2022-23 की पहली तिमाही में यह 18.2 बिलियन डॉलर या जीडीपी का 2.2 प्रतिशत और 2021-22 की दूसरी तिमाही में यानी ठीक एक साल पहले 9.7 बिलियन डॉलर या जीडीपी का 1.3 प्रतिशत था।दूसरे शब्दों में, पहली तिमाही की तुलना में सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में चालू खाता घाटा दोगुना हो गया है तथा एक साल पहले दूसरी तिमाही की तुलना में जीडीपी प्रतिशत में तीन गुना से अधिक की वृद्धि हुई है।

चालू खाते के घाटे के विशाल आकार के अलावा, कम से कम तीन अन्य कारण हैं जिसके कारण भुगतान संतुलन गंभीर चिंता का कारण है।सबसे पहले, चालू खाते के घाटे में पिछली तिमाही की तुलना में $18.2 बिलियन तक की वृद्धि का कारण व्यापारिक घाटे में वृद्धि है, यानी माल के निर्यात पर आयात की अधिकता।व्यापारिक व्यापार घाटा पहली और दूसरी तिमाही के बीच $20 बिलियन से अधिकबढ़ा जो$63 बिलियन से बढ़कार $83.5 बिलियन हो गया।

भारतीय रिज़र्व बैंक के अनुसार यह वृद्धि दो कारणों से थी: पहला, तेल की कीमतों में वृद्धि जो यूक्रेन युद्ध के मद्देनजर हुई और हमारे आयात बिल को बढ़ा दिया;और, दूसरा, विश्व अर्थव्यवस्था में मंदी के कारण हमारे निर्यात का कमजोर प्रदर्शन।मीडिया में आर्थिक टिप्पणीकारों ने माल व्यापार घाटे को बढ़ाने के लिए कमजोर रुपये और घरेलू मांग के बढ़ने जैसे अन्य कारकों को जोड़ा है। लेकिन ये गलत दावे हैं: एक कमजोर रुपये, अगर कुछ भी है, तो व्यापार घाटे में सुधार होना चाहिए;और मांग इतनी नहीं बढ़ी है कि घाटे को इतना बढ़ा सके, क्योंकि सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि जो कि आय का प्राथमिक स्रोत है, कम रही है।

रिजर्व बैंक द्वारा पहचाने गये कारकों के साथ समस्या यह है कि वे जल्द ही दूर नहीं होने वाले हैं।यूक्रेन युद्ध केवल दो देशों के बीच कुछ द्विपक्षीय मुद्दों पर संघर्ष नहीं है।इसका संबंध भविष्य में साम्राज्यवाद के स्वरूप से है और इसलिए इसका एक निर्णायक महत्व है।इसके कारण साम्राज्यवाद युद्ध के किसी भी आसान और सौहार्दपूर्ण समाधान का विरोध करेगा।

इसी तरह, मुद्रास्फीति जो युद्ध से पहले ही प्रकट हो गयी थी, अब इसके परिणामस्वरूप अत्यधिक गंभीर हो गयी है।व्यापार संतुलन 2022-23 की दूसरी तिमाही की तरह कुछ समय के लिए प्रतिकूल बना रहेगा।
चिंता का दूसरा कारण यह है कि 2022 की तुलना में रुपये की विनिमय दर में 10 प्रतिशत तक की तेज गिरावट के बीच व्यापार घाटा होना। एकबड़े घाटे की निरंतरता निश्चित रूप से विनिमय दर मूल्यह्रास की उम्मीदें पैदा करती है, जो बदले में वित्तीय बहिर्वाह के कारण वास्तविक विनिमय दर मूल्यह्रास को जन्म देती है।हम रुपये की बिना अवरोध के गिरावट काल में प्रवेश कर रहे हैं, और फिर मुद्रस्फीति भी बढ़ेगी।

यह सोचा जा सकता है कि भारत के बड़े विदेशी मुद्रा भंडार को रुपये की इस तरह की गिरावट को रोकना चाहिए, लेकिन आरबीआई द्वारा रुपये को स्थिर करने के प्रयासों में लगभग सौ अरब डॉलर खर्च किए जाने के बावजूद मौजूदा गिरावट आयी है।2022-23 की दूसरी तिमाही में ही भंडार में 25 अरब डॉलर की गिरावट आयी थी।भंडार की कमी रुपये में गिरावट नहीं रोक सकती।इतना ही नहीं, जैसे-जैसे भंडार का स्तर घटता जायेगा, रुपये के प्रति सट्टा बढ़ेगा, जिससे मामला और भी बदतर हो जायेगा।इस प्रकार हमारे बड़े भंडार के बावजूद भारत का भुगतान संतुलन गंभीर बना रहेगा।

तीसरा कारण यह है कि कम सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि की स्थिति में व्यापार घाटे का होना।2021-22 की इसी तिमाही की तुलना में 2022-23 की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) की जीडीपी वृद्धि 13.5 प्रतिशत रही थी, जो कोविड-प्रेरित गर्त से रिकवरी को दर्शाता है।लेकिन दूसरी तिमाही में वृद्धि दर पिछले वर्ष की इसी अवधि की तुलना में मात्र 6.3 फीसदी रही। मूल्य वर्धित (जीवीए) में वृद्धि तोकेवल 5.6 प्रतिशत ही थी।विकास में मंदी का कारण विनिर्माण क्षेत्र का धीमा होना था।संक्षेप में भारत का रेंगता हुआ औद्योगिक ठहराव वृद्धि दर को नीचे खींच रहा है।

व्यापार घाटे में वृद्धि लगभग निश्चित रूप से भारत में ब्याज दरों में और वृद्धि करेगी।यह कई उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए किया जाएगा: घाटे के वित्तपोषण के लिए वैश्विक पूंजी को आकर्षित करने के लिए;घरेलू मांग को कम करके घाटे को कम करने के लिए;और रुपये में गिरावट से उत्पन्न मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए।नवउदारवादी पूंजीवाद के पास बस यही एक साधन है, जो मंदी और बेरोजगारी पैदा करता है।

कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि मौजूदा स्थिति में यह नया नहीं है तथा2012-13 में देश को इसी तरह की स्थिति का सामना करना पड़ा था जब संयुक्त राज्य अमेरिका के फेडरल रिजर्व बोर्ड द्वारा बॉन्ड खरीद को बंद कर दिया गया था, जो अमेरिकी मौद्रिक नीति को कड़ा करने का संकेत दे रहा था। उस समयव्यापार घाटा और रुपये में गिरावट का समान विस्तार हुआ था; तब आज यह इतनी गंभीर चिंता का विषय क्यों होना चाहिए?

तब और अब में बुनियादी फर्क है। विश्व अर्थव्यवस्था वर्तमान में उस समय के विपरीत उच्च मुद्रास्फीति से पीड़ित है, जिसके कारण हर जगह ब्याज दरों में सामान्य वृद्धि हो रही है और पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था मंदी की ओर जा रही है।उस समय आरबीआई ने भारत की ब्याज दर बढ़ाकर स्थिति का जवाब दिया था, जबकि अन्य देश दरें नहीं बढ़ा रहे थे।यही वजह थी कि आरबीआई की प्रतिक्रिया संकट को रोकने में सफल रही।लेकिन अब, ब्याज दर में वृद्धि से काम नहीं चलेगा क्योंकि सभी पूंजीवादी देश ब्याज दरें बढ़ा रहे हैं। यह विश्व में मंदी लायेगी और इसलिए कुछ समय के लिए हमारे व्यापारिक व्यापार घाटे को उच्च बनाये रखेगी, जिससे भारत में आर्थिक संकट जारी रहेगा।

यह सब नवउदारवादी पूँजीवाद की चरम सीमा का संकेत है, और पश्चिमी साम्राज्यवाद के आधिपत्य के लिए गंभीर चुनौती।विश्व पूंजीवाद संक्षेप में इस समय ऐसी स्थिति में है जो इससे आगे निकलने की नयी संभावनाएं पैदा करता है।लेकिन अगर इस तरह के अवसर का लाभ उठाने के बजाय हमारी अर्थव्यवस्था नवउदारवादी पूंजीवाद के शासन में फंसी रहती है, और केवल उधारी का सहारा लेकर अपनी दुर्दशा को दूर करने की कोशिश करती है, तो यह केवल भविष्य में उस आर्थिक संकट को बढ़ा देगा जिसका देश वर्तमान में सामना कर रहा है। (पीपुल्स डेमोक्रेसी - संवाद)