यह एक असाधारण और विचित्र प्रस्ताव है। इसके लिए तर्क दिया गया है–“जहां आयोग वायदों की प्रकृति के प्रति अनभिज्ञ है, वहींनिकट भविष्य में इन्हें लागू करने के वित्तीय प्रभावों तथा वित्तीय स्थिरता केदीर्घ काल तक बने रहने पर राजनीतिक पार्टियों की व्याख्या स्वस्थ बहस के लिए आवश्यक है, जो स्वतंत्र तथा निष्पक्ष चुनाव के लिए अधारभूत आवश्यकता है।”
चुनाव आयोग की ऐसी व्याख्या चुनावों की गंदगी को धोती नहीं है। यदि कोई राजनीतिक दल सरकारी स्कूलों में जाने वाले बच्चों को मुफ्त स्कूल यूनिफॉर्म देने का फैसला करता है, तो ऐसे वायदे की योग्यता चुनाव में मतदान करने वाले लोगों द्वारा तय की जानी है। वित्तीय लागत क्या होगी और वर्दी योजना के लिए वित्त कैसे आवंटित किया जाना है, यह नव-निर्वाचित सरकार को तय करना है। चुनाव आयोग इस मामले में कहां है?
आयोग के अनुसार फार्म के दूसरे भाग में कुछ वित्तीय सूचनाएं संबंधित केन्द्र या राज्य सरकारों द्वारा नवीनतम बजट या संशोधित अनुमान के आधार पहले से ही भरी जानी है। राजनीतिक पार्टी के दाहिनी ओर के रिक्त स्थान में चुनावी वादों को पूरा करने पर बढ़े हुए संभावित खर्च को कैसे पूरा किया जायेगा यह बताना है। इस तरह की कवायद में वित्तीय लेखांकन का एक जटिल मामला शामिल होगा जो केवल वित्तीय विशेषज्ञों की एक टीम द्वारा ही संभव होगा, जिनके पास आधिकारिक बजट बनाने का अनुभव है।
इसके अलावा चुनाव आयोग के यह आकलन करने की इच्छा कि राज्य या केंद्र सरकार की वित्तीय स्थिरता पर "अतिरिक्त संसाधन जुटाने की योजना (वादों को पूरा करने के लिए) का क्या प्रभाव होगा” एक खतरनाक दायरे में प्रवेश है। लगता है कि आयोग ने राजकोषीय रूढ़िवादिता और राजकोषीय स्थिरता की नव-उदारवादी धारणाओं को स्वीकार करता है। जहां तक माकपा का संबंध है, वह राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम का विरोध करती रही है, जो राजकोषीय घाटे की सीमा को सकल घरेलू उत्पाद के 3 प्रतिशत पर सीमित करता है। क्या चुनाव आयोग वित्तीय स्थिरता क्या है के निर्धारण में मध्यस्थ के रूप में कार्य करेगा?
राजनीतिक दलों द्वारा किए गए चुनावी वादों के वित्तीय प्रभावों के बारे में विवरण प्राप्त करने और संबंधित सरकार की वित्तीय स्थिति से मिलाने की ओर कदम आश्चर्यजनक है क्योंकि कुछ ही महीने पहले, इस साल अप्रैल में, चुनाव आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय को दिये एक हलफनामे में कहा था: " मुफ्त उपहार की पेशकश तथा वितरण संबंधित पार्टी का नीतिगत निर्णय है। और क्या ऐसी नीतियां आर्थिक रूप से टिकाऊ हैं या राज्य के आर्थिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं, का निर्णय मतदाताओं को करना है।”
चुनाव आयोग ने यह भी कहा था कि वह राज्य की नीतियों और निर्णयों को विनियमित नहीं कर सकता जो जीतने वाली पार्टी को सरकार बनाने पर करना है। "इस तरह की कार्रवाई, कानून में प्रावधानों को सक्षम किए बिना, शक्तियों का अतिरेक होगा"।
तब चंद महीनों के अंतराल में यह हृदय परिवर्तन क्यों? क्या जुलाई में प्रधानमंत्री मोदी के भाषण में 'रेवडी' संस्कृति की आलोचना और इसके लिए विपक्ष को दोषी ठहराने का प्रभाव चुनाव आयोग के इस नये निर्णय का कारक बना? "मुफ्त उपहार" पर शुरू हुई पूरी बहस खाद्य पदार्थों, खाद, तथा बिजली पर दी जाने वाली सबसिडियों पर नव-उदारवादी आपत्तियों को व्यक्त करने के अलावा और कुछ नहीं था, जिसे वे सार्वजनिक संसाधनों की बर्बादी कहते हैं। प्रचलित नव-उदारवादी ज्ञान के अनुसार, विकास को बढ़ावा देने के लिए मेहनतकश लोगों को धन के बदले धन का हस्तांतरण बड़े पूंजीपतियों को किया ही जाना चाहिए।
यही कारण है कि जब सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव के समय राजनीतिक दलों द्वारा "मुफ्त उपहारों" के वायदों के खिलाफ एक भाजपा नेता की याचिका पर सुनवाई शुरू की, तो माकपा ने कहा था कि यह सर्वोच्च न्यायालय के विचार-विमर्श के लिए नहीं है कि क्या “मुफ्त उपहार” है और क्या नहीं। माकप का मत स्पष्ट हैः यह मुद्दा विशुद्ध रूप से राजनीतिक क्षेत्र से संबंधित है। लोकतंत्र में राजनीतिक दल चुनावी घोषणा पत्र में अपने मंच और वायदे तय करने के लिए स्वतंत्र होते हैं। यह लोगों पर है कि वे उनपर निर्णय करें, उन्हें स्वीकार करें या अस्वीकार। यह विशेषाधिकार राजनीतिक पार्टी का हैकि वे सरकार में आने पर अपने कल्याणकारी उपायों के संबंध में किये गये वायदों को लागू करे।
भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एन वी रमना की अध्यक्षता वाली पीठ ने उस याचिका पर सुनवाई की थी जिसमें 2013 में दो सदस्यीय पीठ द्वारा सुब्रमण्यम बालाजी मामले में दिए गए फैसले पर पुनर्विचार की मांग की गई थी। न्यायमूर्ति रमण के कार्यकाल के आखिरी दिन 26 अगस्त को मुख्य न्याधीश ने निर्देश दिया कि मामले की सुनवाई नये मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ द्वारा की जाए। यह मामला अभी भी सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है।
इससे चुनाव आयोग के लिए आदर्श आचार संहिता में नए दिशानिर्देश डालने की हड़बड़ी और भी पेचीदा हो गयी है। क्या यह कल्याणकारी योजनाओं और विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा किए जा रहे प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण पर लक्षित है? प्रधान मंत्री सभी केंद्रीय योजनाओं को वास्तविक कल्याणकारी उपाय मानते हैं, जबकि विपक्षी राज्य सरकारों द्वारा की गयी समान कल्याणकारी योजनाओं को "मुफ्त" के रूप में ब्रांडेड किया जाना है। चुनाव आयोग का ताजा कदम प्रधानमंत्री के विचारों के अनुकूल लगता है।
राजनीतिक दलों द्वारा किये गये चुनावी वायदों के वित्तीय निहितार्थ पर चुनाव आयोग का हस्तक्षेप लोगों की महत्वपूर्ण चिंताओं को दूर करने और लोकतांत्रिक तरीके से उनका जवाब देने के राजनीतिक दलों के अधिकार का गंभीर उल्लंघन होगा। चुनाव आयोग के इस कदम के विरोध में सभी राजनीतिक दलों को एक होना चाहिए। (संवाद)
राजनीतिक दलों के अधिकारों का हनन कर रहा है चुनाव आयोग
जन-विरोधी प्रस्तावों के खिलाफ विपक्ष एकजुट हो
प्रकाश कारत - 2022-10-07 14:12
भारत का चुनाव आयोग चाहता है कि राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणापत्र में किए गये वायदों के वित्तीय प्रभावों के साथ-साथ राज्य या केंद्र सरकार के वित्त की वित्तीय स्थिरता पर उनके प्रभावों के बारे में विस्तृत जानकारी प्रदान करें। इसके लिएउसने आदर्श आचार संहिता में संशोधन करने का प्रस्ताव किया है ताकि दो-भाग वाले फार्ममें वायदों तथा उनके वित्तीय प्रभावों को राजनीतिक पार्टियों द्वारा भरने की व्यस्था की जा सके।