न्यायमूर्ति एस अब्दुल नज़ीर, जो सिर्फ दो महीने पहले सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त हुए थे, की आंध्र प्रदेश के राज्यपाल के रूप में नियुक्ति इस बात का उल्लेखनीय उदाहरण है किमोदी सरकार इस पदको कैसे वितरित करती है।गौरतलब है कि न्यायमूर्ति नज़ीर उस पांच सदस्यीय बेंच का हिस्सा थे, जिसने 2019 में अयोध्या विवाद मामले में सर्वसम्मति से फैसला सुनाया था। ऐसे में इस नियुक्ति को व्यापक रूप से एक मुआवज़े के रूप में देखा जा रहा है।

मोदी सरकार का 2014 में केरल के राज्यपाल के रूप में न्यायमूर्ति पी सदाशिवम को नियुक्त करने का संदिग्ध रिकॉर्ड रहा है, जो भारत के एक सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश के राज्यपाल बनने का पहला उदाहरण था।इस कदम की सेवानिवृत्त न्यायाधीशों और न्यायविदों द्वारा व्यापक आलोचना की गयी, जिन्होंने इस कदम को न्यायिक स्वतंत्रता के लिए खतरा माना।

राज्यपाल के हद पर नियुक्त अन्य लोगों में से चार आरएसएस-भाजपा वंश के हैं।वे ज्यादातर भाजपा के दूसरे दर्जे के नेता हैं, जिनकी एकमात्र योग्यता संभवतः सत्ताधारी पार्टी और आरएसएस के प्रति उनकी वफादारी है।वे राज्यपाल के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन कैसे करते हैं, यह सत्तारूढ़ दल के प्रति उनकी निष्ठा से निर्धारित होने वाला है।

यह इस बात से भी स्पष्ट होता है कि कैसे नियुक्त किये गये लोगों में से एक ने सत्ताधारी दल के नेताओं के प्रति आभार व्यक्त किया है। तमिलनाडु से भाजपा के पूर्व सांसद सीपी राधाकृष्णन ने न केवल राष्ट्रपति जी को बल्कि "हमारे प्रिय परम आदरणीय माननीय प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी और हमारे प्रिय परम आदरणीय माननीय गृह मंत्री श्री अमित शाह जी" को भी हार्दिक धन्यवाद दिया है।

उन्हें झारखंड के राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया गया।पुरस्कृत किये जाने पर ऐसी दासतापूर्ण कृतज्ञता प्रदर्शित करते हुए राज्यपाल के रूप में उनके व्यवहार का भी अनुमान लगाया जा सकता है।नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए, राज्यपालों की पसंद पार्टी के वफादार पदाधिकारियों, आरएसएस के स्वयंसेवकों और लचीले सेवानिवृत्त नौकरशाहों और जनरलों के पूल से है।

पिछले कुछ वर्षों में गैर-भाजपा शासित राज्यों में नियुक्त राज्यपालों ने उन्हें सत्ताधारी पार्टी के एजेंट या उससे भी बदतर राजनीतिक गुर्गे के रूप में दिखाया है।इन राज्यपालों ने संवैधानिक मानदंडों को रौंद डाला है और निर्वाचित राज्य सरकारों से संबंधित मामलों में पर्यवेक्षण और हस्तक्षेप करने का कार्य स्वयं को सौंप दिया है।

इस तरह के दबंग रवैये का एक ताजा उदाहरण पंजाब के राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित द्वारा मुख्यमंत्री भगवंत मान को भेजा गया पत्र है, जिसमें प्रशिक्षण के लिए विदेश भेजे गए स्कूलों के प्रधानाध्यापकों की चयन प्रक्रिया और राज्य सरकार के इसी तरह के अन्य फैसलों पर सवाल उठाया गया है।

राज्य विधायिका में राज्यपाल के अभिभाषण के अंशों को पढ़ने से मना करने से लेकर, वरिष्ठ अधिकारियों को बुलाने और उन्हें निर्देश देने तक, राज्य की सत्ताधारी पार्टी के राजनीतिक पदों की सार्वजनिक आलोचना और लंबित विधानों को सहमति देने से इनकार - भाजपा द्वारा नियुक्त राज्यपाल इस सजावटी पद का लगातार दुरूपयोग कर रहे हैं।

सभी गैर-भाजपा शासित राज्य सरकारों को एक साथ आकर राज्यपालों के उन असंवैधानिक कृत्यों को समाप्त करने की मांग करनी चाहिए, जिन्हें केंद्र सरकार द्वारा प्रोत्साहित और बढ़ावा दिया जाता है।इन राज्यों में संघीय सिद्धांत की रक्षा के लिए लोगों को लामबंद करने और राज्यपालों के मनमाने कार्यों की जाँच करने के लिए सार्वजनिक अभियान भी चलाये जाने चाहिए।(संवाद)