शुक्रवार, 15 दिसम्बर 2006
यह धोखा है कामरेड
जनविरोधी नीतियों के साथ भी और विरोध में भी !
ज्ञान पाठक
वामपंथी राजनीतिक पार्टियों के समर्थन वाले श्रम संगठनों के आह्वान पर राष्ट्रव्यापी आम हड़ताल के कारण गुरुवार को देश भर की औद्योगिक पट्टियों का प्रभावित होना भी स्वाभाविक था और वाम शासित राज्यों में आम जनजीवन का ठप हो जाना भी। देश भर के अनेक जिलों में सरकारी शिक्षकों का शामिल हो जाना एक विशेष बात रही जिसकी उम्मीद कम थी। यहां देश की राजधानी में संसद के सामने वाम राजनीतिक पार्टियों के सांसदों ने भी श्रम संगठनों के आंदोलन के समर्थन में सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया।
श्रम संगठनों की सभी मांगों का सारतत्व था कि केन्द्र की सरकार “जन विरोधी” और “श्रमिक विरोधी” नीतियां वापस ले।
सोचने के लिए मजबूर करने वाली बात यह है कि केन्द्र में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की जो सरकार चल रही है वह तो वामपंथी राजनीतिक पार्टियों के समर्थन पर ही चल रही है। यदि वामपंथी राजनीतिक पार्टियों को यह ज्ञान है कि सरकार की नीतियां “जन विरोधी और श्रमिक विरोधी” हैं तो वे ऐसी सरकार को समर्थन ही क्यों दे रहे हैं। फिर यदि समर्थन दे ही रहे हैं तो बाहर जनता के साथ विरोध प्रदर्शनों में भी शामिल क्यों हो रहे हैं? आखिर वे किसके साथ हैं – सरकार के साथ या जनता के साथ? जनता के साथ अत्याचार करने वाले के साथ या पीड़ित के साथ?
ऐसे ही सवाल 2004 के लोक सभा चुनावों के पूर्व राजग गठबंधन के शासन के समय जनता के समक्ष दरपेश हुए थे। भारतीय जनता पार्टी को छोड़ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध अन्य संगठन, विशेषकर स्वदेशी जागरण मंच, देश भर में सरकार की “जन विरोधी और श्रम विरोधी” नीतियों के खिलाफ आंदोलन और प्रदर्शन कर रहे थे। उनका ही श्रम संगठन भारतीय मजदूर संघ भी आंदोलन कर रहा था। उन्होंने पूरी कोशिश की थी कि जन समर्थक होने का उनका चेहरा भी बचा रहे और वे सरकार में रहकर अपनी गुप्त और प्रकट नीतियां भी लागू करते रहें, विशेषकर उन नीतियों को जिन्हें “जन विरोधी और श्रम विरोधी” कहा जाता है। उन्होंने जनता के साथ सरकार की “जन विरोधी” नीतियों के खिलाफ भी रहने की कोशिश की और सरकार के साथ भरपूर मजे लेने की भी। वे इसी तरह सरकार में पूरे कार्यकाल में बने रहे क्योंकि संसद में उनका बहुमत था। लेकिन चुनावों के बाद उनका हश्र क्या हुआ सबको मालूम है।
इस प्रकरण से हमारे कामरेडों को भी सबक लेना चाहिए था जो उन्होंने नहीं लिया है। वह सरकार के साथ हैं यह जानते हुए भी कि यह सरकार “जन विरोधी और श्रम विरोधी” नीतियों पर चल रही है। कामरेड कहते हैं कि उनके समर्थन से चल रही कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार की विदेश नीति देश हित में नहीं है, जिसका ताजा उदाहरण है भारत-अमेरिकी समझौता। उनके अनुसार आर्थिक नीति भी जन और श्रमिक विरोधी है, विशेषकर नयी अर्थ नीति। वे सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण के विरोधी रहे हैं। महंगायी बढ़ाने, विशेषकर पेट्रोलियम की कीमतें बढ़ाने के विरोधी रहे हैं। उनके अनुसार देश की कर प्रणाली गलत है, जिसमें कामरेड सुधार के लिए आंदोलन भी करते रहे हैं। जनता के समक्ष अपना चेहरा बचाने का इससे अच्छा प्रयास और क्या हो सकता है।
लेकिन यदि वे ऐसी सरकार को छोड़ दें तो समर्थन के एवज में सरकारी मजे वे कैसे लेंगे? इसके लिए तो बड़ा कलेजा चाहिए जो आज दुर्भाग्य से हमारे कामरेड नेताओं में कम ही दिखायी देती है। कामरेड मे जो गुण होने चाहिए थे वे स्पष्टतः उनमें नहीं हैं। इन नेताओं ने अपने लाभ के लिए, कानून बदलवा दिये और एक से अधिक पद अपने साथ ही रखा। यह कहां से साम्यवाद हुआ? देश में और भी अनेक कामरेड थे और जनता के साथ खड़े होने वाले लोग हैं। किसी अन्य के लिए इन्होंने पद देना मुनासिब नहीं समझा और अनेक पदों पर स्वयं बने रहे।
साफ है कि आज का भारतीय साम्राज्यवादी नेतृत्व दोमुहीं बातें कह रहा है और उसकी कथनी और करनी में भारी अंतर है। दिखावे के उनके दांत कुछ और हैं और खाने के कुछ और। यह विपन्न लोगों के लिए, आम जनता के लिए दुर्भाग्यजनक है। साम्यवादी अपने ही नेताओं द्वारा छले जा रहे हैं। जनता की उनसे जो उम्मीदें थीं वे ध्वस्त होती जा रही हैं।
हमारे कामरेड नेता अपने बचाव में दो बातें मुख्य रुप से कहते हैं। पहला यह कि देश को वे साम्प्रदायिक ताकतों के चंगुल से बचाना चाहते हैं। उनका कहने का अर्थ है भाजपा से। दूसरा यह कि वे साझे न्यूनतम कार्यक्रम के तहत सरकार को समर्थन दे रहे हैं।
पहले भाजपा को ही लें। माना कि ये साम्प्रदायिक ताकतें हैं और इन्हें सत्ता से दूर रखना जरुरी है। लेकिन कामरेड, यह सवाल आपसे पूछा जा सकता है कि बकौल आपके “जन विरोधी” नीतियों वाली सरकार को क्या समर्थन देना जरुरी है? आपने “साम्प्रदायिकता की नीति” और “जन विरोधी नीति” अपनाने वाली दो राजनीतिक पार्टियों में दूसरे को बेहतर और समर्थन योग्य कैसे समझ लिया। क्या साम्प्रदायिकता से होने वाले जन-धन की क्षति “जन विरोधी नीति” से विकृत समाज में जन-धन की क्षति से ज्यादा रही है? जनता के लिए तो सभी प्रकार के अत्याचार समान रुप से दुखदायी हैं, और दोनों में उनके जान-माल का भारी नुकसान होता है।
आपको राजनीति करनी है और साम्यवादी राजनीति करनी है। क्या साम्यवादी सिद्धांतों को ताक पर रखकर सरकार का मजा लेना ही साम्यवाद हो गया है या आप सभी साम्यवाद के मुखौटे में पूंजीवादी ही हैं?
इसे अधिकांश जनता, आप नमूना सर्वेक्षण करा लें, धोखा समझ रही है। वह देख रही है कि किस तरह वामपंथी नेताओं के परिवार के सदस्य और परिजन सरकार को समर्थन देने और सरकार में रहने के बल पर ऐशो-आराम की जिंदगी जी रहे हैं, ठीक उसी तरह जैसे पूंजीवादी और सामंतवादी करते हैं।
हमारे उन कामरेडों की पार्टियों के अंदर दुर्दशा कर दी गयी है जो साम्यवाद के सिद्धांतों पर चलते हैं। सिद्धांतहीन राजनीति को जो रोग हमारे देश में अन्य राजनीतिक पार्टियों को लग गया है, कामरेड, आप भी उसी के मरीज होते हुए दिख रहे हैं। किसी भी तरह से, सिद्धांतों की कीमत पर भी आप सत्ताधारी वर्ग के साथ क्यों रहना चाह रहे हैं?
हमारे कामरेड नेता साझे न्यूनतम कार्यक्रम की बात करते हैं। लेकिन कांग्रेस ने इन नेताओं की कमजोरी समझ ली है। वह उन्हें चंद लाभ देकर अपनी उन नीतियों को ही लागू कर रही है जो वह चाहती है और जिसे जनता के बीच वामपंथी “जन विरोधी” कहते हैं।
कामरेड, यह हमारे साथ धोखा है। यह जनता के साथ भी धोखा है और आप स्वयं को भी धोखा दे रहे हैं। सत्ता में आप उनके साथ मजे करते हैं, और उनकी नीतियों के कारण दुखी हमारे बीच घड़ियाली आंसू बहाते हैं। आप दोनों पक्षों के साथ वास्तव में नहीं रह सकते, सिर्फ ठगों की तरह बोल सकते हैं कि दोनों के साथ हैं। #
ज्ञान पाठक के अभिलेखागार से
यह धोखा है कामरेड
जनविरोधी नीतियों के साथ भी और विरोध में भी !
System Administrator - 2007-11-11 06:41
सोचने के लिए मजबूर करने वाली बात यह है कि केन्द्र में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की जो सरकार चल रही है वह तो वामपंथी राजनीतिक पार्टियों के समर्थन पर ही चल रही है। यदि वामपंथी राजनीतिक पार्टियों को यह ज्ञान है कि सरकार की नीतियां “जन विरोधी और श्रमिक विरोधी” हैं तो वे ऐसी सरकार को समर्थन ही क्यों दे रहे हैं।