इन घटनाओं ने भी सौहार्दपूर्ण समाज के लिए लोगों के निर्णय को नहीं रोका। बीच की कुछ घटनाओं को छोड़ दें तो देश के लोग तब से एक-दूसरे के प्रति बिना किसी नफरत के एक साथ रहते आ रहे हैं। अब, जब हम सभी क्षेत्रों में विकसित हो गये हैं और 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था बनने की आकांक्षा कर रहे हैं, तो हमारे लोगों का एक वर्ग सांप्रदायिक आधार पर और दूसरों के खिलाफ नफरत से भर गया है और उनके मन में पूर्वाग्रह पैदा हो गया है।
समाज के एक वर्ग द्वारा विकसित की गयी यह मानसिकता मानवतावाद की उस अवधारणा के खिलाफ है जिसके लिए भारत हमेशा खड़ा रहा है। जनता को कट्टरता, झूठे प्रचार और मनगढ़ंत इतिहास से बहकाया जा रहा है। जाति, धर्म, जनजाति, और जातीयता के आधार पर दूसरों के प्रति नफरत के गंभीर परिणाम हो सकते हैं। इससे दूसरों के प्रति सहानुभूति और करुणा की हानि होती है।
इतिहास में दर्ज है कि भारत के विभाजन के समय सांप्रदायिक दंगों में 25 लाख से अधिक लोग मारे गए थे। वे हिंदू, सिख और मुस्लिम तीनों समुदायों के थे। नफरत अविश्वास को जन्म देती है जो आगे चलकर एक-दूसरे के खिलाफ हिंसा में तब्दील हो जाती है। हमने इसे 1984 में सिख विरोधी तथा 2002 में गुजरात में मुस्लिम विरोधी नरसंहार के दौरान देखा था।
ऐसी ही स्थिति कश्मीर में भी विकसित हुई जब अल्पसंख्यक कश्मीरी पंडितों को आतंकवादी खतरे और राज्य सरकार के रवैये के तहत पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसलिए भारत में इस समय जो कुछ हो रहा है, वह कोई नयी घटना नहीं है, बल्कि अतीत में ऐसी ताकतें जो करने की कोशिश करती रही हैं, उसका ही एक सिलसिला है। जिन अल्पसंख्यकों को हिंदुओं की बहुसंख्यक 80 फीसदी आबादी के लिए खतरा माना जा रहा है, उनके खिलाफ एक सुनियोजित अभियान चलाया जा रहा है। मुसलमानों के तुष्टिकरण जैसे मिथक लोगों के दिमाग में घर कर गये हैं और यह भी कि वे मशरूम की तरह उगेंगे और चार पत्नियों से शादी करेंगे और जल्द ही हिंदू आबादी से आगे निकल जायेंगे। इस घृणा अभियान में तर्क या सबूत का अभाव है। ये बेतुके विचार इलेक्ट्रॉनिक टीवी मीडिया, सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया और कानाफूसी अभियानों के माध्यम से फैलाये जाते हैं। ऐतिहासिक धारावाहिक कहे जाने वाले कई टीवी धारावाहिकों का इस्तेमाल बहुत ही सूक्ष्म तरीके से झूठ और नफरत फैलाने के लिए किया जा रहा है।
ऐसी स्थितियों में महिलाओं और बच्चों को सबसे ज्यादा परेशानी होती है। स्त्री के शरीर को संघर्षों में एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया गया है। मणिपुर की घटना, जहां महिलाओं को नग्न घुमाया गया और उनके साथ छेड़छाड़ की गयी, को घृणा, क्रोध और हमारी सामाजिक व्यवस्था में गंभीर विचलन के प्रतिबिंब के रूप में देखा जाना चाहिए।
स्थिति के प्रति राज्य की पूरी असंवेदनशीलता इस बात पर संदेह पैदा करती है कि क्या इन घटनाओं को राज्य के संरक्षण में किसी गुप्त उद्देश्य के साथ अच्छी तरह से योजनाबद्ध किया गया है। घृणा अभियान अपने आप नहीं रुकते।
अब हरियाणा में साम्प्रदायिक दंगे कराये गये हैं। नफरत फैलाने वाले खुलेआम घूम रहे हैं जबकि पीड़ितों पर अत्याचार किया जा रहा है। यूपी, दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में भी ऐसी ही घटनाएं होती रहती हैं। अगर अभी इस पर अंकुश नहीं लगाया गया तो इससे गुजरात या मणिपुर के स्तर की बड़े पैमाने पर हिंसा हो सकती है।
जो ताकतें इस तरह के नफरत भरे अभियान चलाती हैं, वे हमेशा यह प्रयास करती रहती हैं कि वे कैसे जनता को अपने पक्ष में कर सकें। 1995 में देशभर में भगवान गणेश की दूध पीती प्रतिमा की घटना बेहद सफल परीक्षण थी। यह संदेश कुछ ही समय में पूरे देश में फैल गया, जबकि उस समय कोई सोशल मीडिया नेटवर्क नहीं था। जब लगा कि पूरा मिथक उजागर हो जायेगा तो यह तुरंत रुक गया। गौरतलब है कि इसके बाद गुजरात में हिंसा हुई थी। यह आश्चर्यजनक है कि महात्मा गांधी की भूमि पर ऐसी अभूतपूर्व हिंसा हुई।
ऐसी स्थितियों पर काबू पाने में डॉक्टर सकारात्मक भूमिका निभा सकते हैं। समाज के स्वास्थ्य के संरक्षक के रूप में डॉक्टरों का कर्तव्य है कि वे अपनी बात कहें और उचित निर्णय लें। उन्हें आगे आना होगा और सद्भाव, प्रेम, और भाईचारे का प्रचार करने के लिए सम्पर्क कार्यक्रम बनाने होंगे। ऐसी स्थितियों में पीड़ित लोगों में आत्मविश्वास विकसित करने में डॉक्टर एक बड़ा साधन हो सकते हैं।
विक्टर फ्रेंकल, एक ऑस्ट्रियाई मनोचिकित्सक, जो नरसंहार से बचे थे, ने नाजी एकाग्रता शिविरों में कैदियों को बेहतर भविष्य की आशा कभी नहीं खोने के लिए प्रेरित करने का एक महान काम किया। अपने लगातार प्रयासों से वह हिटलर के युद्ध हारने के बाद कई लोगों को मरने से बचाने और जीवित रहने में सक्षम बनाया था।
हमारी आवाज़ मायने रखती है। लेकिन हमारी चुप्पी पेचीदा और कर्तव्य के प्रति लापरवाही हो सकती है। नफरत फैलाने वालों की लगातार धमकियों और राज्य की संदिग्ध भूमिका के बावजूद बदलाव आ रहा है। कई वैज्ञानिक जो अब तक शांत थे, मिथकों और अवैज्ञानिक विचारों को चुनौती देने लगे हैं। ताली और थाली बजाने वाले डॉक्टरों को अब एहसास हो गया है कि यह कोविड से छुटकारा पाने का वैज्ञानिक तरीका नहीं था। अंततः हमें 1600 डॉक्टरों की जान की कीमत पर महामारी से लड़ना पड़ा। गौमूत्र या गोबर अभियान का कोई भी अभियान काम नहीं आया।
कई डॉक्टर इस बात को समझते हैं, लेकिन अब समय आ गया है कि उन्हें बोलने की हिम्मत जुटानी चाहिए। घृणा अभियानों का राजनीतिक और सामाजिक दोनों स्तरों पर मुकाबला किया जाना चाहिए। डॉक्टरों को चुप नहीं बैठना है बल्कि देश को इस संकट से बाहर निकालने के उपाय खोजने हैं। डॉक्टर अपने मरीजों के साथ संवाद कर सकते हैं और नरम स्वर में प्यार और करुणा की बात कर सकते हैं जो हमारे पेशे का एक हिस्सा है।
फिर उनसे उनकी भाषा में बात करें। हमें उन ताकतों की पहचान करने से नहीं कतराना चाहिए जो सौहार्द बिगाड़ने पर तुले हुए हैं। हमें यह समझना होगा कि इस तरह की हिंसा एक महामारी स्वास्थ्य समस्या है और इस प्रकार योजना बनायें जैसे हम अन्य बीमारियों के लिए करते हैं। प्राथमिक रोकथाम दृष्टिकोण स्थिति को खराब होने से रोकना है और हिंसा शुरू होने से पहले हिंसा को रोकना है। द्वितीयक रोकथाम जोखिम वाली आबादी और अंतर्निहित जोखिम कारकों को लक्षित करना है।
सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है क्योंकि हिंसक व्यवहार संक्रामक प्रक्रिया है और इससे समान तरीके से निपटना होगा। प्रेम, सहानुभूति, और दूसरों की देखभाल पर जोर देकर सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देना है। फैलाये जा रहे झूठ को बेनकाब करें। तर्क और प्रमाण पर बात करें। कमजोरों और वंचितों के प्रति विनम्र रहें और हमारे समाज में उन हाशिए पर रहने वाले लोगों के खिलाफ दृढ़ रहें जो हमारे देश में सामाजिक सद्भाव के नाजुक संतुलन को बिगाड़ने की कोशिश कर रहे हैं।
समय आ गया है कि हम चुप्पी तोड़ें।
गलत के सामने कभी बगलें न झांकें। (संवाद)
हिंसा की संक्रामक प्रक्रिया को रोकने में हो सकती है डाक्टरों की भूमिका
सामाजिक विकृतियां ही हैं उनकी जड़ें, उनपर सामूहिक कुठाराघात आवश्यक
डॉ अरुण मित्रा - 2023-08-10 12:49
देश के कई हिस्सों में हाल की घटनाओं ने भारतीय समाज के समझदार तत्वों की चेतना को झकझोर कर रख दिया है। आज़ादी के समय शिक्षा का स्तर बहुत निम्न था, गरीबी चरम पर थी, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) मात्र 2.7 लाख करोड़ था वह भी 34 करोड़ की आबादी के लिए, जो दुनिया की कुल जीडीपी का लगभग 3% ही था। उस समय भी भारत के लोगों ने धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र पर आधारित संविधान को अपनाने का विकल्प चुना। यह इसके बावजूद था कि विभाजन के समय बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक दंगे हुए थे और दुनिया में अब तक का सबसे बड़ा जनसंख्या विस्थापन हुआ था।