यह न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका की भूमिका को वर्तमान कॉलेजियम प्रणाली में प्रक्षिप्त करने की मोदी सरकार की योजना में अगला कदम है। न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए 1993 में सेकंड जजेज केस के माध्यम से कॉलेजियम प्रणाली की न्यायिक प्रधानता स्थापित की गयी थी। केन्द्रीय कानून मंत्री का पत्र इस बात का संकेत है कि मोदी सरकार न्यायिक प्रधानता में कार्यपालिका के दखल को और आगे बढ़ाने का इरादा रखती है।

वर्तमान में कोई खोज और मूल्यांकन समितियां नहीं हैं और प्रक्रियानामों का चयन कॉलेजियम प्रणाली के जरिये होता है।सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2015 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को रद्द करने के बाद, मोदी सरकार इस फैसले को दरकिनार करने के तरीकों की तलाश कर रही है।

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर काबू पाने का संसद के लिए एकमात्र संवैधानिक तरीका होता एक समुचित कानून पारित करना जिसके माध्यम से न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए वैसी प्रक्रिया स्थापित की जाती जो न्यायिक समीक्षा में खरा उतरता।अभी तक सरकार ने ऐसा नहीं किया है।

इसके बजाय मोदी सरकार के स्तर पर कुटिल तरीकों से न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर करने का एक ठोस प्रयास किया जा रहा है।पिछले कुछ महीनों में कानून मंत्री द्वारा बयानों की बौछार देखी गयी, जिसमें न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली को संविधान से बाहर की बात बताकर आलोचना की गयी और जोर देकर कहा गया कि "संविधान की भावना" न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए सरकार के अधिकार की ओर इशारा करती है।

उन्हें भारत के नव-निर्वाचित उपराष्ट्रपतिजगदीप धनखड़ से सहायता और प्रोत्साहन मिला, जो हाल ही में केशवानंद भारती मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित "मूल संरचना सिद्धांत" पर सवाल उठाने की हद तक गये और घोषणा की कि संसद सर्वोच्च है औरसंविधान में जिस प्रकार से वह उचित समझे संशोधन कर सकता है।

एक संवैधानिक पद पर आसीन धनखड़ ने बहुसंख्यकवादी सरकार के अधिनायकवादी इरादे को स्पष्ट रूप से निर्धारित किया है - न्यायपालिका कार्यपालिका से स्वतंत्र नहीं हो सकती।यह बताया गया है कि सरकार ने पूर्व में भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा गठित और पर्यवेक्षण की गयी एक संयुक्त खोज समिति में सरकार के प्रतिनिधि की मांग करते हुए इसी तरह के पत्र लिखे थे।

रिजिजू के पत्र में अंतर यह है कि यह उच्च न्यायालयों के लिए भी इसी तरह की समितियों की मांग करता है, ताकि उच्च न्यायालय स्तर पर कॉलेजियम का मार्गदर्शन किया जा सके।यह सब एक नये'मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर' के बहाने किया जा रहा है, जिसे 2015 में एनजेएसी मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक अंतिम रूप दिया जाना था।

सरकार द्वारा अपनायी गयी दबाव की रणनीति में से एक उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों और मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए सिफारिशों को मंजूरी नहीं देना रहा है।वर्ष की शुरुआत में, उच्च न्यायालयों के कॉलेजियम द्वारा 104 सिफारिशें की गयी थीं।सुप्रीम कोर्ट ने 6 जनवरी को न्यायाधीशों की नियुक्ति में इस अनुचित देरी पर कड़ा ऐतराज जताया।अटॉर्नी जनरल ने अदालत को आश्वासन दिया कि अगले तीन दिनों के भीतर नियुक्ति के लिए 44 न्यायाधीशों के नामों को मंजूरी दे दी जायेगी, लेकिन अब तक केवल नौ नामों को मंजूरी दी गयी है।

न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की अगुवाई वाली सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने जोर देकर कहा कि कॉलेजियम प्रणाली "स्वदेशी कानून" (लॉ ऑफ द लैंड) है जिसका पालन किया जाना चाहिए।सर्वोच्च न्यायालय ने अब तक कार्यपालिका की बाधाकारी रणनीति के आगे झुकने में कोई झुकाव नहीं दिखाया है और ऐसे सभी कदमों को खारिज कर दिया है।किरेन रिजिजू के नवीनतम पत्र का भी वही हश्र होना चाहिए।(संवाद)