कानूनी व्याख्याओं और निर्णयों में कानूनी तकनीकता का महत्व है। हालांकि शीर्ष अदालत ने धारा 370 की उपधारा (बी) को हटा दिया, लेकिन उसने सीधे तौर पर यह घोषणा नहीं की कि धारा 370 का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। उपधारा (बी) के अस्तित्व समाप्त होने की पृष्ठभूमि में, यह माना जा सकता है कि धारा 370 अप्रचलित हो गयी है और अस्तित्वहीन है।

बेशक, आरएसएस, भाजपा और मोदी जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाली धारा 370 के प्रावधानों को निरस्त करने की अपनी योजना की सफलता का दावा कर सकते हैं और इसे 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान एक बड़ी राजनीतिक जीत के रूप में इस्तेमाल करने का प्रयास कर सकते हैं। परन्तु संभवतः हिंदू मध्यम वर्ग के मतदाताओं और भक्तों के एक वर्ग के मानस को प्रभावित करने में सफल होने पर, यह निकट भविष्य में राजनीतिक कार्रवाइयों और जवाबी प्रतिक्रियाओं की एक श्रृंखला शुरू कर देगा।

पीठ पर बैठे सर्वश्रेष्ठ न्यायिक दिमागों ने फिर भी फैसला सुनाया कि "जम्मू-कश्मीर की कोई आंतरिक संप्रभुता नहीं है" और 1947 के विलय पत्र के माध्यम से उसने भारत संघ को "पूर्ण रूप से और अंततः आत्मसमर्पित" कर दिया था, और धारा 370 एक अस्थायी उपाय मात्र था। निश्चित रूप से यह जम्मू-कश्मीर के आम लोगों की गलती नहीं है कि उनके पास 'आंतरिक संप्रभुता' नहीं है जो अन्य राज्यों द्वारा प्राप्त संप्रभुता से अलग है। यदि जम्मू-कश्मीर ने पूरी तरह से और अंततः आत्मसमर्पण कर दिया था, तो सरकार ने रक्षा, विदेशी मामलों और मौद्रिक लेनदेन को 370 के दायरे में क्यों रखा और बाकी सब कुछ स्थानीय प्रशासन पर छोड़ दिया, जिसे दिन-प्रतिदिन शासन करना था।

ऐसी स्थिति में सभी निर्णय और प्रशासनिक कार्रवाइयां अप्रासंगिक मानी जायेंगी और उनकी कोई संवैधानिक या कानूनी वैधता नहीं होगी। संप्रभुता एक व्यापक शब्द है और यह भारतीय संदर्भ तक ही सीमित नहीं है। वास्तव में यह एक राजनीतिक अवधारणा है जो प्रमुख शक्ति या सर्वोच्च सत्ता को संदर्भित करती है। राजशाही में, सर्वोच्च शक्ति "संप्रभु" या राजा में निहित होती है। आधुनिक लोकतंत्रों में, संप्रभु शक्ति लोगों के पास होती है और इसका प्रयोग प्रतिनिधि निकायों के माध्यम से किया जाता है। जाहिर है कि जम्मू-कश्मीर में एक विधानसभा थी, इसके सदस्यों का चुनाव राज्य की जनता द्वारा किया जाता था।

इसमें कोई संदेह नहीं कि राष्ट्रपति ने इसे रद्द करने का आदेश दिया। लेकिन उन्होंने गणतंत्रीय लोकतंत्र की रीतियों और मर्यादाओं का पालन करते हुए मोदी सरकार की कैबिनेट के सुझाव पर इसे मंजूरी दे दी। इससे यह भी अंदाजा लगाया जा रहा है कि मोदी सरकार ने किसी गलत इरादे से यह कवायद नहीं की, बल्कि सरकार ने साफ शब्दों में सर्वोच्च न्यायलय को अपनी मजबूरियां बतायीं, पर न्यायालयी आदेश में मजबूरी नहीं झलकती है।

चूंकि इस मामले में मोदी सरकार ने अपने कैबिनेट फैसले के साथ राष्ट्रपति से संपर्क किया था, जाहिर है, "राष्ट्रपति को इस धारा के दूसरे प्रावधान के तहत राज्य सरकार की ओर से कार्य करने वाली राज्य सरकार या केंद्र सरकार की सहमति सुरक्षित करने की आवश्यकता नहीं थी।" 370(1)(डी) संविधान के सभी प्रावधानों को जम्मू और कश्मीर में लागू करते समय, क्योंकि शक्ति का ऐसा प्रयोग धारा 370(3) के तहत शक्ति के प्रयोग के समान प्रभाव रखता है, उसके लिए राज्य सरकार की सहमति या सहयोग आवश्यकता नहीं थी।"

सॉलिसिटर-जनरल तुषार मेहता ने अदालत को बताया था कि अगस्त 2019 में धारा 370 को निरस्त करने के बाद जम्मू-कश्मीर को दिया गया केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा केवल एक “अस्थायी” उपाय था। किस बात ने मोदी सरकार को अस्थायी कदम उठाने के लिए मजबूर किया, अदालत को उनके द्वारा सूचित किया गया होगा कि क्या मिशन पूरा हो गया है। उस वक्त सरकार ने कहा था कि वह उग्रवाद और आतंकवाद को खत्म करने के लिए यह कदम उठा रही है। अब मोदी सरकार को यह स्पष्ट करना चाहिए कि क्या आतंकवाद खत्म हो गया है, विशेषकर इस लिए कि सरकार द्वारा उठाये गये कदम को अस्थायी बताया गया था।

फिर भी गृह मंत्रालय द्वारा राज्यसभा में जारी एक हालिया बयान में स्वीकार किया गया है कि जम्मू और कश्मीर में 2018 से 2022 के बीच 761 आतंकवादी घटनाएं देखी गयीं। इन सभी हमलों में 174 नागरिकों की मौत हुई है। 2018 में सबसे अधिक हमले दर्ज किए गये, जिसमें 228 आतंकवादी-जनित घटनाएं हुईं, जिनमें 40 नागरिकों की जानें चली गयीं; 2019 में 126 आतंकवादी हमले और 39 मौतें दर्ज की गयीं; 2020 में 126 हमले और 32 नागरिक हताहत हुए; 2021 में 129 हमले और 37 मौतें दर्ज की गयीं; और 2022 में 125 आतंकवादी घटनाएं और 26 नागरिक मौतें दर्ज की गयीं।

इसके अलावा राज्य में राजनीतिक अस्थिरता भी बनी हुई है। मोदी सरकार ने नेताओं का भरोसा खो दिया है। इनमें से कई लोग घर में नजरबंद रह रहे हैं।

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि संविधान पीठ के न्यायाधीशों में से एक ने धारा 370 के निरस्तीकरण को बरकरार रखते हुए कम से कम 1980 के दशक से जम्मू-कश्मीर में "राज्य और राज्य के बाहर के सक्रिय" तत्वों द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन की जांच करने और "सुलह के उपायों" की सिफारिश करने के लिए "सच्चाई और सुलह आयोग" की स्थापना की सिफारिश की। यह कहते हुए कि "आगे बढ़ने के लिए, घावों को ठीक करने की आवश्यकता है," सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठता में दूसरे नंबर पर न्यायमूर्ति संजय किशन कौल ने कहा, "स्मृति के लुप्त होने से पहले, इस आयोग का गठन शीघ्रता से किया जाना चाहिए। इसे समयबद्ध तरीके से किया जाना चाहिए। युवाओं की एक पूरी पीढ़ी पहले से ही अविश्वास की भावनाओं के साथ बड़ी हुई है और क्षतिपूर्ति का हमारा सबसे बड़ा कर्तव्य उन्हीं के प्रति है।”

हालाँकि जम्मू-कश्मीर के लोग निराश हैं, लेकिन इस आदेश में आशा की एक उज्ज्वल किरण भी है। पीठ ने मोदी सरकार को जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाल करने का निर्देश दिया है। यह “जितनी जल्दी हो सके किया जाये” इसने कहा और साथ ही उसने चुनाव आयोग को 30 सितंबर, 2024 तक जम्मू और कश्मीर विधानसभा के चुनाव कराने का निर्देश दिया।

एक बार जब कश्मीर के लोग अपने मार्गदर्शन और भविष्य का फैसला करने के लिए अपनी सरकार बना लेते हैं, तो वे घाटी में बाहरी लोगों के जमीन खरीदने के प्रावधान को खत्म कर सकते हैं। यह उन मुख्य कारकों में से एक है जिसने आरएसएस और भाजपा नेतृत्व को सुरक्षा प्रदान करने वाले 370 को निरस्त करने के लिए प्रेरित किया।

यह एक स्पष्ट तथ्य है कि धारा 370 के संशोधनों के साथ यह अपनी प्रासंगिकता और शक्ति खो चुकी है। शासन में आने वाली विभिन्न सरकारों ने इसमें बदलाव लाये और इसे लगभग कमजोर कर दिया। एकमात्र प्रासंगिक तत्व शे है राज्य को लोगों का भूमि पर अधिकार। संयोग से 370 हटाये जाने के ठीक बाद भगवा सदस्य खुशी से झूम उठे थे कि अब उन्हें जम्मू-कश्मीर में जमीन खरीदने और वहां बसने का अधिकार होगा। आरएसएस और भाजपा इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर सकते हैं क्योंकि इस धारा का निरस्तीकरण मुसलमानों को उनकी मातृभूमि में बेघर करने और राज्य के जनसांख्यिकीय चरित्र को बदलने के उनके डिजाइन का हिस्सा था।

यदि अदालत को लगता है कि धारा 370 में संशोधन के लिए संसद द्वारा धारा 367 का सहारा लेना "संवैधानिक रूप से अमान्य" था तो वह इसे निरस्त करने की मंजूरी कैसे दे सकती है। इसने यह भी कहा कि धारा 370 को धारा 367 के तहत शक्ति के प्रयोग से संशोधित नहीं किया जा सकता है, जो केवल एक व्याख्यात्मक खंड है और कोई संशोधन शक्ति या प्रावधान नहीं है। ग़लत तो ग़लत है। “दुर्भावनापूर्ण” राजनीतिक इरादे को रेखांकित करना बहुत मुश्किल है।

मोदी सरकार इस बारे में कोई ठोस और उचित स्पष्टीकरण नहीं दे सकी कि किस वजह ने उसे राज्य को विभाजित करने के लिए प्रेरित किया। यही कारण था कि कांग्रेस ने जम्मू-कश्मीर के विघटन पर निर्णय लेने में सर्वोच्च न्यायालय की अनिच्छा पर "निराशा" व्यक्त की, और कहा कि वह धारा 370 को निरस्त करने के फैसले से सम्मानपूर्वक असहमत है।

इस पृष्ठभूमि में कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य अभिषेक मनु सिंघवी ने जानना चाहा: “कब तक केंद्र सरकार रिमोट कंट्रोल से राज्य पर शासन करने का इरादा रखती है? डर किस बात का है? सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में विरोधाभास है। हालांकि इसमें कहा गया है कि वे राज्य को केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित करने के फैसले की वैधता पर फैसला नहीं करेंगे। इसे एक खुला मामला घोषित करते हुए उन्होंने लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश घोषित करने को उचित ठहराया।

दुर्भाग्य से कश्मीरी लोगों के घावों पर मरहम लगाने का अवसर खो गया है। कश्मीर के लोगों ने सबकुछ अपने भाग्य पर छोड़ दिया है। उन्हें सुरंग के अंत में प्रकाश की कोई झिलमिलाहट दिखायी नहीं देती। यही कारण है कि वे अच्छी या प्रतिकूल टिप्पणी करने से बचते रहे। शीर्ष अदालत के इस आदेश से राजनीतिक नेताओं और आम लोगों को राहत नहीं मिली है। उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती जैसे नेता फैसले के बाद के विकल्प तलाश रहे होंगे। (संवाद)