हो जाएगी। अब जो कांग्रेस की स्थिति है, उसमें यह असंभव नहीं। कांग्रेस की सीटें अभी केरल, तमिलनाडु और पंजाब के कारण है। केरल में उसका मुकाबला वाम मोर्चे से है। जितनी सीटें उसने केरल से पिछले लोकसभा चुनाव में जीता था, उसे बचाना उसके लिए मुश्किल होगा। तमिलनाडु में अब सत्तारूढ़ पार्टी के साथ है। इसके कारण सत्ता विरोधी भाव का सामना उसे तमिलनाडु में भी करना होगा। इसलिए वहां भी उसकी सीटें घटेंगी। पंजाब में उसकी हालत बहुत खराब हो चुकी है। इसलिए वहां भी उसकी सीटें घटेंगी। जहां- जहां उसका सीधा संघर्ष भाजपा से है, वहां वहां लोकसभा चुनाव में उसका जीतना कठिन होता रहा है। अब कांग्रेस की हालत तो और भी बदतर हो गई है। इसलिए वैसे राज्यों में उसकी जीत और कठिन होगी। असम जैसे राज्यों में भाजपा ने अपने को बहुत मजबूत कर लिया है। वहां कांग्रेस की पराजय तय है।
इसलिए विपक्ष कांग्रेस के साथ मोर्चेबंदी कर ज्यादा हासिल नहीं कर सकता। पहली बात तो यह है कि कांग्रेस को मोर्चे में रखकर भाजपा विरोधी सभी क्षेत्रीय पार्टियों को एक साथ लाना संभव ही नहीं। केसीआर कांग्रेस के साथ जाने से मना कर चुके हैं और नवीन पटनायक बिना कहे यही कह रहे हैं। दूसरी बात यह है कि अनेक क्षेत्रीय दलों को कांग्रेस से गठबंधन करने से कोई फायदा नहीं है। ममता बनर्जी को कांग्रेस से कोई फायदा नहीं है, उलटे पश्चिम बंगाल से बाहर विस्तार करने में उन्हें दिक्कत होगी। उत्तर प्रदेश में भी अखिलेश को कांग्रेस के साथ समझौता करने में कोई फायदा नहीं है, बल्कि नुकसान है, क्योंकि सीटें कांग्रेस के लिए छोड़ने के कारण सपा के टिकट उम्मीदवार पार्टी छोड़ देते हैं या निष्क्रिय हो जाते हैं। इतना ही नहीं, वे कांग्रेसी उम्मीदवारों को इस उम्मीद में हरा देते हैं कि आने वाले चुनाव में शायद उन्हें फायदा हो।
यदि कांग्रेस को अलग कर विपक्षी पार्टियां मोर्चा बनाए तो यह आसानी से बन जाएगी, क्योंकि क्षेत्रीय पार्टियों का अपना अलग क्षेत्र है, जहां वे एक दूसरे से नहीं टकराती। यह सच है कि एक राज्य की क्षेत्रीय पार्टी का दूसरे राज्य में कोई प्रभाव नहीं, इसलिए वे अतिरिक्त वोट दिलवा सकते, लेकिन एकताबद्ध होने से एक ऐसा संदेश जाता है, जिससे क्षेत्रीय पार्टी अपना वोट प्रतिशत कुछ बढ़ा सकती है। अब यदि क्षेत्रीय पार्टियों की पूर्ण मोर्चेबंदी हो जाय, तो यह लगने लगेगा कि भाजपा को सत्ता से बाहर किया जा सकता है। इस तरह की उम्मीद मात्र क्षेत्रीय पार्टियों को मजबूत प्रदान करती है और फेंस सीटर गठबंधन के दलों की ओर आकर्षित हो सकते हैं।
इसलिए अब गैर-कांग्रेस गैर-भाजपा का वह मोर्चा बनाना चाहिए, जो 1990 के दशक में बनता था। इस तीसरे मोर्चे का उद्देश्य 272 से ज्यादा सीटें लाना होना चाहिए। और यदि उतनी सीटें नहीं आती है, तो कांग्रेस के साथ चुनाव बाद गठबंधन का रास्ता तो खुला रहेगा ही। (संवाद)
गैर-कांग्रेस गैर-भाजपा मोर्चा बनाने का केसीआर का प्रस्ताव ज्यादा व्यावहरिक
कांग्रेस को मोर्चे में रखना घाटे का सौदा साबित होगा
उपेन्द्र प्रसाद - 2022-09-17 11:56
आगामी लोकसभा चुनाव के लिए सभी पार्टियां अभी से तैयारी में जुट गई हैं, लेकिन इस मामले में भारतीय जनता पार्टी का कोई मुकाबला नहीं। कहा जाता है कि यह पार्टी हमेशा चुनावी मोड में रहती है, भले उस समय चुनाव नहीं हो रहे हों। इसलिए उसका सबसे ज्यादा चुनाव के लिए तैयार रहना लाजिमी है। इधर विपक्षी पार्टियां मोर्चेबंदी की कोशिश कर रही है, ताकि भाजपा का 2024 में बहुमत पाने से रोका जा सके। विपक्षी पार्टियों में अब जदयू भी शुमार हो गया है, जिसके नेता नीतीश कुमार भी विपक्षी एकता संभव बनाने में जुट गए हैं।