हमारे प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू बर्मा के दौरे पर थे। नेहरू के साथ अनौपचारिक बातचीत के दौरान यू नु ने एक टिप्पणी की। उनकी टिप्पणी थी ‘‘पंडित जी क्या आप यह जानते हैं - यह सौभाग्य की बात है कि श्री सुभाष बोस के लिए जापानी भारत नहीं आए। यदि वे होते, तो श्री बोस को खुद को और देश को उनसे मुक्त करना मुश्किल होता।

सुभाषचंद्र बोस के जर्मनी और जापान से मदद लेने के विचार के साथ भारत छोड़ने के बाद, भारत में इस बात को लेकर एक बड़ी बहस छिड़ गई कि जर्मनी और जापान यदि द्वितीय विश्व युद्ध में विजयी हो गए तो क्या करेंगे। जब सुभाष बोस ने जर्मनी और जापान के शासकों से स्पष्टीकरण मांगा, तो उनका जवाब बोस के लिए एक झटके के रूप में आया। दोनों देशों का उत्तर निश्चित रूप से यह था कि हम भारत पर शासन करेंगे और साथ ही हम ऐसे सभी देशों पर शासन करेंगे जिन्हें हम युद्ध में शामिल करेंगे। आखिर हम किस लिए यह जंग लड़ रहे हैं।

जब सुभाष बोस ने भारत को ब्रिटेन के चंगुल से छुड़ाने के अपने प्रयास में हिटलर और हिरोहितो की मदद लेने के उद्देश्य से भारत छोड़ने का फैसला किया, तो भारत में ब्रिटेन के साथ युद्ध छेड़ने वाली सेनाएं बोस के उद्देश्य के बारे में संदेहवादी थीं। उस समय सुभाष बोस को कार्टूनों में जापानियों के पालतू जानवर के रूप में दिखाया गया था। हमारे दुश्मन के दुश्मन के साथ एकजुट होने की बोस की रणनीति की न केवल आलोचना की गई थी, बल्कि उनकी देशभक्ति पर भी सवाल उठाया गया था और उन पर हमला किया गया था। उन्हें एक जापानी एजेंट के रूप में माना और चित्रित किया गया था।

युद्ध के प्रति अपनी प्रतिक्रिया में कांग्रेसी एक नहीं थे। एक चरम पर थे सुभाष बोस। उसी समय सी. राजगोपालाचारी थे, जो गैंगस्टरवाद (हिटलर और जापान) के खिलाफ लड़ाई में ब्रिटेन को पूरे दिल से समर्थन देना चाहते थे।

नेहरू का फासीवाद से गहरा द्वेष था और वे मानते थे कि भारत जिस साम्राज्यवादी दमन के अधीन था, वह एक प्रकार का फासीवाद था। इसलिए उन्होंने सुझाव दिया कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद से आजादी के लिए भारत के संघर्ष को फासीवाद के खिलाफ विश्वव्यापी संघर्ष से जोड़ा जाना चाहिए। दूसरी ओर सुभाष बोस ‘दुश्मन का दुश्मन दोस्त है’ के तर्क का अनुसरण कर रहे थे। सुभाष इस सिद्धांत के प्रमुख प्रवक्ता थे। नेहरू इस तर्क से सहमत नहीं थे। और इस वजह से नेहरू और अन्य फासीवादी ताकतों के खिलाफ विश्व क्रांतिकारी आंदोलन के खेमे में बने रहे। नेहरू फासीवाद और साम्राज्यवाद को जुड़वां भाई मानते थे। वे फासीवादियों की सहायता से ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का विरोध करने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। न ही वह फासीवादी सत्ता को आगे बढ़ने से रोकने के बहाने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को समायोजित करने के बारे में सोच सकते थे।

जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में यह भारतीय राय सुभाष की पूरी तरह से विरोधी थी। नेहरू नाजीवाद और फासीवाद के खतरों से पूरी तरह अवगत थे। द्वितीय विश्व युद्ध के फैलने से बहुत पहले नेहरू को पता था कि हिटलर पूरे यूरोप पर कब्जा करना चाहता है। इतना ही नहीं उसने नाजीवाद का गंदा दर्शन विकसित किया। यहूदियों की नस्ल को नष्ट करने के लिए नाजीवाद का इस्तेमाल किया गया था। नेहरू और उनके समान विचारधारा वाले कांग्रेसी इस बात से अवगत थे कि हिटलर के साथ जुड़ना अमानवीय था। हिटलर द्वारा प्रचारित घटिया विचारधारा के बावजूद सुभाष बोस उसके साथ जुड़े। नेहरू इस बात से पूरी तरह वाकिफ थे कि अगर हिटलर द्वितीय विश्व युद्ध जीत जाता है तो वह भारत को आजादी नहीं देगा। नेहरू स्वतंत्रता प्राप्ति में हिटलर की मदद लेने का जोखिम उठाने के लिए तैयार नहीं थे। इस प्रकार एक महान देशभक्त होने के बावजूद सुभाष बाबू ने गलत रास्ता अपनाया और उन्हें एक नायक के रूप में नहीं माना जा सकता।

लेकिन नरेंद्र मोदी ने सुभाष बोस को हीरो मानने का फैसला क्यों लिया? शायद इसलिए कि हिटलर की विचारधारा और आरएसएस के विचारों के बीच एक साझा तत्व है, जिसे नरेंद्र मोदी प्यार करते हैं। एक समय था जब आरएसएस प्रमुख गुरु गोलवलकर ने हिटलर की विचारधारा की सराहना की थी। यह भी बताता है कि क्यों नरेंद्र मोदी सुभाष की प्रशंसा करते हैं और नेहरू से नफरत करते हैं। (संवाद)