शुक्रवार, 29 सितंबर, 2006
विशेष आर्थिक क्षेत्र की नयी योजना
सरकार की अधिनायकवादी प्रवृत्ति और चीखते-चिल्लाते लोग
ज्ञान पाठक
किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि हमारे महान लोकतांत्रिक देश भारत की आम जनता द्वारा अनिर्वाचित, परंतु सोनिया गांधी द्वारा मनोनीत और खानापूर्ति के लिए कांग्रेस संसदीय दल द्वारा चयनित प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह शीघ्र ही विशेष आर्थिक क्षेत्रों की नयी योजना पर चीखते-चिल्लाते लोगों से बड़ी संजीदगी से यह कहने के लिए सामने आयें कि वह उनकी चिंताओं से चिंतित हैं; उनके हितों का पूरा ख्याल रखा जायेगा; उन्होंने उनके विकास और हितों के लिए ही बहुत सोच-समझकर यह योजना बनवायी है; आप सभी लोग भी ठीक ही कह रहे हैं; हमें उसका ध्यान है; पर मजबूरी है; खूंटा यहीं गड़ेगा; आप धैर्य रखें; मानवीय चेहरा कायम रहेगा;…..। फिर चीखने-चिल्लाने की भी एक सीमा है। मनमर्जी करने वाले अपने अथक प्रयास जारी रखते हैं और विरोधी थक जाते हैं। फिर वही सब होता है जो सरकार चाह रही होती है। मनमोहन सिंह की सरकार में ही ऐसे उदाहरणों की कोई कमी नहीं है।
लेकिन यदि विशेष आर्थिक क्षेत्रों की नयी योजना में भी यही होता है तो यह देश का एक और दुर्भाग्य होगा। प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की भाषा में प्रियोक्ति अलंकार की प्रधानता होती है, और इसी के बल पर वह अंततः सबको मना लेते हैं। उदाहरण के लिए, जब उन्हें आम लोगों के उपयोग की सेवाओं और वस्तुओं की कीमतें बढ़ानी होती हैं तो वे कहते हैं कि “रेशनलाइजेशन” जरुरी है, वरना विकास के लिए धन कहां से आयेगा! जब उद्योगपतियों की जेब भरनी होती है तो वे कहते हैं कि उद्योगों को प्रोत्साहन देना जरुरी है। जब गरीब किसानों की जेब काटनी होती है तो वह कहते हैं खाद्य सबसिडी विनाशकारी है और कृषि क्षेत्र कि विकृतियों की जनक है। कर्मचारियों की छंटनी करने को वह “राइटसाइजिंग” कहते हैं... आदि। वह हमेशा देश के विकास की प्रिय बातें करते हैं और आंकड़े प्रस्तुत कर गणितीय विभ्रम फैलाते हैं, जो पूरा सच नहीं होता। जैसे – किसी स्थान पर पांच लोग रहते हैं और चार लोगों की आय सौ-सौ रुपये होती है तथा एक व्यक्ति की आय एक लाख रुपये प्रति माह होती है, तो वे ढोल पीटने लगते हैं कि प्रति व्यक्ति प्रति माह औसत आय बढ़कर 20,080 रुपये हो गयी है। उत्सवों का आयोजन होने लगता है। विकास की प्रियोक्ति से मोहित लोग फिर उन चार लोगों कि दुर्दशा देख पाने में भी अक्षम होने लगते हैं। उनके गणित ने आखिर साबित कर दिया है कि प्रति व्यक्ति आय बढ़ रही है। जो इसके खिलाफ बात करता है उसे विकास विरोधी भी कहा जाने लगता है।
इसी पृष्ठभूमि में आज के विशेष आर्थिक क्षेत्रों की नयी योजना को देखना चाहिए। सरकार और येन केन प्रकारेण जनहित की कीमत पर धन बटोरने वाली लाबी की प्रियोक्ति के पीछे की असलियत को ही जानना जरुरी नहीं बल्कि यह भी जानना जरुरी है कि इनका विरोध करने वालों की कहीं कोई विशेष मंशा तो नहीं। इन दोनों से परे सर्वाधिक महत्वपूर्ण है गुण दोष के आधार पर नयी योजना को देखना।
विशेष आर्थिक क्षेत्रों के सृजन भारतवर्ष में कोई नयी बात नहीं है। लेकिन इस बार विशेष आर्थिक क्षेत्र अधिनियम 2005 विवादास्पद इसलिए हो गया है क्योकि न्यायपूर्ण विकास की परिकल्पना इसमें से गायब है। यह कुछ लोगों को भारी लाभ पहुंचाता है और वह भी अन्य उद्यमियों और आम लोगों के हितों की कीमत पर। कुछ लोगों को खुरचन के रुप में जो लाभ मिलेगा उसी को सरकार सामने रखकर कह रही है कि देखिये कितनों को रोजगार मिलेगा और संपूर्ण लाभ का गणितीय विभ्रम फैलाते हुए बताया जा रहा है कि कितना विकास होगा। यह एकतरफा है। आखिर देश को यह क्यों नहीं बताया जाना चाहिए कि परियोजना विशेष का कितना कहर किन लोगों पर बरपेगा और उनके हितों की रक्षा के लिए सर्वांगीण योजना है कि नहीं। लाभ और हानि का गणित भ्रामक नहीं बल्कि साफ होना चाहिए। वैसे केन्द्र सरकार ने जो 220 नये विशेष आर्थिक क्षेत्र अनुमोदित किये हैं उनके लिए कोई सर्वांगीण योजना नहीं हो सिवा मुआवजा देने के। इस बीच देश भर से शिकायतें आने लगी हैं कि जमीनें बाजार से भी कम कीमत पर अधिगृहित की जा रही हैं।
ऐसी स्थिति में पूर्व प्रधान मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की आलोचनाओं को महज यह कहकर खारिज कर देना उचित नहीं होगा कि वह फिर से राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश कर रहे हैं। वह शुरु से कह रहे हैं कि योजना में नीतिगत त्रुटियां हैं और एक व्यापक नीति बना लेने के बाद ही इसे लागू किया जाना चाहिए।
दरअसल उन्होंने कुछ भी गलत नहीं कहा। यह नीति जल्दबाजी में बनायी गयी है और इसके कारण स्वाभाविक रुप से त्रुटियां हैं। स्वयं वाणिज्य और उद्योग मंत्री कमल नाथ परेशान हो गये हैं, औरों की तो बात छोड़िए। उन्होंने प्रधान मंत्री से इसमें स्पष्टता लाने के लिए हस्तक्षेप करने की मांग कर रहे हैं क्योंकि भारतीय रिजर्व बैंक ने वाणिज्यिक बैंकों को निर्देश जारी किया है कि इन परियोजनाओं को जमीन जायदाद की परियोजनाएं मानकर कर्ज दिये जायें।
इन योजना की खामियों में एक है इनकी स्थापना के लिए कृषि योग्य भूमि को भी अधिगृहित करना। इसी को लेकर भारी विवाद है क्योंकि किसानों की दुर्दशा को दूर करने के लिए कभी भी देश में पर्याप्त कदम नहीं उठाये गये जबकि आश्वासनों की कभी कोई कमी नहीं रखी गयी। उद्योग को मुकाबले यदि कृषि जगत विशेष कृषि क्षेत्र की स्थापना की बात करे तो उसपर ये ताकतें ध्यान नहीं देतीं हालांकि 70 प्रति शत लोग अब भी इसी क्षेत्र पर निर्भर हैं। हां, एक प्रयास जरुर चल रहा है कि किसानों की जमीनें अधिगृहित कर उद्योगपतियों को दे दी जायें जो उनमें आधुनिक खेती या बागवानी करवायेंगे, और असली भूमि मालिक मजदूर भर रह जायेंगे। इसका भी विरोध हो रहा है जो स्वाभाविक है क्योंकि इस तरह तो आधुनिक जमींदार ही पैदा होंगे।
सरकार को समर्थन देने वाली वाम राजनीतिक पार्टियों तक ने इन नयी योजना में खामियां पायी हैं और माकपा के महासचिव प्रकाश कारत ने कम से कम पांच संशोधनों की बात की है। उन्होंने कहा है कि भूमि आबंटन की अधिकतम सीमा तय हो, आबंटित भूमि में औद्योगिक ढांचे को 75 प्रति शत तक अनिवार्य कर दिया जाये, करों में प्रस्तावित छूटों की समीक्षा हो, विदेशों से आने वाले धन की निगरानी हो, और इनको लिए राज्यों अनुमोदन अनिवार्य हो।
समाजसेविका मेधा पाटकर की मांग भी गौर फरमाने लायक है जिन्होंने मांग की है कि चूकि जमीनें पंचायती राज के अधीन हैं इसलिए उनका भी अनुमोदन हासिल किया जाये।
स्पष्टतः राज्यों और पंचायती राज, जो भारत में शासन की दो महत्वपूर्ण स्तर हैं को तमाम कानूनों के रहते नजरअंदाज कर दिया गया है। एक आकलन में बताया गया है कि इन आर्थिक क्षेत्रों में यदि एक आदमी को रोजगार मिलेगा तो उसके बदले तीस के आजीविका के साधन छिन जायेंगे।
इन आर्थिक क्षेत्रों को इतने लाभ दिये जा रहे हैं कि वे स्वाभाविक रुप से बाहर के अन्य उद्योगों के मुकाबले लाभप्रद स्थिति में रहेंगे। प्रतिस्पर्धा के नाम पर सार्वजनिक क्षेत्रों का विघटन कर उन्हें चहेते निजी उद्योगपतियों की झोली में डालने वाली सरकार आखिर किसके पक्ष में ऐसी योजना ला रही है! यदि समय रहते सुधार नहीं किया गया तो इन आर्थिक क्षेत्रों के बाहर स्थापित उद्योगों और कामगारों को भी भारी नुकसान हो सकता है।
इसके नियम ही कुछ ऐसे बनाये गये हैं कि निर्यात का आधार नहीं तैयार होगा बल्कि कुछ विशेष उद्योगों को देशी बाजार में विशेषाधिकार हासिल हो जाने का खतरा ही ज्यादा है। अन्य समान उद्योगों की दुर्दशा इसी में अंतर्निहित है। मानव संसाधन विकास और अवसंरचना निर्माण के बदले ऐसी योजनाएं बनाने का राज खोजा जाना चाहिए।
मामला काफी गंभीर है और सरकार की प्रियोक्ति अलंकार वाली भाषा पर भरोसा करना ऐसे समय में उचित नहीं होगा। उद्योग और कृषि दोनों क्षेत्रों को अधिकांश लोगों को नुकसान से बचाने का इंतजाम और आगे की विकास की योजनाएं साथ-साथ चलनी चाहिए, एक दूसरे की कीमत पर नहीं। विकृति लाने के अथक प्रयासों के मुकाबले अथक विरोध ही एक रास्ता बचा है तथा चिकनी चुपड़ी बातों में आकर खूंटा वहीं नहीं गड़ने देना चाहिए जहां सरकार चाहती है। पहले चीखते-चिल्लाते लोगों के दुख जरुर सुन लें।#
ज्ञान पाठक के अभिलेखागार से
विशेष आर्थिक क्षेत्र की नयी यो
सरकार की अधिनायकवादी प्रवृत्ति और चीखते-चिल्लाते लोग
System Administrator - 2007-11-11 06:20
मामला काफी गंभीर है और सरकार की प्रियोक्ति अलंकार वाली भाषा पर भरोसा करना ऐसे समय में उचित नहीं होगा। उद्योग और कृषि दोनों क्षेत्रों को अधिकांश लोगों को नुकसान से बचाने का इंतजाम और आगे की विकास की योजनाएं साथ-साथ चलनी चाहिए, एक दूसरे की कीमत पर नहीं। विकृति लाने के अथक प्रयासों के मुकाबले अथक विरोध ही एक रास्ता बचा है तथा चिकनी चुपड़ी बातों में आकर खूंटा वहीं नहीं गड़ने देना चाहिए जहां सरकार चाहती है। पहले चीखते-चिल्लाते लोगों के दुख जरुर सुन लें