भारत में तरह तरह के किसान हैं और उन्हें एक साथ नहीं मिलाया जा सकता है क्योंकि उनकी समस्य़ाएं बहुत ही भिन्न हैं। कोई भी उस किसान नेता को, जिसके पास कई एकड़ अच्छी तरह से सिंचित फसल वाले खेत थे, और जो आगे चलकर देश का उपप्रधानमंत्री बना (देवीलाल) को उन किसानों के साथ नहीं जोड़ सकता है जिसने वर्षा नहीं होने के कारण सूखे फसल वाले खेतों का ही कष्ट झेला और कर्ज का बोझ सहन करने में असमर्थ होकर आत्महत्या कर ली।

लेकिन चुनाव आते ही न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का मुद्दा भावनात्मक हो जाता है। इसे न पाने पर धरती जोतने वाले अपनी राजनीतिक निष्ठा बदल कर बदलाव ला सकते हैं। आख़िर किसानों के पास संख्या है। ऐसी बड़ी संख्या राजनीतिक खेल के नियम बदल सकते हैं। आज चुनाव के माहौल में इस मुद्दे का सबसे ज्यादा असर उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा में हो रहा है।

न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) कुछ कृषि उत्पादों के लिए सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मूल्य है, जिस पर खुले बाजार की कीमतें लागत से कम होने पर उन्हें सीधे किसानों से खरीदा जायेगा। 2024 के चुनाव से पहले, एमएसपी अचानक केंद्रीय राजनीतिक मंच पर आ गया है।

आख़िरकार, यह भारत के कृषक समुदाय की गहरी चिंता का प्रतिबिंब है। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि इस समुदाय द्वारा डाले गये वोटों का प्रभाव भारत के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने और राजनीतिक नियति पर पड़ता है।

आश्चर्य की बात नहीं है कि राजनीतिक दल एमएसपी के मुद्दे पर अपनी-अपनी बात कहने के लिए होड़ कर रहे हैं। इसे अब हाशिये पर नहीं धकेला जा सकता। कांग्रेस खुद को किसानों के अधिकारों की समर्थक के रूप में देखती है। उसके द्वारा कानूनी तौर पर गारंटीशुदा एमएसपी की मांग की जा रही है और फिर चुनावी वायदा भी किया गया है।

भले ही वह सबसे पुरानी पार्टी के रूप में अपने विवरण पर खरी नहीं उतरी हो, उसने अपनी इस मांग को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 की अपनी विरासत पर आधारित रखा है। किसानों के हितों के रक्षक होने के अपने दावे को जोर-शोर से उठाने का दूसरा कारण यह है कि उसने किसानों पर राष्ट्रीय आयोग भी गठित किया था।

ऐसी उपलब्धियों के साथ, यह एक मजबूत एमएसपी व्यवस्था के अटूट समर्थन का दावा करता है। कांग्रेस के साथ इस मुकाबले में, भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन की राह एक पतली रेखा पर चल रही है। यह रेखा किसानों को खुश करने और व्यापार-समर्थक दृष्टिकोण बनाये रखने के बीच है। सरकार ने कुछ फसलों पर एमएसपी की पेशकश करके किसानों को लाभ पहुंचाया है।

फिर भी "चयनात्मक एमएसपी पेशकश" की पूर्व शर्त के रूप में फसल विविधीकरण पर सरकार के जोर के बाद उसकी तीखी आलोचना की गयी है। ऐसा महसूस हो रहा है कि यह चुनाव से पहले किसानों को धोखा देने की आधी-अधूरी कोशिश है। बाजार की गतिशीलता और किसानों के कल्याण के बीच संतुलन बनाना होगा। कोई भी सशर्त समर्थन प्रणालीगत मुद्दों को संबोधित करने में विफल रहता है।

"नेताओं" और "बाबूशाही" की अखंडता की स्थिति को देखते हुए, एमएसपी सुनिश्चित करने के लिए एक व्यापक कानूनी ढांचे को कुछ अविश्वास का सामना करना पड़ा है। इस प्रस्तावित प्रणाली में व्यवहार्यता और प्रभावशीलता दोहरे मुद्दे हैं जिन पर विश्वसनीयता की कमी है।

आलोचकों का मानना है कि एमएसपी का राजकोषीय बोझ अस्थिर होगा। समग्र केंद्रीय बजट की तुलना में इसका अपेक्षाकृत मामूली आवंटन ही इसे पेश करने का कारण होना चाहिए, जो इसका समर्थन करने वालों द्वारा समर्थित है। बिचौलियों की भूमिका किसानों के सामने आने वाली चुनौती को बढ़ा देती है। बिचौलियों और बाज़ार प्रशासकों के बीच मिलीभगत को कालीन के नीचे नहीं धकेला जा सकता।

मूल्य हेरफेर और विलंबित सरकारी हस्तक्षेप से किसानों की दुर्दशा में सुधार नहीं होता है। कृषि विपणन प्रणालियों में व्यापक सुधार की आवश्यकता की मांग अरण्य रोदन की तरह है जो किसी को सुनायी नहीं देता।

एमएसपी का मुद्दा उन लाखों किसानों के हितों की रक्षा करने की अग्निपरीक्षा है जो भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ बनने वाले विशाल कार्यबल का हिस्सा हैं। 18वीं लोकसभा चुनाव लड़ने वाले राजनीतिक दलों के सहयोगात्मक प्रयास के बाद ही परीक्षा उत्तीर्ण की जा सकती है। कृषि सुधारों के प्रति प्रतिबद्धताएं सभी चुनावी प्रतियोगियों को साझा करनी होंगी। इसके मूल में, एमएसपी का मुद्दा राजनीतिक बयानबाजी और पक्षपातपूर्ण एजंडे से परे है। (संवाद)