चुनाव आयोग, जिसके दो आयुक्तों को चुनाव कार्यक्रम की घोषणा से ठीक तीन दिन पहले नियुक्त किया गया था, के काम के बारे में सभी आशंकाएं सच साबित हो रही हैं।
चुनाव आयोग ने आदर्श आचार संहिता (एमसीसी) को लागू करने और सभी दलों के लिए समान अवसर सुनिश्चित करने की अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी का निर्वहन नहीं किया है। 16 मार्च को चुनावों की घोषणा के बाद पहले महीने के दौरान एमसीसी के प्रवर्तन पर अपने रिकॉर्ड के बारे में चुनाव आयोग द्वारा जारी किये गये आत्म-संतोषजनक बयान के विपरीत, इस अवधि में चुनाव आयोग अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हट गया।
सबसे पहले, चुनाव आयोग विपक्षी नेताओं के राज्य प्रायोजित दमन का मूक दर्शक था। आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को चुनाव की घोषणा और एमसीसी लागू होने के पांच दिन बाद 21 मार्च को गिरफ्तार कर लिया गया था। चुनाव आयोग को सभी केंद्रीय एजेंसियों को चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों के नेताओं के खिलाफ कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं करने की सलाह जारी करनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। आयकर विभाग ने कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय बैंक खाते और बाद में सीपीआई (एम) त्रिशूर जिला समिति के बैंक खाते को फ्रीज कर दिया। इसका उद्देश्य चुनाव प्रचार के दौरान संबंधित पार्टियों को आर्थिक रूप से पंगु बनाना था।
जहां तक एमसीसी को लागू करने का सवाल है, सबसे गंभीर चूक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दिये जा रहे उग्र सांप्रदायिक भाषणों के खिलाफ कोई कार्रवाई करने से इनकार करना है। 6 अप्रैल को अजमेर और 9 अप्रैल को पीलीभीत में मोदी द्वारा दिये गये भाषणों के खिलाफ सीपीआई (एम) महासचिव द्वारा दर्ज की गयी शिकायत में विपक्षी दलों पर भगवान राम के खिलाफ होने, "भगवान राम का अपमान करने" और "राम मंदिर के प्रति घृणा पैदा करने" का आरोप लगाया गया था। उसे पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया। उसके बाद जब 21 अप्रैल को मोदी ने बांसवाड़ा में मुसलमानों को राक्षस बताने वाला कट्टर भाषण दिया तो विभिन्न दलों और प्रमुख नागरिकों ने शिकायतें दर्ज करायीं। चुनाव आयोग की प्रतिक्रिया उस व्यक्ति को नोटिस जारी करने की नहीं थी जिसने ये भाषण दिये थे, बल्कि भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा को नोटिस जारी किया गया था। अब तक, यानी लगभग दो सप्ताह बाद, भाजपा अध्यक्ष की ओर से जवाब देने के लिए दो बार समय बढ़ाने के अलावा कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है। इस बीच, मोदी ने लगातार सांप्रदायिक सामग्री से भरे और विपक्ष के खिलाफ भावनाएं भड़काने वाले भाषणों की झड़ी लगा रखी है।
नवीनतम उदाहरण में, जब कर्नाटक भाजपा राज्य इकाई ने मुसलमानों को निशाना बनाते हुए आपत्तिजनक वीडियो सामने लाया, जो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर पोस्ट किया गया था, तो एक शिकायत के आधार पर चुनाव आयोग ने एक्स प्लेटफॉर्म को वीडियो हटाने का निर्देश दिया। हालाँकि, जब तक यह निर्देश दिया गया तब तक कर्नाटक में अंतिम चरण का मतदान समाप्त हो चुका था और वीडियो यह आलेख लिखे जाने तक हटाया नहीं गया था।
चुनाव आयोग उम्मीदवारों पर व्यक्तिगत हमलों या पार्टियों के खिलाफ झूठे आरोप लगाने की शिकायतों पर कार्रवाई करने में अधिक तत्पर दिखता है, लेकिन सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पैदा करने के लिए नफरत भरे भाषणों और हिंदुत्व प्रचार के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करना चाहता है।
आयोग की दक्षता और तकनीकी विशेषज्ञता में भी उल्लेखनीय गिरावट आयी है। एक दशक पहले तक चुनाव आयोग का मतदान और उसके सांख्यिकीय संकलन के संचालन और प्रबंधन में अच्छा रिकॉर्ड था। पिछले कुछ वर्षों में यह ठोस प्रतिष्ठा ख़त्म होती जा रही है। 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद, पूर्ण संख्या में मतदान के अंतिम आंकड़े, निर्वाचन क्षेत्र-वार, राज्य-वार और पूरे भारत-वार केवल दो साल बाद प्रदान किये गये। इस बार भी पहले और दूसरे चरण के मतदान के बाद अंतिम मतदान प्रतिशत घोषित होने में ग्यारह दिन लग गये। दूसरे चरण के मतदान का अंतिम प्रतिशत चार दिन बाद दिया गया और इसमें लगभग छह प्रतिशत की वृद्धि हुई। चुनाव आयोग ने इस असामान्य वृद्धि के लिए कोई समुचित स्पष्टीकरण नहीं दिया है। इसके अलावा, निर्वाचन क्षेत्र स्तर, राज्य या अखिल भारतीय स्तर पर डाले गये वोटों की पूर्ण संख्या प्रदान नहीं की गयी है। ये संख्याएँ चुनाव आयोग के पास उपलब्ध होनी चाहिए, तभी प्रतिशत निकाला जा सकता है। यदि कोई विसंगति है तो उसे मतदान किये गये पूर्ण आंकड़ों से तुलना करके ही पता लगाया जा सकता है। पूरा डेटा उपलब्ध न कराने पर चुनाव आयोग कोई स्पष्टीकरण देने के लिए आगे नहीं आया है।
अंकुश के अधीन चुनाव आयोग जो कार्यपालिका या सत्तारूढ़ दल के सामने खड़ा नहीं हो सकता, वह कभी भी उसे सौंपे गये संवैधानिक कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर सकता है जो कि "चुनावों का पर्यवेक्षण, निर्देशन और नियंत्रण" है। पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा के साथ जो हुआ उसकी छाया 2019 के लोकसभा चुनाव के समय के चुनाव आयुक्तों से लेकर वर्तमान चुनाव आयुक्तों को सता रहा होगा।
चुनाव आयोग एक महत्वपूर्ण संस्था है जो स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के संचालन की रक्षा कर सकती है। इन चुनावों के बाद आयोग की स्वतंत्रता और अखंडता को बहाल करने के लिए सभी आवश्यक कदम उठाना आवश्यक होगा। इसमें पहला कदम 2023 में मोदी सरकार द्वारा पारित चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति पर कानून में संशोधन करना होगा। सर्वोच्च न्यायालय, जिसने एक अलग प्रक्रिया का सुझाव दिया था, को यह सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाना चाहिए कि आगे क्या किया जाये। (संवाद)
स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की जिम्मेदारी त्याग रहा है चुनाव आयोग
सर्वोच्च न्यायालय संस्थान की गरिमा बहाल करने के लिए कदम उठाये
पी. सुधीर - 2024-05-10 10:34
लोक सभा चुनाव के तीसरे चरण का मतदान 7 मई को समाप्त होने के साथ ही सदन की आधी सीटों पर चुनाव संपन्न हो चुका है। इससे यह आकलन करने के लिए पर्याप्त अनुभव और समय मिला है कि चुनाव आयोग (ईसी) स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के संचालन की निगरानी कैसे कर रहा है। इस मामले में फैसला तो यही हो सकता है कि यह बुरी तरह विफल रहा है।