शुक्रवार, 13 अक्तूबर 2006
भूल-भुलैयों का मजा भी लीजिए
प्रधान मंत्री डा. मनमोहन सिंह के साथ

ज्ञान पाठक

सबकी जिंदगी मजे में कटे। डा. मनमोहन सिंह जी की तो कट गयी। उनके साथ सबकी जिंदगी मजे में कट सकती है। उनके साथ गर्दन तक बड़े प्यार से कट जाती है। उनके साथ तो हल्ला हंगामा से भी बचकर साफ निकल जाना आसान हो जाता है। पुरानी कहावत है – जैसा देवता वैसी पूजा। उसमें डाक्टर साहब को महारत हासिल है। हर तरह के देवता को वे मजे में रखना जानते हैं।

अभी वह विदेश यात्रा पर कैम्ब्रिज भी चले गये थे। कानून में डाक्टरेट की मानद उपाधि हासिल करने का मजा लेते हुए उन्होंने एक मजेदार भाषण दिया। उनके भाषण का मजा इस लेखक ने भी लिया, और अब आप भी लीजिए।

“जब मैं 1950 के दशकमध्य में कैम्ब्रिज आया तो शीत युद्ध ने दुनिया को दो भागों में बांट दिया था। कुछ ही साल पहले भारत आजाद हुआ था... भारत के लिए वह उम्मीदों का युग था और विकास की संभावनाओं के बारे में बड़ी उम्मीदें थीं।”

“आज दुनिया पूरी तरह बदल गयी है।... राज्यों के नियंत्रण समाप्त होने से सीकड़ों में बंधी आर्थिक शक्तियां सीकड़ों से मुक्त हो गयी हैं।... स्वतंत्रता का यह युग आर्थिक विकास का भी युग है। प्रोमेथियस सचमुच ही बंधनमुक्त हो गया है।”

आखिर यह प्रोमेथियस था कौन? आर्थिक शक्तियों के साथ इनकी तुलना का मजा लेने के लिए इन्हें जानना जरुरी है। शायद बहुत लोग नहीं जानते हों क्योंकि प्रोमेथियस प्राचीन महान सभ्यता वाले ग्रीस के देवता हैं, जिस धर्म को मानने वाला एक भी व्यक्ति आज इस धरती पर नहीं है।

ग्रीस की पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार देवताओं के देवता जीयस आदमी के कुकर्मों से इतने नाराज हो गये थे कि उन्होंने सभी को नष्ट कर बेहतर आदमी की सृष्टि करने का निर्णय कर लिया। प्रोमेथियस भी एक देवता थे जिन्होंने देव समुदाय से दगाबाजी कर उसी कुकर्मी मानव प्रजाति की रक्षा के लिए इन्हें आग और अन्य सभी सुविधाएं मुहैया करा दी थीं। बाद में सबने जीयस को मना लिया कि वह पुराने मानव को नष्ट न करें और नये बेहतर मानव की सृष्टि भी न करें। फिर भी अपने ही देव समुदाय से धोखेबाजी करने के लिए प्रोमेथियस को दंडित किया ही जाना था और उन्हें कभी न टूटने वाले सीकड़ों से चट्टानों में बांध दिया गया था। काफी समय बाद, दंड काफी मिल गया यह समझकर और दया करते हुए उनके सीकड़ खोल दिये गये थे।

संभवत: मनमोहन सिंह ने धनी वर्ग के साथ होने वाले ‘अन्याय’ को समझा और इसलिए कहा कि मानव मात्र के लिए कल्याणकारी इस वर्ग को सीकड़ों में बांध रखा गया था और अब ये सचमुच सीकड़ों के बंधन से मुक्त हो गये हैं।

वैश्वीकर, उदारीकरण, निजीकरण आदि नयी आर्थिक नीतियों को चलाने वाली दुनिया की आर्थिक शक्तियों को मजा और आनंद दिलाने के लिए मनमोहन सिंह के इस भाषण से अच्छा भाषण और क्या हो सकता था!

आगे उन्होंने अपने भाषण में बताया कि किस तरह सीकड़ों से मुक्त ये आर्थिक शक्तियां दुनियां का भला करने का काम कर रही हैं।

“विकासशील दुनिया के अनेक हिस्सों में, विशेषकर भारत और चीन में, प्रति व्यक्ति आय दोगुनी हो रही है या प्रत्येक दशक मे दोगुनी हो जाने की सम्भावना है। यह लाखों लाख लोगों को गरीबी से उबार देगी। परिवर्तन की यह गति अप्रत्याशित है, जो यूरोप में हुए उद्योगीकरण के समय से भी काफी ज्यादा है। मुक्त व्यापार और धन का प्रवाह दुनिया में बढ़ जाने से मुद्रास्फीति को नियंत्रित रखने, ब्याज दरों को कम करने और निवेश का उच्च स्तर कायम रखने में मदद मिली है।”

उन्होंने बड़े गर्व से कहा कि भारत में उन्होंने ऐसी ही नयी व्यवस्था कायम की है। “हमारा देश सात से नौ प्रति शत प्रति वर्ष की दर से विकसित हो रहा है जबकि मूल्य स्थिर है। गरीबी रेखा से नीचे के लोगों का अनुपात घट रहा है,” उन्होंने कहा।

हिमाचल प्रदेश के सोलन जिले से आये मेरे एक मित्र भी डाक्टर साहब के भाषण से काफी आनंदित थे। उन्होंने याद दिलाया कि किस तरह भारत की नाक कटने से मनमोहन सिंह ने बचा लिया। बढ़ते मूल्य से हमारी कमर टूटने की बात कर आखिर वे हमें नीचा क्यों दिखाते, वह भी कैम्ब्रिज में जहां बड़े-बड़े लोग बैठे थे। बड़े लोगों के सामने छोटों को नीचा दिखाना कितनी खराब बात होती। सो उन्होंने मूल्य स्थिर होने की बात कर हमारी इज्जत रख ली।

सेल्फ हेल्प ग्रुप के इस हमारे मित्र सदस्य ने एक और बात बतायी। लेकिन वह बात बताने के पहले मैं यह याद दिला देना चाहूंगा कि उनके ग्रुप में निर्धनतम लोग हैं जो बैंकों से कर्ज लेकर अपना रोजगार चलाते हैं और हमारी सरकार उन्हें मदद देने की वाहवाही लूटती है। उन्होंने बताया कि उनको 12 प्रति शत ब्याज पर धन दिया जाता है। लेकिन उन्हें प्रधान मंत्री की नयी नीति पर प्रसन्नता थी जिन्होंने कैम्ब्रिज तक में हमें बेइज्जत नहीं होने दिया और कह दिया कि ब्याज दरें कम कर दी गयी हैं। उन्हें कानून में मानद डाक्टरेट दी जा रही थी, भला वह कैसे कहते कि हमारे देश में गरीबों से ज्यादा ब्याज दरें वसूली जाती हैं और धनियों से कम। सात प्रति शत के आस-पास की ब्याज दर पर बेचारे सीकड़ों से अभी-अभी मुक्त हुए धनवानों को को कर्ज मिल जाता है, और अधिकारियों की कृपा से सूद-मूल समेत अनेकों पर दया कर माफ भी कर दिये जाते हैं। गरीबों और किसानों पर इतनी सख्ती कि वे हजारों की संख्या में हमारे देश में आत्म हत्या कर लेते हैं। आखिर कानून की उपाधि लेते समय वह यह कथा क्यों बताते कि नयी व्यवस्था में उनके ही देश में कानून की कितनी धज्जियां उड़ायी जाती रही हैं।

हिमाचल के उस मित्र ने याद दिलाया कि डाक्टर साहब कितने हमदर्द हैं। अभियुक्तों को मंत्री पदों पर रखने के लिए उन्होंने कानून की सटीक व्याख्या की कि ऐसा करने पर संविधान में पाबंदी नहीं है, एक से ज्यादा पदों पर रहने के लिए संसद में कानून में संशोधन करवाया, नये देवता प्रोमेथियस (आर्थिक शक्तियों) के सीकड़ तोड़ दिये, उनको जकड़ने वाले लाइसेंस परमिट राज समाप्त कर दिये गये। उनका योगदान कैसे भुलाया जा सकता है कि परेशानी पैदा करने वाले रिक्शा चालकों, रेहड़ी वालों, फेरी लगाने वालों आदि उन्मुक्त छोटे लोगों के लिए कठिन से कठिन लाइसेंस परमिट राज लाये जा रहे हैं। उन्हें कानून की डाक्टरेट ठीक ही दी गयी है, हमारे मित्र ने आनंद से कहा।

दरअसल, डाक्टर साहब के भाषण का आनंद लेने में इस मित्र की जानकारी ने मेरी बहुत मदद की। संक्षेप में उनकी भुल-भुलैया का मजा लेने के लिए जितनी अक्ल होनी चाहिए वह मुझमें नहीं थी।

फिर भी मैंने उनके भाषण की चिंताओं का आनंद लिया, वह भी इसलिए कि नयी अर्थव्यवस्था के इस चैंपियन ने इस बार जो कहा वह उनके पूर्व के भाषणों के विपरीत था। संभवत: वह आलोचकों को खुश करने के लिए कह रहे थे न कि जिस नीति से दुर्दशा हुई है उसे बदलने के लिए। उन्होंने तो उल्टा यह कहा कि इसी नीति को नये जोश से नये स्वरुप में चलाना चाहिए।

चाहे जो हो, उन्होंने जो कहा उसे सुनने भर में मजा है, सोचने पर मजा किरकिरा हो जायेगा।

“वैश्वीकरण के युग की उपलब्धियों से हमारी आंखें चौंधियानी नहीं चाहिए और हमें उन चिंताओं के प्रति अंधा नहीं हो जाना चाहिए जिसे वैश्वीकरण ने हमारे सामने उपस्थित किया है। ...साक्ष्य संकेत देते हैं कि इस प्रक्रिया ने व्यक्तिगत और क्षेत्रीय आय की विषमताओं को दूर नहीं किया है। अनेक विकासशील देशों में विकास गांवों को छूए बिना ही पार हो रही है। वास्तविक वेतन भी ठहर जाने की स्थिति में औद्योगिक देशों तक में कामगार वर्ग बाजार के खुल जाने (सीकड़ों के खुलने) से भयभीत हो रहे हैं। गरीबों और धनियों के बीच खाई बढ़ती जा रही है। ... सेवाओं की गुणवत्ता... गरीबों की जरुरत पूरी करने में सरकारी उपक्रमों की अक्षमता आदि आक्रोश और अलगाव पैदा कर रहे हैं। विध्वंसकारी ताकतों को इससे बल मिल रहा है और लोकतंत्र के व्यवहार पर दबाव पड़ रहा है।”

डाक्टर साहब ने आखिर आलोचकों के मन की भी बात कह दी। वे भी मजे से रहें। वैसे भी हमारे देश में कहा जाता है, “भाई, जो दो मीठे बोल न बोल सके, वह और क्या करेगा।” सो डाक्टर साहब इसमें माहिर हैं। #